आयरलैंड, मोदी और सावरकर --प्रियंका कौशल



इस पखवाड़े की शुरुआत में आयरलैंड पहुंचने पर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का स्वागत संस्कृत के श्लोक से हुआ। आयरिश बच्चों के मुंह से संस्कृत श्लोक सुनने के बाद मोदी की पहली टिप्पणी थी कि “अगर भारत में ऐसा होता तो सेकुलरिज्म पर सवाल उठ जाता”। प्रधानमंत्री की टिप्पणी पर कांग्रेस को आपत्ति है और उसके नेता मनीष तिवारी कहते हैं कि मोदी की “ये चुटकी कांग्रेस पर बल्कि भारत पर है”।

सबसे पहली बात तो यह कि, हां यह सच है कि यह टिप्पणी भारत पर ही है, तो इसमें गलत क्या है। कांग्रेस और मनीष तिवारी जी यह समझ नहीं पा रहे हैं कि नरेंद्र मोदी ने जो बात संस्कृत को लेकर आयरलैंड की सरजमीं पर कही हैं, उनके मायने कितने गहरे हैं। आज जिस संस्कृत को पूरा विश्व एक वैज्ञानिक भाषा के तौर पर स्वीकार कर चुका है, उसे हम अपने ही देश में धर्म विशेष से जोड़कर देखते हैं। हमने कभी अपनी विरासतों पर गर्व नहीं किया। उलटे कांग्रेस सुभाषचंद्र बोस जैसे क्रांतिकारियों की जासूसी करवाती रही और उन्हें जीते-जी मार दिया गया। दूसरी बात यह कि, अपनी विरासत पर गर्व करना सीखना हो तो आयरलैंड से सीखा जा सकता है।

आयरलैंड ने भी भारत की तरह लंबे संघर्ष के बाद अंग्रेजों से पूर्ण स्वतंत्र राष्ट्र को प्राप्त किया था, लेकिन उसने कभी उन वीरों को नहीं भुलाया, जिनकी बदौलत वे इस मंजिल तक पहुंचे थे। उस देश ने अपनी विधानसभाओं के पार्श्वभाग की दीर्घाओं में अपने क्रांतिकारी संघर्ष की पूरी कहानी चित्रित करवाई ताकि उनकी स्मृति हर क्षण बनी रहे। साथ ही क्रांति की गाथाएं प्रेरणा देती रहे। आयरलैंड ने कभी अपनी क्रांति को हिंसा कहकर परिभाषित नहीं किया, जैसा कि दुर्भाग्यजनक रूप से तथाकथित नरमपंथियों ने हिंदुस्थान में किया। 

आज हम देश को स्वतंत्र करवाने वाले कितने वीरों को जानते हैं, केवल उंगलियों में गिने जा सकने वाले नाम ही हमें पता हैं, देश पर न्यौछावर हो जाने वाले असंख्य क्रांतिकारियों के नाम तो हम तक पहुंच ही नहीं पाए। खुद सावरकर ने “अभिनव भारत” नाम की छोटी सी क्रांतिकारी टोली के माध्यम से मां भारती को परतंत्रता से मुक्ति दिलाने का लंबा अभियान चलाया। अभिनव भारत ने देश में ही नहीं बल्कि विदेश में भी ब्रितानिया हुकूमत की जड़ों को हिलाकर रख दिया। महान राष्ट्रभक्त श्याम जी वर्मा, भाई परमानंद, लाला हरदयाल,निरंजन पाल, ज्ञानचंद्र वर्मा, मदनलाल धींगरा, श्रीराम राजू, विष्ण गणेश पिंगले, शचींद्रनाथ सान्याल, जितेंद्रनाथ, मैडम कामा जैसे अनगिनत नाम गुमनामी के अंधेरे में खो गए। उन्होंने कभी खुद को महिमा मंडित भी नहीं किया। उनका तो एकमात्र उद्देश्य राष्ट्र की निस्वार्थ सेवा करना था। उसे परतंत्रता की बेडियों से स्वतंत्र कराना था।

