विश्व बंधुत्व का उद्घोषक मानव धर्म - दीदी निवेदिता


ईसाई धर्म दावा करता है कि प्रभु यीशु मानवता के रक्षक है । लेकिन उस बात को साबित करने के लिए - ईसाई धर्म दुनिया में एक के बाद दूसरे समुदाय को तहस नहस करता है। यीशु के नाम पर यूरोप, अमेरिका और अफ्रीका में लाखों लोग मारे गए । इस्लाम भी भाईचारे की बात करता है, लेकिन कोई भी मुस्लिम देश या किसी भी देश में रहने वाला मुसलमान दूसरों के साथ शांति से रहता नहीं दिखता । भले ही वे एक ही ईश्वर की प्रार्थना करते हों, एक ही भगवान के बेटे या नबी को मानते हों, वे लड़ते हैं और एक दूसरे को मार डालते हैं । एक ही नाम के भगवान के रास्ते पर चलते हुए भी मानवता और शांति उनके लिए संभव नहीं है । 

विविधता प्रकृति का नियम है । तो भाईचारे और मानवता को एक साथ कैसे लाया जा सकता है ? यह केवल एकीकृत सिद्धांत से ही संभव है, जिसके माध्यम से स्पष्ट विविधता से परे मानवता एक साथ आ सकती है। स्वामी विवेकानंद ने कहा - मैं सूर्य की रोशनी में हर धर्म के पक्ष में रखे गए सभी प्रकार के अद्भुत दावों को सुनने का आदी हो गया हूँ ....अब मुझे आपके सम्मुख मेरे वह कारण रखने दो, जिनके कारण मैं यह सोचता हूँ कि वेदान्त, जी हाँ केवल वेदान्त  ही इंसान का सार्वभौमिक धर्म बन सकता है, कोई भी अन्य इस भूमिका के लिए उपयुक्त नहीं है। हमारे धर्म को छोड़कर दुनिया का प्रत्येक महान धर्म किसी एक ऐतिहासिक पात्र द्वारा निर्मित है, जबकि हमारा केवल सिद्धांतों पर आधारित है ... व्यर्थ की बात है ....किसी एक व्यक्तित्व के चारों ओर दुनिया के सभी लोगों को इकट्ठा करना... यदि मानवता के अधिसंख्य भाग को धर्म के संबंध में एक दृष्टिकोण पर लाना कभी संभव होगा, तो ध्यान रखिये यह हमेशा सिद्धांतों के माध्यम से होगा, व्यक्तियों के माध्यम से नहीं। "

आधुनिक विज्ञान के साथ संगत

सनातन धर्म – चूंकि यह हिंदुओं में प्रचलित है अतः इसे हिंदू धर्म भी कहा जाता है; किन्तु मूलतः यह मानव धर्म है - जो उपनिषदों के सिद्धांतों पर आधारित और विज्ञान के साथ सुसंगत है, साथ ही तर्कसंगत आकांक्षाओं और आधुनिक मनुष्य की आस्था के साथ भी । स्वामी विवेकानंद ने कहा था, "... वेदांत के दूसरे दावे पर दुनिया का ध्यान जाना चाहिए कि इस दुनिया के सभी शास्त्रों में केवल एक शास्त्र है, जिसका शिक्षण पूर्ण सद्भाव के साथ, बाहरी प्रकृति के आधुनिक वैज्ञानिक शोध द्वारा भी प्राप्त किया गया है । "

