एक शताब्दी पूर्व मौलाना आजाद ने बुलंद की थी इस्लामी कट्टरवाद के खिलाफ आवाज


(कारवाँ में 23 जून 2015 को छपे एस इरफान हबीब के लेख के अनुवादित अंश) 
इस वर्ष फरवरी और मई के बीच तीन ब्लॉगर्स-अविजित रॉय, वशिकुर रहमान और अनंत विजय दास को बंगलादेश में मौत के घाट उतार दिया गया । वे सब के सब उन इस्लामी कट्टरपंथियों के शिकार हुए जो सोचते हैं कि इस्लाम में असहमति के लिए कोई जगह नहीं है । भारत के कोलकता में भी 26 मार्च 2015 को एक मदरसे के प्रधानाध्यापक मासूम अख्तर मतिअबुर्ज पर क्रूरता के साथ यह कहते हुए हमला किया गया कि वह रुश्दी होने की कोशिश कर रहा था ।

अख्तर का कहना है कि “मैं इस्लाम विरोधी नहीं हूँ, किन्तु मेरी स्वतंत्र सोच कट्टरपंथी मुसलमानों को स्वीकार नहीं है | जबकि मुझे लगता है कि वे लोग इस्लाम का महान नुकसान कर रहे हैं ।“

अख्तर ने प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी और विद्वान मौलाना आजाद के सौ से अधिक वर्ष पूर्व के स्वतंत्र विचारों का उल्लेख किया है, जो इस्लाम की समकालीन ग़लत व्याख्या के ऐतिहासिक संदर्भ को समझने के लिए प्रासंगिक है। यह सर्वविदित तथ्य है कि आजाद उस समग्र राष्ट्रवाद के साथ खड़े हुए तथा उन्होंने हिंदू और मुस्लिम दोनों की धार्मिक कट्टरता की निंदा की । 

1909 और 1910, के बीच जब आजाद 20 वर्ष के नवयुवक थे उन्होंने प्रसिद्ध सूफी संत सरमद शहीद पर एक लेख लिखा | यह लेख उन्होंने अपने पुराने दोस्त दरगाह निज़ामुद्दीन औलिया के ख्वाजा हसन निजामी के अनुरोध पर लिखा था | 

निबंध के अनुसार सरमद ईरान के एक प्रांत काशन में बसे यहूदी-अर्मेनियाई माता-पिता की संतान थे तथा व्यापारी के रूप में भारत आए । यहाँ आने पर उनकी दोस्ती अभयचंद नामक एक हिन्दू नौजवान से हो गई | भारत के इस्लामी इतिहास में राजकुमार दारा शिकोह और उसके दोस्त सरमद को नजरअंदाज कर दिया गया है । इतना ही नहीं तो औरंगजेब की तुलना में दारा शिकोह को एक विधर्मी के रूप में पेश किया गया है | इसी प्रकार कट्टर मुल्लाओं को सरमद का उदार सूफी इस्लाम कभी पसंद नहीं आया । 

हमें वर्तमान बीसवीं सदी के परिप्रेक्ष में उस निबंध पर पुनः विचार करना चाहिए तथा आजाद द्वारा की इस्लाम की व्याख्या को प्रसारित करना चाहिए | सरमद और दारा शिकोह दोनों अपने आस्था और विश्वास के कारण मारे गए थे, सैकड़ों वर्षों बाद भी आज की परिस्थिति यथावत है ।

यह कहना गलत नहीं होगा कि सरमद शहीद और दारा शिकोह सत्रहवीं सदी में दक्षिण एशिया के ईशनिंदा के आरोप में प्रताड़ित पहले व्यक्ति थे, जैसा कि सऊदी अरब और पाकिस्तान जैसे देशों में प्रचलित ईशनिन्दा कानूनों में आज हो रहा है । 

सरमद 1654 में दिल्ली आया था और जल्द ही वह राजकुमार दारा शिकोह का करीबी बनकर संतों, साधुओं, भिक्षुओं और पुजारियों के सानिध्य में रह कर एक दरवेश के रूप में जाना जाने लगा । दारा ने इस्लाम और हिंदू धर्म के विषय में मज्म-उल-बहरेन (दो महासागरों का विलय) नामक पुस्तक लिखी | साथ ही सिर्र -मैं-अकबर में उपनिषदों और भगवद् गीता का फारसी में अनुवाद किया । उसी तर्ज पर मौलाना आजाद ने भी “इस्लाम और भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन” लिखकर धर्म की संकीर्ण हठधर्मिता से ऊपर उठकर सभी धर्मों में सन्निहित सार्वभौमिक सत्य की सराहना की । 

सरमद को औरंगजेब के शासनकाल में फांसी दे दी गई थी | हम लोग भाग्यशाली हैं कि वर्तमान लोकतांत्रिक भारत में किसी तुच्छ फतवे के कारण हमें फांसी पर नहीं चढ़ाया जाता |

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