कोटा के कंसुआ का प्राचीन शिव मंदिर, जहाँ जन्मे थे प्रतापी नरेश भरत

शैक्षणिक नगरी कोटा के कंसुआ का प्राचीनतम शिवमंदिर जहां कण्व ऋषि की तपोस्थली का तेज है तो दुष्यंत-शकुंतला के प्रणय से जन्मे शेरों के दांत गिनने वाले भरत का बचपन बीता है ! वही भरत जिसके नाम से हमारे देश को भारत के रूप में दुनिया भर में पहचाना जाता है ! दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश कहे जाने वाले भारत को जिस भरत के नाम से नामकरण मिला उस भरत की जन्मस्थली रहा 'कण्व सुवा’ जो बाद में कंसुआ हो गया, वहां भगवान भोलेनाथ के जयकारों के स्वर तो गूंजते हैं, लेकिन जिन लोगों पर इसके मौलिक अस्तित्व को जिंदा रखने का जिम्मा है, उनके दिल में न तो शिवम है और नहीं सत्यम सुंदरम !

कभी घने जंगल और शीतल स्वच्छ जल के झरनों की गुनगुन के बीच आध्यात्मिकता के तराने छेड़ता यह स्थान जहाँ लोग शांति सुकून और मन का उल्लास तलाशने आते थे ! लेकिन अब न सिर्फ भोलेनाथ का दुर्लभ शिवलिंग तक पुरातत्व विभाग के कारागार में कैद है बल्कि बस्तियों के दूषित पानी के नाले, तमाम तरह की गंदगी के अंबार, सुरसा के मुंह की तरह बढ़ते अतिक्रमण, और हर तरफ से इसके वजूद पर हो रहे हमले किसी से छिपे हुए नहीं है ! 

कोटा के कंसुआ का प्राचीन शिव मंदिर है भरत की स्थली और कण्व ऋषि का आश्रम

ऐसा कहा जाता है कि कण्व ऋषि का आश्रम कंसुआ में था, जहां शिवगण ने 1250 पूर्व शिवमंदिर का निर्माण कराया था ! उन्हीं कण्व ऋषि के आश्रम में अप्सरा मेनका की पुत्री शकुंतला रहती थी ! भारत प्रवास पर निकले राजकुमार दुष्यंत जब इस क्षेत्र में आए थे तो कंसुआ के वन क्षेत्र में उन्हें शकुंतला मिली थी और वहीं उनका उससे अगाध प्रेम हो गया ! वे वहां से जाने लगे तब शकुंतला से विवाह का वादा कर उसे निशानी के रूप में अंगूठी दे गए थे ! लेकिन एक ऋषि ने शकुंतला से नाराज होकर श्राप दे दिया था कि दुष्यंत उसे भूल जाएंगे ! उसके बाद शकुंतला की अंगूठी नदी में गिर गई और वह कुछ बरस बीत जाने के बाद जब वह दुष्यंत के पास हस्तिनापुर गई थी तो दुष्यंत ने उसे पहचाने से इनकार कर दिया था ! दुष्यंत-शकुंतला के प्रणय से भरत ने जन्म लिया था, जिसका पालन पोषण कण्व ऋषि के आश्रम में हुआ था और वह महाप्रतापी बालक शेरों के साथ खेलता था !

कंसुआ मंदिर देश के प्राचीनतम शिवालयों में से एक है और महान तपस्वी कण्व ऋषि की तपोभूमि और दुष्यंत-शकुंतला की प्रणय स्थली भी रहा है ! सिंह शावकों के साथ अठखेलियां करने वाले महाप्रतापी भरत का पालन-पोषण यहीं हुआ था ! करीब 1250 साल पुराने मंदिर में स्थित शिलालेख में इसके गौरवमय अतीत के दर्शन होते हैं ! चट्टानों को काटकर बनाए गए मुख्य शिवालय में प्राचीनतम शिवलिंग के साथ भोलेनाथ के नाड़े व अन्य दुर्लभ मूर्तियां हैं ! परिसर में चतुर्मुखी शिवलिंग समेत अन्य प्राचीन शिवलिंग व अन्य देव प्रतिमाएं हैं ! शैव उपासना के प्रमुख केंद्र रहे इस शिव मंदिर के बाहर प्राचीन कुंड और कुछ दूर ही एक प्रस्तर पर बनाया गया सहस्त्र शिवलिंग है ! पूर्वाभिमुख यह मंदिर योजना में पंचरथ गर्भगृह, अंतराल एवं मंडपयुक्त है ! गर्भगृह के द्वार पर स्तंभ भी अलंकृत हैं ! मंदिर में प्रवेश के साथ ही दक्षिणी भाग में जो दुर्लभ शिलालेख है, उस पर मंदिर का निर्माण विक्रम संवत 795 (738 ईस्वी) में होना बताया गया है ! 

इतिहासकारों के अनुसार मंदिर के निर्माण को 1250 साल बीत चुके हैं ! कभी किसी कारण से यह मंदिर भग्न हो गया था तथा इसका शिखर टूट गया था ! इसका पुनरुद्धार करके छावना (लेंटल) स्तर तक के मूल मंदिर को वही रखकर शिखर का पुनर्निर्माण कराया गया ! इस मंदिर के दाहिनी दीवार पर एक शिलालेख लगा हुआ है, जिसमें इस मंदिर के निर्माण का उल्लेख हुआ है ! हिंदी के महाकवि जयशंकर प्रसाद ने भी अपने नाटक ‘चंद्रगुप्त’ की भूमिका में इस शिलालेख का उल्लेख किया है ! इस शिलालेख को कूट लिपि में लिखे गए देश के श्रेष्ठतम शिलालेखों में से शीर्ष माना जाता है !

यह माना जाता है कि इस स्थान की धार्मिक महत्ता को समझकर चित्तौड़गढ़ के राजा धवल मौर्य के सामंत शिवगण ने विक्रमी संवत 795 में यहाँ इस मंदिर का निर्माण कराया था ! शिवगण एक ब्राह्मण था और उसने यहाँ भव्य शिवमंदिर का निर्माण करवा कर वैदिककालीन महर्षि कण्व के आश्रम को अमरत्व प्रदान किया ! इस मंदिर का समय समय पर कोटा के हाड़ा वंशीय शासकों ने भी जीर्णोद्धार कराया था ! कण्व ऋषि महाभारत काल से पूर्व कौरव-पांडव के पूर्वज हस्तिनापुर के शासक दुष्यंत के समय के महान तपस्वी थे ! 

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