भारत: जहां “एक” की खोज का महान सिद्धांत प्रतिपादित हुआ 

स्वामी विवेकानंद ने अपने एक व्याख्यान में स्पष्ट किया कि विश्व इतिहास में धर्म हो या विज्ञान, “एक” की खोज हमेशा रही है । अन्य देशों में विभिन्न जनजातियां एक दूसरे के साथ संपर्क में आई, और एक दूसरे के देवताओं के अस्तित्व की पहेली में उलझी । तब तक उनकी यही मान्यता थी कि उनका ही भगवान सच है और सबसे महान परमेश्वर है । दुनिया के दो रचनाकार या दो शासक नहीं हो सकते ! यहाँ केवल 'एक' ही होना चाहिए, दूसरा निश्चय ही झूठ होगा । केवल एक ही सबसे बडा भगवान होगा । वह कौन होगा? स्वाभाविक रूप से प्रत्येक जनजाति का दावा था कि उसका भगवान ही सबसे बड़ा था । इसे सिद्ध करने के लिए उनमें ईश्वर के नाम पर वर्चस्व की लड़ाई प्रारम्भ हुई | प्रत्येक समूह का दावा था कि उसका ईश्वर ही सच्चा परमेश्वर है, दुनिया का शासक है, सबसे शक्तिशाली है, आदि आदि | स्वामीजी ने दृढ़ता से कहा - " मैं निश्चय पूर्वक कह सकता हूँ कि आप में से अधिकांश धार्मिक विजय पाने के लिए हुए उस भीषण रक्तपात, उत्पीडन और क्रूरता पूर्ण बर्बरता के विषय में जानते हैं ।“ 

'केवल मेरा भगवान सच है' और 'मैं जिस प्रकार प्रार्थना करता हूँ वही प्रार्थना करने का सही तरीका है' आज भी वही मानसिकता विश्व में खूनखराबे का मूल कारण है | वह चाहे इराक, सीरिया या इसराइल का युद्ध हो, या औचित्यहीन बम विस्फोटों और आतंकवादी हमलों द्वारा मुंबई या पंजाब या वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के ट्विन टावर्स पर प्रहार हो । एक के लिए खोज - सबसे बडे भगवान तो गलत हो गये। केवल एक ही परमेश्वर सच होने का दावा शांति या भाईचारा नहीं ला सकता; इसके नाम पर तो अबतक केवल मासूमों का रक्तपात ही हुआ है।

भारत में भी, सबसे बडे भगवान की खोज – केवल एक – प्रारम्भ हुई किन्तु सौभाग्य से भारत के लिए ही नहीं तो सम्पूर्ण मानवता के लिए, संतों ने यह निष्कर्ष नहीं निकाला कि केवल एक ही परमेश्वर सर्वोच्च है, और इसलिए उसका ही अधिकार स्थापित होना चाहिए । उन्होंने उस “एक” को देखा जो विभिन्न रूपों में अभिव्यक्त होता है, प्रकट होता है । वास्तव में यह सहअस्तित्व और मानवीय भाईचारे के लिए सबसे बड़ी खोज थी। 

स्वामीजी ने अत्यंत सुन्दर ढंग से कहा “सब देशों में भारत अकेला सहिष्णुता और अध्यात्म की भूमि है; और इसलिए यहाँ लंबे समय तक जनजातियों और उनके देवताओं के बीच लड़ाई के लिए कोई स्थान नहीं था । जहां तक इतिहास की भी पहुँच नहीं है, परम्पराओं के धुंधलके में भी जिसकी झलक नहीं है, इतने पुरातन काल में, भारत में पैदा हुए एक महान संत उठे और उद्घोष किया “एकम सद्विप्रा बहुधा वदन्ति”|.- 'यह जो एक है उसे संत नाना प्रकार से कहते हैं। ' कभी भी बोले गए वाक्यों में यह सबसे यादगार वाक्य है, सत्य की जितनी भी महान खोज हुई हैं, उनमें सबसे भव्य सत्य । और हम हिंदुओं के लिए यह सत्य हमारे राष्ट्रीय अस्तित्व का मेरुदंड है । "

आध्यात्मिक एकत्व: भ्रातृभाव और उत्थान का आधार

इस अद्भुत सिद्धांत से कि 'ईश्वर एक है, लेकिन अलग अलग रूपों में प्रकट होता है’', व्यक्ति अलग शरीर- अलग मन की जटिलता होते हुए भी सबके साथ आध्यात्मिक एकता साझा करता है । वह एक है, जो कई में व्यक्त होता है, इसका अर्थ है कि हम अलग होते हुए भी आध्यात्मिक रूप से एक हैं । …हम में से हर एक की वास्तविक प्रकृति दैवीय है, ईश्वरीय है। इस अनुभूति में सिर्फ भाईचारा नहीं बल्कि सभी के साथ एकत्व है। वेदांत का यह महान सिद्धांत अंतर्राष्ट्रीय भाईचारे के लिए हमें विश्व को देना है । हमें इस सिद्धांत का प्रयोग हमारे देश की आम जनता को उन्नत करने हेतु भी करना चाहिए, जो विदेशी आक्रमणों के दौरान सदियों से उपेक्षित रही |

