स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या से उपजे सवाल !


5 अक्टूबर 2008 को टाईम्स ऑफ़ इंडिया व हिन्दू समाचार पत्रों ने माओवादी नेता सब्यसाची पांडा का इंटरव्यू प्रकाशित किया | ख़ास बात यह कि उस समय वह स्वामी लक्ष्मणानंद जी की ह्त्या के आरोप में लम्बे समय से भूमिगत था | 

उस इंटरव्यू में उसने कहा कि भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी, विहिप के अशोक सिंघल और प्रवीण तोगड़िया वामपंथी अतिवादियों के निशाने पर इसलिए रहते है, क्योंकि 'कट्टरपंथी' संघ परिवार सांप्रदायिक जुनून भड़का रहा है । पांडा उर्फ ​​सुनील ने भुवनेश्वर के नजदीक कंधमाल के जंगलों में किसी अज्ञात स्थान पर पत्रकारों के एक समूह के साथ मुलाकात में स्पष्ट घोषित किया कि माओवादी, देश में सांप्रदायिक जुनून भड़का रहे इन तीनों नेताओं को समाप्त करने के लिए अवसर की तलाश में रहेंगे और जैसे ही मौक़ा मिलेगा हम इन तीनों को मार देंगे । 

पांडा ने कहा कि हम लोग भेदभाव व शोषण रहित, जाति विहीन समाज बनाना चाहते हैं | उड़ीसा में अल्पसंख्यक समुदाय के लोग बड़े पैमाने पर माओवादी समूहों में शामिल हैं, इसलिए स्वाभाविक ही माओवादी भी इनका समर्थन करते है तथा विहिप नेता लक्ष्मणानंद सरस्वती को खत्म करने के लिए ईसाई समुदाय का दबाव था। 

हमने पहले लक्ष्मणानंद को ईसाई विरोधी गतिविधियों से विरत रहने को कहा था। लेकिन उसके बाद भी दिसंबर 2007 में हुए दंगे में उनका हाथ रहा, जिसमें गोहत्या में लिप्त लोगों को निशाना बनाया गया | इसलिए ईसाई समुदाय के लोग संत के विरोधी हो गए । 

यह पूछे जाने पर कि उड़ीसा में माओवादी कैडर व समर्थकों में सबसे अधिक ईसाई समुदाय के लोग हैं, पांडा ने बेहिचक स्वीकार किया कि "यह तथ्य है कि हमारे संगठन में ईसाई बड़े पैमाने पर हैं । उड़ीसा के रायगढ़, गजपति और कंधमाल में हमारे अधिकांश समर्थक ईसाई समुदाय के हैं | 

उक्त रिपोर्ट से दो बातें साफ़ समझ में आती हैं | एक तो यह कि उड़ीसा में माओवादीयों और ईसाईयों का गठजोड़ है | और दूसरे मीडिया में भी बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं, जो येन केन प्रकारेण हिंसक नक्सलियों के समर्थक है | वरना क्या कारण है कि जिस सव्यसाची पांडा को पुलिस वर्षों तलाश करती रही, मीडिया के स्वनामधन्य पत्रकार उससे मिलकर उसका इंटरव्यू ले आते हैं | इतना ही नहीं तो उसे सैद्धांतिक जामा पहिनाकर महिमा मंडित करने की कुचेष्टा भी करते दिखाई देते हैं | सरेआम देश के नेताओं को दी जा रही उसकी धमकी इस प्रकार प्रकाशित होती है, मानो ये समाज नायक कोई खलनायक हों और हिंसक नक्सली समाजोद्धारक | स्वामी लक्ष्मणानंद जैसे संत की जघन्य ह्त्या को इस प्रकार प्रस्तुत किया जाता है मानो किसी अपराधी को दण्डित किया गया हो | 

यह अलग बात है कि स्वामी जी की ह्त्या से आक्रोश में आये कंध वनवासी समाज के भय से उसका कंधमाल में रहना भी मुश्किल हो गया | वह अंततः गुंजम जिले के बहरामपुर से जुलाई 2014 में गिरफ्तार हुआ और उसके सहित आठ लोगों को आजीवन कारावास की सजा भी मिली | 

आईये अब देखते हैं कि आखिर स्वामी जी से ईसाई समाज नाराज क्यों था ?

ओड़िशा के वनवासी बहुल फूलबाणी (कन्धमाल) जिले के गांव गुरुजंग में स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती का जन्म 1924 में हुआ | बचपन से ही उनके मन में दु:खी-पीड़ितों की सेवा हेतु अपना जीवन समर्पित कर देने का संकल्प रहा । वे गृहस्थ भी बने और दो संतानों के पिता भी | पर अंततः उन्होंने साधना के लिए हिमालय की राह पकड़ ली। 1965 में वे वापस लौटे और गोरक्षा आंदोलन से जुड़ गए।