थाईलैंड के भिक्षु उत्तम कहते हैं कि वीर सावरकर का जहां क्रांति रूप विख्यात है, वहां उनका एक दूरदर्शी, राजनैतिक विचारक का पक्ष भी उतना ही अद्वितीय है। परंतु एक नीतिकार के रूप में उनके महत्व को भ्रमित भारतवासी नहीं समझ पाए। यदि समाज में जीवन शक्ति होती तो उनके नीतिकार रूप को समाज कभी नहीं भुलाता।

सावरकर के भीरत के विचारक को, दूरदृष्टा को, कविह्दय को हम उनके विचारों से समझ सकते हैं। सावरकर कहते हैं कि राजनीति का प्रथम और मूलभूत कर्त्तव्य स्वदेश की स्वतंत्रता है। मानव, समाज, स्वदेश, परिवार और व्यक्ति, यही है मानवीय कर्त्तव्यों का तारतम्य। इन चारों कत्तर्व्यों में स्वदेश के प्रति कर्त्तव्य सर्वोपरि है। राजनैतिक दृष्टि से पराधीनता के कारण केवल व्यक्ति और परिवार मात्र की हानि नहीं होती है, वस्तुतः इनके कारण मानवीय प्रगति की गति भी अवरुद्ध हो जाती है। यद्पि सभी देशों की उन्नति का अर्थ है मानवता की उन्नति, यह एक सत्य कथन है, परंतु जब तक कोई देश परतंत्र है तब तक वह मानवीय उत्थान में योगदान की क्या देगा?अतएव व्यक्ति, परिवार, समाज तथा मानवता के सर्वांगीण विकास के सर्वाधिक महत्वपूर्ण राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्ति और संरक्षण ही मानव मात्र का प्राथमिक कर्त्तव्य है। यही परमपिता परमात्मा का आदेश और वास्तविक धर्म संदेश है।

स्वार्थ जैसा शब्द सावरकर के शब्दकोश में ही नहीं था | यह सावरकर का निस्वार्थ संकल्प ही था जिसके चलते मातृभूमि की स्वतंत्रता के बाद वर्ष 1958 में पूना में आयोजित एक विशेष समारोह में अभिनव भारत संस्था का विसर्जन कर दिया गया। नहीं तो देश में ऐसे भी उदाहरण है कि आजादी के पूर्व बनी संस्थाएं कालांतर-प्रकारातंर में देश की राजनीतिक पार्टी के रूप में परिवर्तित हो गई और परिवार विशेष के राजनीतिक स्वार्थपूर्ति का साधन बनी।

जब सावरकर ने अभिनव भारत संस्था का विसर्जन किया, तब कहा कि अब अर्जित आजादी के लिए भूमिगत क्रांतिकारी संस्था की जरूरत नहीं है। अब राष्ट्र का निर्माण बुलेट (गोली) नहीं बैलेट (मतपत्र) से ही अपेक्षित है। किंतु आजादी की रक्षा के लिए शक्ति अर्जित करने अर्थात् सशक्त सैन्य शक्ति (Military power) की आवश्यकता है। हमारे वैदिक सनातन धर्म में अहिंसा का मूल रूप से ग्रहण करने का कोई संकेत नहीं है। ऐसे परमराष्ट्र भक्त सावरकर के विचारों को क्यों 21वी सदी के भारत ने समझने का प्रयास नहीं किया या हमें उन्हें समझने का मौका ही नहीं दिया गया। यह बहस का मुद्दा हो सकता है।

महान क्रांतिकारी सावरकर के जीवन का एकमात्र लक्ष्य मां भारती की सेवा था। उसके अवचेतन में केवल और केवल मां भारती का अजपा-जाप चलता था। तभी तो सावरकर इटली के मैजिनी से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाते। मैजिनी का यह विचार उनके हद्यस्थल तक उतर जाता है कि राजनीति जब धर्म पर अधीष्ठित होगी, तभी वह पावन है और जब धर्म का राजनीति से संबंध होगा, तभी धर्म पवित्र है।