स्वामी विवेकानंद ने कहा “यह दुनिया जो दूसरा महान विचार आज हम से चाहती है वह है एक महान जीवन देने का विचार ... यह वह महान विचार है जो दुनिया आज हमसे चाहती है ... पूरे ब्रह्मांड की आध्यात्मिक एकता का अनन्त भव्य विचार, "और जिसे भारत की मूक जनता भी अपने पुनरुत्थान के लिए चाहती है, एकत्व के इस आदर्श के व्यावहारिक अनुप्रयोग और प्रभावी संचालन के अतिरिक्त कोई भी बात हमारी इस भूमि को पुनर्जीवित नहीं कर सकती । "

आध्यात्मिक एकत्व: आचरण और नैतिकता का ठोस आधार

भाईचारा तभी संभव है जब प्रत्येक जिम्मेदारी से व्यवहार करे और दूसरों का ध्यान रखे । शैतान या किसी व्यक्ति की आज्ञाओं के भय से आदमी सदा आचरण शुद्ध और नैतिक नहीं बना रह सकता। नैतिकता और शुद्ध आचरण का आधार ठोस होना चाहिए। स्वामी विवेकानंद ने कहा “तर्कसंगत पश्चिम का सारा दर्शन और उसकी नैतिकता पूरी तरह तर्क पर ज़ोर देती है, और आप सब अच्छी तरह जानते हैं कि नैतिकता केवल किन्हीं व्यक्तियों की मंजूरी भर नहीं है, वरन आपको महान और दिव्य बनाने वाली है । दुनिया के अधिकाँश विचारकों को नैतिक मूल्यों की यह उच्चतम व्याख्या प्रभावित करती है; वे नैतिक सिद्धांत के सत्य को मानव मंजूरी की तुलना में कहीं अधिक चाहते हैं। 

आत्मा की अनंत एकता नैतिकता की शाश्वत मंजूरी है, आप और मैं केवल भाई नहीं हैं, बल्कि आप और मैं वस्तुतः एक ही हैं । ... यह एकत्व सम्पूर्ण नैतिकता और सभी आध्यात्मिकता में तर्कसंगत है। "धार्मिक जागृति का अर्थ है व्यक्ति द्वारा स्वयं में और सम्पूर्ण सृष्टि में इश्वर की उपस्थिति की अनुभूति और उसके बाद न दुनिया में शोषण रहेगा और न ही बम विस्फोट द्वारा निर्दोष महिलाओं और बच्चों का मारा जाना संभव होगा । आध्यात्मिक एकत्व की समझ व्यक्ति को उसके भीतर के देवत्व के प्रति जागरूक करती है और उसके हर कार्य में उसकी अभिव्यक्ति का आग्रह उसे आध्यात्मिक विकास के लिए सक्षम बनाता है। इसके साथ ही, उसमें ईश्वर की कृति, प्राणीमात्र के प्रति एक गहन अपनत्व और एकत्व की भावना उत्पन्न हो जाती है और मानव मात्र के कल्याण और प्रगति के लिए वह उत्साह के साथ जुट जाता है। वेदांत व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में नैतिकता की प्रतिध्वनि को तर्कसंगत आधार प्रदान करता है।

सनातन धर्म का संदेश कितना ही महान क्यूं न हो, जब तक हिंदू समाज मजबूत और इसे विश्व को वितरित करने के लिए संगठित नहीं है, तब तक इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला, विशेष रूप से उग्रवादी धर्मान्ध लोगों पर । इसीलिए स्वामी विवेकानंद ने संगठन पर जोर दिया और कहा संगठन और केवल संगठन ।
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