प्रारंभ में उन्होंने वनवासी बहुल फूलबाणी (कन्धमाल) जिले के गांव चकापाद को अपनी कर्मस्थली बनाया। कुछ ही वर्षों में वनवासी क्षेत्रों में उनके सेवा कार्य गूंजने लगे | उन्होंने वनवासी कन्याओं के लिए आश्रम- छात्रावास, चिकित्सालय जैसी सुविधाएं कई स्थानों पर खड़ी कर दीं और बड़े पैमाने पर समूहिक यज्ञ के कार्यक्रम संपन्न कराए।

उन्होने पूरे जिले के गांवों की पदयात्राएं कीं। वहां मुख्यत: कंध जनजातीय समाज ही है। उन्होने उस समाज के अनेक युवक-युवतियों को अपने साथ जोड़ा और देखते ही देखते जन सहयोग से चकापाद में एक संस्कृत विद्यालय शुरू हुआ। जनजागरण हेतु पदयात्राएं जारी रहीं।

26 जनवरी 1970 को 25-30 ईसाई तत्वों के एक दल ने उनके उपर हमला किया। एक विद्यालय में शरण लेकर वे जैसे तैसे बच तो गए, लेकिन उसी दिन उन्होने यह निश्चय भी कर लिया कि मतांतरण करने वाले तत्वों और उनकी हिंसक प्रवृत्ति को उड़ीसा से खत्म करना ही है।

उन्होंने चकापाद के वीरूपाक्ष पीठ में अपना आश्रम स्थापित किया। उनकी प्रेरणा से 1984 में कन्धमाल जिले में ही चकापाद से लगभग 50 किलोमीटर दूर जलेसपट्टा नामक घनघोर वनवासी क्षेत्र में कन्या आश्रम, छात्रावास तथा विद्यालय की स्थापना हुई। आज उस कन्या आश्रम छात्रावास में सैकड़ों बालिकाएं शिक्षा ग्रहण करती हैं। 

ओड़िशा के जन सामान्य में स्वामी लक्ष्मणानंद जी के प्रति अनन्य श्रद्धा भाव है। सैकड़ों गांवों में पदयात्राएं करके लाखों वनवासियों के जीवन में उन्होंने स्वाभिमान का भाव जगाया। सैकड़ों गांवों में उन्होंने श्रीमद्भागवत कथाओं का आयोजन किया। एक हजार से भी अधिक भागवत घर स्थापित किए, जिनमें श्रीमद्भागवत की प्रतिष्ठा की। 1986 में स्वामी जी ने जगन्नाथपुरी में विराजमान भगवान जगन्नाथ स्वामी के विग्रहों को एक विशाल रथ में स्थापित करके उड़ीसा के वनवासी जिलों में लगभग तीन मास तक भ्रमण कराया। इस रथ के माध्यम से लगभग 10 लाख वनवासी नर-नारियों ने जगन्नाथ भगवान के दर्शन किए और श्रद्धापूर्वक पूजा की। इसी रथ के माध्यम से स्वामी जी ने नशाबन्दी का अभियान चलाया, सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध एवं गोरक्षा के लिए जन जागरण किया। इससे वनवासियों में चेतना एवं धर्मनिष्ठा जागृत हुई।

सन् 1970 से दिसंबर 2007 तक स्वामी जी पर 8 बार जानलेवा हमले किए गए। मगर इन हमलों के बावजूद स्वामी जी का प्रण अटूट था और वह प्रण यही था- मतांतरण रोकना है, जनजातीय अस्मिता जगानी है। स्वामी जी कहते थे- "वे चाहे जितना प्रयास करें, ईश्वरीय कार्य में बाधा नहीं डाल पाएंगे।

लेकिन २३ अगस्त २००८ को जन्माष्टमी समारोह में भगवान् श्रीकृष्ण की आराधना में तल्लीन स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की निर्मम हत्या कर दी गई थी । उनके अपने जलेसपट्टा आश्रम में हत्यारे घुसे और उन्हें गोलियों से भून डाला | हत्यारों ने इतने पर ही बस नहीं किया, बल्कि उनके मृत शरीर को कुल्हाड़ी से भी काट डाला | उनके साथ चार अन्य साधुओं की भी ह्त्या कर दी गई | 

उनकी ह्त्या के बाद समूचा कंधमाल जैसे उबल पडा | बड़े पैमाने पर हुई सांप्रदायिक हिंसा में कम से कम 38 लोग मारे गए और सैकड़ों लोग बेघर हो गये | ओडिशा के अन्य भागों में भी प्रदर्शन व आन्दोलन हुए । हत्या के आरोप में आठ लोगों को गिरफ्तार किया गया और हत्या के मामले में आजीवन कारावास की सजा भी सुनाई गई । 

सवाल उठता है कि उनकी ह्त्या क्यों की गई ? 

स्वामी लक्ष्मणानंद ने उड़ीसा में धर्मातरण के खिलाफ अभियान छेड़ रखा था। पिछले कई वर्षों से स्वामीजी धर्मांतरित ईसाईयों को हिंदू धर्म में वापस लाने का कार्य कर रहे थे । उनकी ह्त्या ने पूरे देश को झकझोर दिया | माओवादियों एवं ईसाइयों की मिलीभगत की ओर भी समाज का ध्यान गया | 

सव्यसाची पांडा



एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें