घर वापिसी के पहले सूत्रधार - 1409 में जन्मे लोकदेव रामदेव !


पिछले दिनों "आधुनिक युग का श्रवणकुमार" शीर्षक से एक समाचार पढ़ने में आया | सीकर का एक युवक अपनी मां को टोकरी में बिठाकर और टोकरी सर पर लेकर रामदेवरा के दर्शनों को लेकर चला | अजमेर के रीड गाँव से उसकी यात्रा प्रारम्भ हुई |

आखिर क्या है, इस श्रद्धा का कारण ? आइये देखते हैं जनश्रुतियों में झांककर –

रामदेवरा मंदिर मेला

रामदेवरा राजस्‍थान के सबसे ख़ूबसूरत पर्यटन शहर जैसलमेर जिले की पोकरण तहसील में एक धार्मिक आस्‍था स्‍थल है । राजस्थान के प्रसिद्ध लोक देवता रामदेवरा जी की समाधि यहाँ स्थित हैं । कुछ लोगों का यह मत है कि सन् 1442 ई. में रामदेव जी ने यहाँ स्वयं समाधि ली थी । रामदेवरा का प्राचीन नाम 'रुणेचा' है । रामदेवरा जी की समाधि के निकट ही बीकानेर के महाराजा गंगासिंह द्वारा 1931 में बनवाया गया भव्य मंदिर स्थित हैं । भादों सुदी दो से भादों सुदी ग्यारह तक यहाँ प्रतिवर्ष एक विशाल मेले का आयोजन किया जाता हैं । जो आजकल चल रहा है | 

इस अवसर पर 'कामड' जाति की स्त्रियों द्वारा किया जाने वाला 'तेरह ताली नृत्य' विशेष आकर्षण होता हैं । ये लोग रामदेव जी के भोपे होते हैं । रामदेवरा रेल और सड़क मार्ग द्वारा प्रमुख नगरों से जुड़ा हुआ हैं । मेले में हिन्दू मुसलमान दोनों समान रूप से भाग लेते हैं | मुसलमान उन्हें रामसा पीर कहते हैं |

जन्म की गाथा -

जन्गाथाओं में रामदेव जी को द्वारकाधीश का अवतार माना जाता है | उनके द्वारा किये गये अनेकों चमत्कारों की गाथाएँ लोकगीतों व जनश्रुतियों में विद्यमान हैं |

राजा अजमल जी द्वारकानाथ के परमभक्त होते हुए भी उनको दु:ख था कि इस तंवर कुल की रोशनी के लिये कोई पुत्र नहीं था । दूसरा दु:ख था कि उनके राज्य में पोकरण से 3 मील उत्तर दिशा में भैरव राक्षस ने परेशान कर रखा था । इस कारण राजा रानी हमेशा उदास ही रहते थे ।

राजा ने द्वारका पहुंचकर भगवान् की प्रार्थना की और कहा जाता है कि अजमल जी को भगवान के साक्षात दर्शन हुए । राजा की भक्ति से प्रसन्न द्वारकाधीश ने स्वयं पुत्र रूप में राजा के घर आने का वरदान दिया |

श्री रामदेव जी का जन्म संवत् 1409 में भाद्र मास की दूज को राजा अजमल जी के घर हुआ । उस समय सभी मंदिरों में घंटियां बजने लगीं, तेज प्रकाश से सारा नगर जगमगाने लगा । महल में जितना भी पानी था वह दूध में बदल गया, महल के मुख्य द्वार से लेकर पालने तक कुम कुम के पैरों के पदचिन्ह बन गए, महल के मंदिर में रखा संख स्वत: बज उठा । इस प्रकार द्वारकानाथ ने राजा अजमल जी के घर अवतार लिया । और आगे चलकर उस राक्षस का भी संहार किया |

