तुफैल अहमद की कलम से मदरसों पर एक नजर


जैसे ही यह बात प्रचारित हुई कि महाराष्ट्र सरकार मदरसों को स्कूल न मानने के विषय में विचार कर रही है, भारत में मानो हड़कंप मच गया | राष्ट्रीय स्तर पर बहस शुरू हो गई । विपक्ष के नेताओं और कुछ पत्रकारों ने बिना सोचे समझे इसे मुस्लिम बच्चों के निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा पाने के मौलिक अधिकार पर कुठाराघात बताकर आलोचना की ।

महाराष्ट्र में समाजवादी पार्टी के नेता अबू आजमी ने तो घोषणा ही कर दी कि "मदरसों के संचालन में अगर कोई भी हस्तक्षेप हुआ तो दांत और नाखून से लड़ाई लड़ी जायेगी ।समाजवादी पार्टी मुसलमानों सहित समाज के लिए लडेगी।" एक धार्मिक संगठन जमात-ए-इस्लामी हिंद जिसका मुसलमानों के लाभ के लिए काम करने का कोई इतिहास नहीं है, के मोहम्मद जहूर अहमद ने महाराष्ट्र सरकार के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की धमकी दी । मजे की बात यह कि नि:शुल्क शिक्षा के मुस्लिम नागरिक के अधिकार को लेकर किसी भी राजनेता या पत्रकार ने चर्चा भी नहीं की ।


पिछले दशकों के जो साक्ष्य हैं वे निश्चित तौर पर प्रमाणित करते है कि जो भारतीय मुस्लिम मदरसों में भर्ती हुए, उनमें से कोई भी भौतिकविद, अर्थशास्त्री, अंतरिक्ष वैज्ञानिक, चार्टर्ड अकाउंटेंट, सॉफ्टवेयर इंजीनियर या डॉक्टर नहीं बना, यहाँ तक कि राज नेता भी नहीं बना । वस्तुतः मदरसे भारत के सार्वजनिक जीवन से मुस्लिम नागरिकों के संस्थागत बहिष्कार के पहिए हैं।


इसलिए अगर नागरिकों को भारत की सामाजिक मुख्यधारा से बाहर रखा जा रहा है और निरंतर इस प्रकार व्यवसाय चुनने से रोका जा रहा है, तो नागरिक जीवन से इस प्रकार की बाधाओं को दूर करना भारतीय गणतंत्र के लिए अनिवार्य हो जाता है। हाँ, कुछ मदरसों के छात्रों ने मुंबई की एक झुग्गी बस्ती में रहने वाली लड़की की तरह कठिनाइयों पर काबू पा, बहुत प्रसिद्ध आईआईटी, या उत्कृष्टता के अन्य संस्थानों में प्रवेश लेकर आधुनिक व्यवसायों में प्रवेश किया है, लेकिन यह मदरसों के योगदान की वजह से नहीं बल्कि उनके व्यक्तिगत प्रयास की वजह से हुआ ।


पिछले दशकों के साक्ष्य यह भी निर्णायक रूप से सिद्ध करते हैं कि मदरसों में प्रवेश करने वाले मुस्लिम बच्चे यातो मौलाना बनते हैं, या उर्दू कवि, या किसी मस्जिद के इमाम, या तब्लिकुई जमात या जमात-ए-इस्लामी हिन्द जैसी संस्थाओं के पुनरुत्थानवादी प्रचारक या फिर जमीयत उलेमा-ए-हिंद जैसी संस्थाओं के राजनीतिक परजीवी।


अतः यह आसानी से समझा जा सकता है कि मदरसों में पढ़ने वाले मुस्लिम बच्चों के लिए विकल्प सीमित हैं, जबकि स्कूल उनके जीवन में विकल्पों का विस्तार करते है। दारुल उलूम देवबंद का एक बिरला छात्र अगर बहस के लिए दिल्ली के टीवी स्टूडियो में दिखाई देता है या इंजीनियर बन जाता है, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि मदरसे पत्रकार, इंजीनियर या अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विशेषज्ञों का उत्पादन कर रहे हैं । आम तौर पर, जिस उम्र में एक बच्चे की जिज्ञासा मानसिक रूप से सशक्त होकर अंतर-ग्रहों की यात्रा के लिए तैयार होना चाहिए, मदरसे उसका दिमाग खोलने के स्थान पर मुसलमानों को पंगु बना रहे हैं ।

