आल्हा ऊदल की कहानी - पिता की मौत का बदला



यह उस दौर की बात है, जब राजपूतों के उत्थान का समय था | कन्नौज में गहरवार, दिल्ली में तोमर, अजमेर में चौहान, बंगाल बिहार में पाल तथा सेन वंश, मेवाड़ में गहलौत, गुजरात में बघेल, राहिरगढ़ के चालुक्य, जालौर के सोनगरा, पाटन के चावढा, सिरोही के देवरा, जूनागढ़ के यादव, सीकरी के सिकरवार, अमरगढ़ के जेतवा, असीर के टांक, गागरोन के खीची, पाटली के झाला, नरवर के कछवाहा, कालिंजर के चंदेल, सब एक से बढ़कर एक पराक्रमी और शूरवीर | लेकिन शौर्य का उपयोग केवल एक दूसरे के विरुद्ध | किसी के अधीन रहना तो सीखा ही नहीं | एक बार शत्रु मान लिया तो बस हर समय बदला बदला और बदला की धुन | सदियों तक घोष वाक्य रहा – 

जाको बैरी सुख से सोवे ताके जीवन को धिक्कार | 

आल्हा ऊदल जैसे शूरवीर वीरता की आंधी थे, जो समूचे विश्व को जीत सकते थे, किन्तु जब विदेशी आक्रमण हुआ, उस समय तक यह आंधी थम चुकी थी, किस्से कहानी बन चुकी थी, काल के गाल में समा चुके थे ये महायोद्धा | जबकि कालखंड वही था | महानगरों या अपेक्षा कृत शांत इलाकों के रहवासी उस इलाके की मानसिकता का अनुमान भी नहीं लगा सकते | आल्ह खंड की प्रस्तावना में ही कहा गया है कि महाभारत का युद्ध समाप्त होने के बाद भी पांडवों की रण पिपासा समाप्त नहीं हुई | और युद्ध करने की इच्छा अधूरी रही | अतः उन्होंने भगवान कृष्ण से प्रार्थना की कि हे दयानिधान कौरवों से जीत तो आपकी कृपा से हुई है, किन्तु हमारी युद्ध की इच्छा तो शेष ही रह गई | अतः प्रसन्न होकर यह वर दीजिये कि कलियुग में हमारी यह युद्ध की इच्छा पूर्ण हो | 

तो मान्यता है कि वे पांडव ही आल्हा ऊदल ब्रह्मानंद लाखन मलखान इंदल आदि बनकर जन्मे | जब जन्म ही केवल युद्ध के लिए हुआ, तो स्वाभाविक ही सारा जीवन रणक्षेत्र में ही गुजरा | पांडव जन्मे तो कौरव कहाँ पीछे रहने वाले थे, वे भी प्रथ्वीराज, धान्धू, ताहर, चोंडा ब्राह्मन बनकर मैदान में आ डटे | कोई बंधू मुझपर नाराज न हो, यह विडियो आल्ह खंड पर है, इसमें मैं अपनी तरफ से कुछ भी नहीं कहने वाला | हाँ केवल गद्य में शब्द मेरे हो सकते हैं, भाव आल्ह खंड का ही रहेगा | 

यह तो हुइ प्रस्तावना, अब शुरू करते हैं मूल कहानी | चंदेल नगर अर्थात आज की चंदेरी में प्रतापी राजा परमाल हुए, जिन्होंने दिल्ली के शासक अनंगपाल जैसे राजाओं को भी जीतकर भेंट ले लेकर छोड़ दिया | अनंगपाल अर्थात राजा प्रथ्वीराज के नाना, जिन्होंने बाद में उन्हें गोद लेकर दिल्ली का अधिपति बनाया | 

