मैं हूँ हिंदुस्तानी - डॉ. वेदप्रताप वैदिक

(मौलाना कल्वे सादिक के एक बयान को लेकर आजकल बहस जारी है, निंदा और प्रशंसा का दौर चल रहा है | ऐसे में 7 नवम्बर 2011 को लिखा श्री वेदप्रताप वैदिक का एक लेख पढ़ना प्रासंगिक होगा | लेख में संघ के पूर्व सरसंघचालक स्व. सुदर्शन जी और मौलाना सादिक की भेंट का वर्णन है | - संपादक)

शिया धर्मगुरू मौलाना कल्बे-सादिक और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व सरसंघचालक कुप्प. सी. सुदर्शन ने लखनऊ में कमाल ही कर दिया। दोनों ने मिलकर जो घोषणा की है, अगर उस पर अमल हो गया तो भारत के राजनेताओं को शीर्षासन के लिए मजबूर होना पड़ेगा। नेताओं की दुकानें तो बंद ही हो जाएंगी। लोकतंत्र के नाम पर भारत में चल रहे राजनीतिक पाखंड की जड़े उखड़ने लगेंगी।

दोनों सज्जनों ने घोषणा की है कि मज़हब और जात के नाम पर जनता किसी को वोट न दे! क्या भारत में कोई ऐसी पार्टी है जो मजहब और जात की परवाह किए बिना चुनाव लड़ती है? क्या कोई ऐसे उम्मीदवार भी होते हैं, जो शुद्घ सेवा और योग्यता के नाम पर जनता से वोट मांगते हों? सारी पार्टियां उम्मीदवारों का चयन करते वक्त सबसे पहले जात और मजहब का ख्याल करती हैं। कई पार्टियां तो बनी ही हैं, जात और मजहब के दम पर! उत्तर प्रदेश जैसे प्रदेश में यह प्रपंच सबसे तगड़ा है। जहां घाव सबसे संगीन है, वहां ही सादिक और सुदर्शन ने भाला भोंक दिया है। उनके इस एक- जैसे अभिमत का जनता पर कितना असर होता है, यह तो अभी देखना है लेकिन नेताओं के पसीने छूटने तो अभी से शुरू हो गए हैं।

श्री सुदर्शन और श्री कल्बे सादिक ने कहा है कि जात और मज़हब को चुनाव से हटाए बिना भ्रष्टाचार दूर करना असंभव है। सच्चाई तो यह है कि जात और मज़हब के आधार पर वोट मांगना और वोट देना-अपने आप में घोर भ्रष्टाचार है। जब आप जात और मजहब के आधार पर वोट देते हैं तो आप उस पार्टी और उम्मीदवार की पात्रता और ईमानदारी को दरकिनार कर देते हैं। अपने वोट का दुरूपयोग करते हैं। सारे शासनतंत्र को ही भ्रष्ट बना देते है। श्री सादिक ने तो यहां तक कह दिया है कि चुनाव में यदि कोई खराब छवि का मुसलमान खड़ा है और उसके मुकाबले में कोई ईमानदार हिंदू है तो मुसलमानों को चाहिए कि वे उस ईमानदार हिंदू को ही जिताएं। 

श्री सादिक का यह बयान पूरी तरह इस्लाम के सिद्घांतों के अनुकूल है लेकिन बहुत-से पोंगापंथी मौलानाओं को यह बात नागवार गुजरेगी। उनका दिमाग मोहम्मद अली-शौकत अली और जिन्ना के सांचे में ढला हुआ है। वे इस्लाम को धर्म नहीं, राजनीति मानते हैं। उन्हें इस बात की ज़रा भी परवाह नहीं है कि इस्लाम से धर्म सधता है या नहीं। उन्हें तो अपनी राजनीति साधनी है। पाकिस्तान इसी का परिणाम था।

श्री कल्बे-सादिक की राय को सारे मुल्क में बड़े पैमाने पर फैलाने की जरूरत है। उसे सिर्फ मुसलमान मानें, यह काफी नहीं है। उनके पैमाने पर सभी हिंदू, सिख और ईसाई उम्मीदवारों को भी नापा जाना चाहिए। कम से कम चुनाव के मौके पर लोग खुद को स्वतंत्र नागरिक सिद्घ करें। वे अपना मजहब अपने पूजा-गृह में रखें और अपनी जात अपने चौके में! चुनाव केंद्र पर तो उनकी एक ही जात और एक ही मजहब होना चाहिए। वह है- ‘मैं हूँ हिंदुस्तानी’।

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