कपडे का घोडा –

रामदेवरा में कपडे का घोडा चढ़ाया जाता है | इसकी भी एक रोचक कथा है | बचपन में वाल लीला करते हुए रामदेव जी ने माँ मैणादे से से जिद्द ठान ली कि उन्हें घोड़ा चाहिए | माता ने एक दर्जी (रूपा दर्जी) को बुलाकर उसे एक कपडे का घोडा बनाने का आदेश दिया तथा साथ ही उस दर्जी को कीमती वस्त्र भी घोड़े को बनाने हेतु दिए । घर जाकर दर्जी के मन में पाप आ गया और उसने उन कीमती वस्त्रों की बजाय पुराने कपडे से घोडा बनाया और लाकर माता मैणादे को दे दिया । माता मैणादे ने बालक रामदेव को कपडे का घोडा देते हुए उससे खेलने को कहा, परन्तु अवतारी पुरुष रामदेव को दर्जी की धोखधडी ज्ञात थी । अतःउन्होने दर्जी को सबक सिखाने का निर्णय किया ओर उस घोडे को आकाश मे उड़ाने लगे । यह देख माता मैणादे मन ही मन में घबराने लगी उन्होंने तुरंत उस दर्जी को पकड़कर लाने को कहा । दर्जी को लाकर उससे उस घोड़े के बारे में पूछा तो उसने माता मैणादे व बालक रामदेव से माफ़ी माँगते हुए कहा की उसने ही घोड़े में धोखधड़ी की हैं और आगे से ऐसा न करने का वचन दिया । यह सुनकर रामदेव जी वापस धरती पर उतर आये व उस दर्जी को क्षमा करते हुए भविष्य में ऐसा न करने को कहा ।

घर वापिसी के पहले सूत्रदार –

संवत् १४२५ में रामदेव जी महाराज ने पोकरण से १२ कि०मी० उत्तर दिशा में एक गांव की स्थापना की जिसका नाम रूणिचा रखा। लोग आकर रूणिचा में बसने लगे। रूणिचा गांव बड़ा सुन्दर और रमणीय बन गया। भगवान रामदेव जी अतिथियों की सेवा में ही अपना धर्म समझते थे। अंधे, लूले-लंगड़े, कोढ़ी व दुखियों को हमेशा हृदय से लगाकर रखते थे।

उनके चमत्कारों से प्रभावित होकर हिन्दू से मुसलमान बन चुके अनेक लोग पुनः हिन्दू बनने लगे | इस बात से चिंतित मौलवियों ने मिलकर मक्का मदीना में खबर दी कि हिन्दुओं में एक महान पीर पैदा हो गया है, जो मरे हुए प्राणी को जिन्दा कर देता है, अन्धे को आँखे देता है, अतिथियों की सेवा करना ही अपना धर्म समझता है, उसे रोका नहीं गया तो इस्लाम संकट में पड़ जाएगा। खबर पाकर मक्का से पांच पीर रूणिचा आये तथा रामदेवजी से मिले | 

रामदेवजी ने पाँचों पीरों का बहुत स्वागत सत्कार किया और भोजन का आग्रह किया | किन्तु वे लोग तो रामदेव जी को नीचा दिखाने आये थे, अतः उन्होंने कहा कि हम भोजन अपने कटोरे में ही करते हैं, किन्तु उन्हें हम हम मक्का में ही भूल आए हैं। तब रामदेव जी ने कहा कि अगर ऐसा है तो मैं आपके कटोरे मंगा देता हूँ। और एक ही पल में पाँचों कटोरे पीरों के सामने रख दिये और कहा पीर जी अब आप इस कटोरे को पहचान लो और भोजन करो। जब पीरों ने पाँचों कटोरे मक्का वाले देखे तो आश्चर्य से उनकी आँखें फटी रह गईं | वे पाँचों पीर श्री रामदेव जी के चरणों में गिर पड़े और क्षमा माँगने लगे और कहने लगे हम पीर हैं मगर आप महान पीर हैं। उसके बाद उन पीरों ने भोजन किया और श्री रामदेवजी को पीर की पदवी मिली और वे रामसापीर, रामापीर कहलाए।

संवत् १४४२ को रामदेव जी ने समाधि ली | समाधि के पूर्व उन्होंने अपने हाथ में श्रीफल लेकर सब बड़े बुढ़ों को प्रणाम किया तथा उपस्थित लोगों ने भी पत्र पुष्प् चढ़ाकर रामदेव जी को हार्दिक श्रद्धा से अन्तिम पूजन किया। 

एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें