धर्म का वास्तविक स्वरुप - पंडित दीनदयाल उपाध्याय



भगवान अपनी घोषणा “धर्म संस्थापनार्थाय” अर्थात धर्म की स्थापना के लिए अवतरित होते हैं | ऐसा वर्णन हमें सुनने को नहीं मिलता कि भगवान का अवतार हुआ तो वे कहीं किसी गुफा में बैठकर एकांत मुक्ति की साधना में लग गए | इसलिए समाज को उन्नत बनाने का काम भगवान का काम है | राष्ट्र भक्ति, समाज भक्ति ही भगवान की भक्ति है | 

महाभारत में कहा गया कि “यतो धर्मस्ततो जयः” याने जहां धर्म है, वहीं विजय है | महाभारत के युद्ध में कौरवों के जितने प्रमुख सेनापति थे वे चालाकी से मारे गए | भीष्म को मारने के लिए शिखंडी को खडा किया गया | द्रोणाचार्य को युद्ध से विरत करने के लिए युधिष्ठिर ने झूठ बोला | कर्ण तब मारा गया, जब वह अपने रथ का पहिया गड्ढे से निकालने के लिए अर्जुन से अवसर मांग रहा था | दुर्योधन की मृत्यु तो भीम द्वारा कमर के नीचे गदा मारने से हुई | पांडवों द्वारा किये गए ये सब कार्य क्या धर्मानुकूल थे ?

पांडवों ने छल किया | फिर भी “जहां धर्म वहां विजय” की उद्घोषणा वेदव्यास करते हैं, क्या यह परस्पर विरोधी बात नहीं है ? इसका उत्तर खोजने पर विदित होगा कि कौरव और पांडवों में मौलिक अंतर था | कौरव पक्ष का प्रत्येक व्यक्ति व्यक्तिवादी था | भीष्म पितामह ने केवल अपनी निजी प्रतिज्ञा का विचार किया और शिखंडी के सामने शस्त्र नहीं प्रयोग किये | इतना ही नहीं तो अपनी मृत्यु का यह भेद द्रोपदी द्वारा पूछे जाने पर उसे बता भी दिया | उन्होंने यह चिंता नहीं की कि वे सेनापति हैं और उन पर सेना का भार है | दूसरी और अर्जुन ने “मैं” को छोड़ा और “हम” को स्वीकार किया | उधर भगवान श्री कृष्ण ने भी अपनी शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा को छोड़कर समय आने पर बिना आगा पीछा सोचे शस्त्र उठा लिए | समष्टि के हित में यह नहीं सोचा कि उन्हें व्यक्तिगत रूप से क्या कहा जाएगा ?

द्रोणाचार्य ने पुत्रवध का झूठा समाचार पाकर शस्त्र त्याग दिए, जबकि युधिष्ठिर ने समष्टि की मांग पर आधा झूठ बोलकर अपना रथ थोड़ा नीचा कर लिया | कर्ण ने तो अपनी दानवीरता का ही ध्यान रखा और कवच कुंडल इंद्र को सोंप कर निश्चित मृत्यु का वरण कर लिया | कुंती ने आवश्यकता पड़ने पर कर्ण को यह बता दिया कि वह उसका कौमार्यावस्था का पुत्र है | यह बताने में उसे कितनी अपमानजनक स्थिति से गुजरना पडा होगा इसकी सहज कल्पना की जा सकती है | किन्तु इस सत्य की उदघोषणा द्वारा उसने कर्ण से यह वचन तो ले ही लिया कि वह अर्जुन के अतिरिक्त किसी अन्य पांडव पर शस्त्र नहीं उठाएगा |

इस प्रकार कौरव पक्ष में सबको केवल अपनी अपनी चिंता थी | भीष्म को अपनी प्रतिज्ञा की चिंता थी, द्रोणाचार्य पुत्रमोह ग्रस्त थे, दुर्योधन को केवल मात्र अपने राज्य की चिंता थी | जबकि पांडव पक्ष में सबने अपने व्यक्तिवादी द्रष्टिकोण को छोड़कर भगवान कृष्ण के नेतृत्व में एकजुट होकर कार्य किया | समष्टि का विचार कर कार्य करने का ढंग ही धर्म और व्यक्तिवादी आधार पर सोचना अधर्म यह सीधी परिभाषा | जैसे किसी की ह्त्या करना पाप है, किन्तु युद्ध में लड़ने वाले सैनिक को कोई हत्यारा नहीं कहता | इसी प्रकार वोट देते समय यदि राष्ट्र का विचार किया तो धर्म होगा, किन्तु यदि व्यक्तिगत लाभहानि से प्रेरित होकर मतदान किया तो अधर्म हो जाएगा |

किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि “मैं” नाम की कोई संज्ञा ही नहीं है | तात्पर्य केवल इतना है कि “मैं” की सार्थकता “हम” मैं होती है | हमारे यहाँ कहा गया है कि :-

अन्धतमः प्रविशन्ति येSसम्भूतिमुपासते
ततो भूय इव ते तमो य उ सम्भूत्यां रताः |
सम्भूतिम च विनाशं च यस्तद्वेदोभयं सह
विनाशेन मृत्युं तीर्त्वा सम्भूत्याSमृतमश्नुते |

जो व्यक्तिवाद का अवलंबन करते हैं, उनका अधःपतन होता है, किन्तु जो समष्टिवाद में रमते हैं, वे और अधिक नीचे गिरते हैं | व्यक्ति व समष्टि का साथ साथ रहना ही लाभदायक है | व्यक्तिवाद के अनुष्ठान से व्यक्ति के कष्ट दूर होते हैं तो समष्टिवाद से अमरत्व की प्राप्ति होती है |

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