जहाँ तक आल्ह खंड की बात है यह पूर्णतः युद्ध काव्य है, जिसमें शौर्य और पराक्रम की भरमार है, किन्तु साथ ही यह उस समय की भारत की दशा का भी चित्रण करता है | इतने शूरवीर योद्धा बस जरा जरा सी बात पर आपस में ही लड़ते रहे और लड़ लड़ कर मरते रहे | पहला ही युद्ध वृतांत परमाल राजा की शादी को लेकर है | परमाल की इच्छा हुई महोबा की राजकुमारी मल्हना से शादी करे, तो बस धावा बोल दिया महोबा के राजा मालवंत के ऊपर | मालवंत पराजित हुए और शादी हो गई, किन्तु मल्हना चंदेरी जाना नहीं चाहती थी, तो परमाल ने अपनी राजधानी महोबा को ही बना लिया और श्वसुर महोदय पहुँच गए उरई | साले महोदय माहिल न तो शादी के पक्ष में थे और महोबा से उरई जाना तो उन्हें और भी नागबार लगा | पराजित थे तो कर कुछ सके नहीं, लेकिन मन में खुन्नस सदा बनी रही | कुछ समय बाद राजा मालवंत का देहांत हो गया और माहिल ही उरई का शासक बन गया | 

एक और कहानी साथ साथ विकसित हुई | चंद्रवंशी महाराज चन्द्रवर्मा के कुल में एक सोरठ नामक प्रतापी राजा का संसार से मोहभंग हो गया और वे सन्यासी होकर योगिराज गोरख के आश्रम में रहने लगे | उनके दो अबोध बच्चे भी ऋषि आश्रम में उनके साथ ही रहे, तभी काल का निमंत्रण आ गया और सोरठ स्वर्गवासी हुए और उनके दोनों बच्चों दच्छराज और बच्छराज की परवरिश आश्रम में ही हुई | महर्षि ने उन्हें क्षत्रियोचित शिक्षा दी और सभी अस्त्र शस्त्र संचालन में पारंगत बनाया | ये बच्चे चूंकि वन में ही रहकर बड़े हुए, अतः ये बनाफर के नाम से प्रसिद्ध हुए | बैसे ये तोमर वंशीय थे | 

एक बार जब राजा परमाल जंगल में आखेट को गए तो उन्हें एक अद्भुत नजारा देखने को मिला, जंगल में दो जंगली भेंसे आपस में लड़ रहे थे, उनकी लड़ाई से राजा के शिकार का मजा किरकिरा हो रहा था | राजा परमाल ने अपने सैनिकों को आज्ञा दी कि वे भेंसों को अलग अलग करके भगा दें, किन्तु यह कार्य किसी से नहीं हो पा रहा था } तभी जंगल से दो बालक निकले और देखते ही देखते उन्होंने उन भेंसों के सींग पकड़ कर अलग कर दिया और बच्चों के घूंसों के प्रहार से वे अलग अलग दिशा में भाग गए | ये दोनों बच्चे दच्छराज और बच्छराज ही थे | राजा परमाल उनसे बहुत प्रभावित हुए और ऋषि की अनुमति लेकर बच्चों को अपने साथ महोबा ले आये जहाँ रानी मल्हना ने बड़े लाडप्यार से उनकी परवरिश की | उन दिनों बक्सर में रहिमल और टोडर नामक दो वीर पुरुष युद्ध विद्या में अच्छे जानकार माने जाते थे | राजा की आज्ञा से दोनों भाईयों ने उनके पास जाकर उनसे युद्ध कौशल भी सीखा और चारों पगड़ी बदल मित्र भी हो गए | इन चारों के पराक्रम की धाक दूर दूर तक फ़ैल गई | 