इसलिए, अनिवार्य रूप से यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि देश की शिक्षा प्रणाली में मुसलमानों के लिए भी विकल्प उसी प्रकार खुलें जैसे कि गैर-मुसलमानों के लिए खुले है।


महाराष्ट्र सरकार द्वारा मदरसों और वैदिक संस्थानों को स्कूल नहीं मानने और उनके विद्यार्थियों को "स्कूल के बाहर" मानना एक सामान्य प्रशासनिक कदम है, जो नागरिकों के जीवन में विकल्पों का विस्तार करेगा, फिर चाहे वे मुसलमान हों या गैर-मुसलमान । इस उपाय का उद्देश्य भारतीय मुसलमानों को अशक्त करना नहीं है ।

महाराष्ट्र सरकार द्वारा 6 से 14 वर्ष की उम्र के सभी बच्चों का स्कूल प्रवेश सुनिश्चित करने के लिए एक सर्वे कराया गया था, जो 4 जुलाई को सामने आया | यह निर्णय उसी सर्वेक्षण का हिस्सा है । यह एक संवैधानिक उद्देश्य है जिसे मुसलमान, हिंदू, ईसाई या अन्य का विचार किये बिना हर भारतीय राज्य को अपनाना है । वस्तुतः महाराष्ट्र सरकार ने उन मदरसों की पहचान की है जो गणित, विज्ञान और सामाजिक अध्ययन जैसे विषय नहीं पढ़ाते ।


गंभीर समस्या यह है कि मदरसों का मुख्य उद्देश्य इस्लाम का प्रसार करना है । सामान्यतया, मदरसे दो प्रकार के होते हैं। एक वे जिनकी स्थापना मुसलमानों द्वारा की गई जो कुरान, हदीस (पैगंबर मुहम्मद की बातें और कार्य) जैसा इस्लामी अध्ययन कराते हैं - कभी कभी बुनियादी हिन्दी, अंग्रेजी और गणित का भी शिक्षण देते हैं । इस तरह के मदरसे केवल दान पर आश्रित है और वे अपनी किसी गतिविधि के लिए किसी सरकार के प्रति जवाबदेह नहीं हैं।

दूसरे वे जिन्हें बिहार जैसे कुछ राज्यों में अपने पाठ्यक्रम में विज्ञान, गणित और सामाजिक अध्ययन शुरू करने के लिए सरकार से धन मिलता है। इस तरह के मदरसों के सभी शिक्षकों को राज्य से वेतन मिलता है, लेकिन स्पष्ट ही राज्य से प्राप्त धन का उपयोग कुरान, हदीस और इस्लामी अध्ययन के लिए होता है। यह सीधे सीधे संविधान का उल्लंघन है, जिसके अनुसार हर भारतीय राज्य को धर्मनिरपेक्ष रहना चाहिए ।


भारतीय संविधान के अनुच्छेद 30 (1) के तहत, धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को "अपनी पसंद के अनुसार शैक्षिक संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन का अधिकार है।" भारतीय संविधान में "शैक्षिक संस्था" को परिभाषित नहीं किया गया है, किन्तु कुरान, हदीसों का शिक्षण और इस्लामी अध्ययन भारतीय संविधान का उद्देश्य नहीं है, इसलिए धार्मिक शिक्षा देने वाले मदरसों को "शैक्षिक संस्थान" नहीं कहा जा सकता ।

मदरसे धार्मिक शिक्षा के लिए हैं, और वे अनुच्छेद 25 के लाभ ले सकते हैं, जो इस बात की गारंटी देता है कि “प्रत्येक धर्म को अपनी आस्था और विश्वास के अनुसार धर्म प्रचार की स्वतंत्रता है ।" किन्तु महत्वपूर्ण बात यह है कि हर भारतीय बच्चा, वह चाहे मुस्लिम हो या न हो, उसे अनुच्छेद 21 (ए) के तहत स्वतंत्र और अनिवार्य शिक्षा के मौलिक अधिकार की गारंटी है | अतः 6 से 14 वर्ष की आयु के हर बच्चे को स्कूल के घंटों के दौरान स्कूल में होना चाहिए। इस आयु के बाद अर्थात 14 वर्ष के हो जाने के बाद, बच्चे मदरसे में जा सकते हैं।

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