मगर अफसोस, आज की भारतीय पीढ़ी सावरकर को केवल एक क्रांतिकारी के रूप में ही जानती है। इससे भी दुर्भाग्यजनक यह कि एक क्रांतिकारी के रूप में भी उनके कार्यों का सही वर्णन लोगों तक नहीं पहुंच पाया। सावरकर का क्रांति दर्शन बड़ा सारगर्भित है। वह भागवत गीता से प्रेरित लगता है, सावरकर कहते हैं कि हमें शांति की स्थापना नहीं करनी है, हमें अन्याय को समाप्त करके न्याय की स्थापना करनी है, शांति शब्द न्याय की तुलना में छोटा है। न्याय स्थापित होते ही शांति स्वयं स्थापित हो जाएगी।

वे अंग्रेजों की कूटरचना को अन्य लोगों से पहले ही समझ जाते थे और देशवासियों को आगाह भी करते थे। सावरकर ने बहुत पहले ही चेता दिया था कि कूटनीति के जादूकर अंग्रेज मैकॉले की पूर्ण योजनाओं का आधार भारतीयों के दिमाग की धुलाई करना था। साथ ही ए.ओ.ह्यूम द्वारा स्थापित कांग्रेस भी केवल एक राजनैतिक व्यूह रचना थी, जिसके जाल में तथाकथित भारतीय प्रतिनिधि फंस गए थे ताकि सन 1857 जैसे स्वतंत्रता संग्राम दोबारा न होने पाए। 

वे संसार के पहले ऐसे क्रांतिकारी लेखक थे, जिनकी सबसे अधिक रचनाएं किसी शासन (ब्रिटिश शासन) ने जब्त की हों, हर विषय की पुस्तक अवैध घोषित की गई हो। सावरकर ने किशोरावस्था से ही मराठी में कविता लिखनी शुरु कर दी थी। वे हथियार उठाकर केवल अन्याय का प्रतिकार करना चाहते थे, क्योंकि वे मानते थे कि, “भीख में मिली आजादी की सुविधाओं से मनुष्य समाज अष्टाचारी, आलसी और अवसरवादी बन जाता है अर्थात् हिंसा और अहिंसा का विवाद ही बेकार है। किसी लक्ष्य की पवित्रता ऊंची चीज है, न की संघर्षके तरीकों पर नए मतभेद खड़े करना।

“ जबकि उनका प्रेमिल कवि ह्दय मैजिनी से इस राष्ट्रमंत्र से प्रभावित हो जाता है कि “प्रीति करो, युवक बंधुओं प्रीति करो। मानव को परमात्मा तक ले जाने में प्रीति की परंपरा ही सक्षम है। अपने कुटुम्ब से प्रीति करो, स्वदेश से प्रीति करो, मानव मात्र से प्रीति करो।”

(लेखिका परिचय)

प्रियंका कौशल 

मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ में नईदुनिया, दैनिक जागरण, लोकमत समाचार, ज़ी न्यूज, आईबीसी 24, तहलका जैसे संस्थानों में विगत 10 वर्षों का सुदीर्घ पत्रकारिता अनुभव । 

छत्तीसगढ़ विधानसभा द्वारा वर्ष 2010-11 में उत्कृष्ट संसदीय पत्रकार सम्मान से सम्मानित। 

वर्ष 2011-12 में किरण बेदी के हाथों स्त्री शक्ति पुरस्कार से सम्मानित। 

मानव तस्करी जैसे विषय पर शोधपरक रिपोर्टिंग करने के लिए वर्ष 2013-14 का राष्ट्रीय लाडली मीडिया पुरस्कार प्राप्त।
वर्तमान में स्वतंत्र पत्रकार के रूप में रायपुर से लेखन कार्य अविरत जारी -

9303144657


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