एक दिन इन चारों का किसी बात पर बनारस के मुस्लिम योद्धा मीर ताल्हन व उसके बच्चों से विवाद हो गया, तो उसके निबटारे के लिए ये महोबा की ओर चले | रात हो जाने के कारण नगर का फाटक बंद हो चुका था, अतः बाहर रुककर सुबह होने का इंतजार कर रहे थे, तभी देखा कि एक बड़ी भारी सेना ने महोबा पर आक्रमण कर दिया है और वे दुर्ग का फाटक तोड़ने का प्रयास कर रहे हैं | पाँचों वीर आपस का विवाद भूलकर उस सेना पर टूट पड़े | इन लोगों के प्रबल पराक्रम से आक्रमणकारी मांडू के राजकुमार करिंगा राय की सेना के पाँव उखड़ गए | करिंगा रॉय को भड़काकर राजा परमाल के साले माहिल ने ही भेजा था | प्रातःकाल जब पूर्ण शान्ति हो गई तब किले के द्वार खुले | बुद्धिमान राजा परमाल ने मीर ताल्हन को अपनी सेना का सेनापति बना लिया और रहिमल और टोडर को भी महोबा में ही अपना सहायक बनाकर रोक लिया | 

रानी मल्हना ने राजा परमाल को सुझाव दिया कि दच्छराज और बच्छराज की शादी करवा देना चाहिए, कहीं ऐसा न हो कि ये दोनों अपने मित्रों के साथ बक्सर चले जाएँ | राजा को बात पसंद आई और उन्होंने अपनी दो सालियों से ही उन दोनों की शादी करवा दी | दच्छराज के लिए महोबा से आधा कोस की दूरी पर दशहर पुरवा नामक ग्राम में एक दुर्ग और महल बनवाकर दे दिया गया और बच्छराज को सिरसागढ़ दे दिया गया | किन्तु दोनों भाई साथ साथ दशहरपुरवा में ही रहने लगे | माहिल और भी ज्यादा नाराज हो गया | लेकिन कर कुछ सका नहीं और धीरे धीरे पांच वर्ष गुजर गए | दच्छराज की पत्नी देवल देवी ने एक बालक को जन्म दिया, जिसका नाम आल्हा रखा गया | इसके कुछ दिनों बाद ही उनके गर्भ से धान्धू नामक बालक ने जन्म लिया, जिसका जन्म गंडांत मूल में होने के कारण अशुभ मानकर पालन पोषण के लिए एक दासी को दे दिया गया | यह बालक भी कार्तिक मेले में खोकर प्रथ्वीराज के चाचा के पास पहुँच गया और वहीँ उसकी परवरिश हुई | इसी बीच छोटे भाई बच्छराज को भी पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई, जिसका नाम मलखान रखा गया | 

एक बार दच्छराज अपनी गर्भवती पत्नी और रानी मल्हना के साथ ज्येष्ठ शुक्ल दसमी को बिठूर में लगने वाले मेले में गया | वहां अन्य राजा महाराजा भी आये हुए थे | मांडू के राजा करिंगा राय को मेले में किसी अनोखी चीज की तलाश में घुमते देख माहिल ने कहा कि मेले में सबसे अनोखी चीज तो महोबा की रानी मल्हना के गले में पड़ा नौलखा हार है, दम हो तो छीन लो, पैसे देकर भी बैसी चीज तो मेले में मिलने से रही | करिंगा रॉय एक बार महोबे पर हमला करके मुंह की खा चुका था, बदला लेना चाहता ही था सो टूट पड़ा महोबा बालों पर | लेकिन सफलता इस बार भी हाथ नहीं लगी और मीर ताल्हन की मदद से दच्छराज ने उसका आक्रमण असफल कर दिया | महोबा लौटने के बाद समय आने पर देवल ने ऊदल को और रानी मल्हना ने ब्रह्मानंद को जन्म दिया | लेकिन उसके कुछ ही दिनों बाद माहिल ने एक बार फिर अपनी कुटिल चाल चली और करिंगा राय को बताया कि आजकल मीर ताल्हन बनारस गया हुआ है, महोबा में दच्छराज बच्छराज अकेले हैं, नौलखा हार लूटने का अच्छा मौका है | बस फिर क्या था करिंगा रॉय एक बार फिर टूट पड़ा महोबे पर और सोते हुए दच्छराज बच्छराज को बांधकर अपने साथ मांडू ले गया, उनका पपीहा घोडा, सांकल फेरने वाला हाथी और रानी का नौलखा हार भी लूट कर ले गया | मांडू पहुंचकर दोनों भाईयों को पत्थर के कोल्हू में पिसवाकर मार डाला और उनके सर एक बरगद के पेड़ पर लटका दिए | जब मीर ताल्हन ने बदला लेने की कोशिश की तो देवल देवी ने उसे रोक दिया और कहा कि पिता की मौत का बदला लेने का अधिकार उनके बच्चों का है, कृपया उसे न छीनें | बच्चों को बड़ा होने दें, वे ही बदला लेंगे | 

