सुधीन्द्र काण्ड एक सहपाठी की नजर में - अनिल चावला

Anil Chawla
(श्री अनिल चावला की एक फेसबुक पोस्ट का हिन्दी अनुवाद)आज टीवी चैनलों पर समाचारों में आईआईटी बॉम्बे के मेरे सहपाठी सुधींद्र कुलकर्णी का काला चेहरा देखा । मीडिया पर बहस चल रही थी कि भारतीय समाज में सहिष्णुता कम होती जा रही है, और शिवसेना ने सही किया या गलत ? मेरी नजर में यह सब एक कोलाहल से अधिक कुछ नहीं और न ही मैं इसमें कुछ जोड़ने जा रहा हूं ।

सुधींद्र का काला चेहरा देखकर कई पुरानी यादें ताजा हो गईं । सुधींद्र आईआईटी में जरूर था, लेकिन ट्रेड यूनियनों से जुड़ा हुआ था – शुरूआत में मेस कार्यकर्ताओं के साथ काम करते करते वह एक कट्टर कम्युनिस्ट के रूप में बदल गया । 1981 के बाद मेरा उससे कोई संपर्क नहीं रहा ।

नब्बे के दशक के अंत में मैंने उसे आडवाणी जी की रथ यात्रा के साथ यात्रा करते पाया | उस समय उसके पास हिंदुजा समूह के उपाध्यक्ष (मीडिया) होने संबंधी विजिटिंग कार्ड था | उस समय मेरी उसकी मुलाक़ात भोपाल के भाजपा कार्यालय में हुई । मुझे क्या उसे जानने वाले हरेक को हैरत हुई जब समाचार मिला कि वह भाजपा में शामिल हो गया और कुछ ही समय में अटल जी और आडवाणी जी दोनों के प्रमुख सलाहकार के रूप में उभरा।

इसे हम एक वैचारिक कलाबाजी कह सकते हैं | उसने न केवल वाम पंथ से धुर दक्षिण पंथ में छलांग लगाई, बल्कि वह वैचारिक मार्गदर्शक भी बन बैठा । जब वह ऊंचाई पर था तब मैं उससे कई बार मिला । लेकिन एक सहपाठी से जिस गर्मजोशी की उम्मीद की जा सकती है, उसका सदा अभाव रहा । मैं उस समय उसका व्यवहार नहीं समझ पाया । लेकिन अब मुझे लगता है कि शायद उसे मुझसे अपना भेद खुलने की आशंका थी, इसलिए वह मुझसे परहेज कर रहा था । वह जानता था कि मैं उसके हर रंग से वाकिफ था |

जब वह प्रधानमंत्री के कार्यालय में बैठा हुआ था, तब भी मैंने हिंदू धर्म की कार्य संस्कृति के बारे में उसके द्वारा लिखित एक लेख पढ़ा। वह हिंदू धर्म के बारे में लिख रहा था, क्योंकि उसे लगता था कि उसे एक प्रमुख हिन्दू विचारक के रूप में स्वीकार किया जाये । लेकिन उसका वह प्रयास अत्यंत दयनीय ही था । मेरे विचार में तो हिंदू धर्म के बारे में उसकी समझ पूरी तरह गलत और उथली थी । मेरे विचार में वह आज भी एक कम्युनिस्ट है।

कम्युनिस्ट होना कोई गलत बात नहीं है ! लेकिन अपना लाल रंग छिपाकर गले में भगवा दुपट्टा डालना निंदनीय है । हमें उसकी 'होशियारी' के लिए सुधींद्र को दोष नहीं देना चाहिए और न ही उसकी निंदा करना चाहिए । दोष अगर किसी का है तो वह आडवाणी जी का है जिन्होंने एक कम्युनिस्ट को वह स्थान दिया जिसका वह कतई हकदार नहीं था | आडवाणी जी को अपनी उस मूर्खता की भरपूर कीमत भी चुकानी पडी । इतिहास में उन्हें अब एक महान राष्ट्रवादी के रूप में कम बल्कि जिन्ना को महान मानने वाले एक एक कमजोर व्यक्ति के रूप में अधिक याद किया जाएगा ।

सुधींद्र की होशियारी के दिन जरूर अब पूरे हुए । उसे अब कोई हिंदू राजनीतिक विचारक नहीं मान सकता । वास्तव में तो हिंदुत्व शिविर में उसे पूरी तरह अस्वीकार कर दिया गया है । दूसरी ओर, कम्युनिस्टों की नजर में भी वह एक गद्दार और भगोड़ा है।

सुधींद्र दो नावों की सवारी के चक्कर में लुढ़क गया । सुधींद्र के साथ मेरी सहानुभूति – उसके चहरे पर पुती कालिख के लिए वह स्वयं जिम्मेदार है, कोई दूसरा नहीं ।

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