दिल पर पत्थर रखकर राजा परमाल ने सभी बच्चों का लालन पालन शुरू किया और थोडा बड़े होने पर उन्हें उचित शिक्षा के लिए महात्मा अमर रॉय के पास भेजा | बच्चे होशियार भी थे और परिश्रमी व पराक्रमी भी | ब्रह्मानंद धनुर्विद्या में निपुण हुए, तो ऊदल अस्त्र शस्त्र चलाने में सिद्ध हस्त, मलखान अपार बलशाली थे, जबकि आल्हा ने सभी गुणों को प्राप्त किया | गुरू आश्रम में युद्ध संबंधी व अन्य शिक्षा ग्रहण करने के बाद वे वापस महोबा आये | माहिल की दुष्टता का इसके बाद भी अंत नहीं हुआ, एक दिन जब ये बालक शिकार खेलते हुए उरई के जंगलों की तरफ गए, तो उसने व्यंग में इन बच्चों से कहा – जानवरों पर वीरता क्या दिखा रहे हो, हिम्मत है तो अपने पिता का बदला लो. जिन्हें कोल्हू में पेरकर मारा गया और उनके सर आज भी बरगद पर लटके हुए हैं | क्रोध से जलते हुए बालक महोबा लौटे व ऊदल ने मां से सब हाल पूछा | मां ने सच सच सब बताया, लेकिन साथ ही रोका भी कि थोडा धैर्य रखो, बदला जरूर लेना, लेकिन थोड़े बड़े हो जाओ तब | लेकिन ऊदल को चैन कहाँ था | उसने तो प्रतिज्ञा ही कर ली – महोबा का पानी तो तब ही पियूंगा जब बदला ले लूंगा | 

आल्हा ऊदल और मलखान को युद्ध के लिए जाते देखकर सेनापति मीर ताल्हन भी आ गए और बोले मैं तो कबसे अपने मित्रों की ह्त्या का बदला लेने को बेचैन था, आज मेरी तलवार की प्यास बुझेगी और मन को शांति मिलेगी | और फिर महोबा की सेना चल पड़ी मांडू की ओर, करिंगा रॉय को सबक सिखाने | 

मांडू के तीन कोस पहले ही सेना ने डेरा डाला | गुरूगृह के मित्र ढेवा पंडित ने सगुन विचार कर कहा कि सफलता के लिए योगी वेश धारण करना उचित होगा | योगी वेश में पाँचों वीर नगर में प्रविष्ट हुए और सब भेद लेने के बाद वापस हुए और फिर उसके बाद चढ़ाई जिसमें मांडो राजवंश का सम्पूर्णतः विनाश हो गया, जिस राजा जम्बे ने इनके पिता को कोल्हू में पिरवाया था, उसकी भी वही दुर्गति हुई |

आल्हा ऊदल की कहानी के शेष भाग -

आल्हा ऊदल की कहानी - अंतिम युद्ध

आल्हा ऊदल की कहानी - महोबा से निष्कासन और मलखान की मौत
अजब गजब शादियाँ