हिंदू धर्म के बारे में फैलाए गए भ्रम - भाग 2

 

6. धर्म संस्थापक : अक्सर यह कहा जाता है कि इस धर्म का कोई संस्थापक नहीं। सही भी है, क्योंकि धर्म का कोई संस्थापक नहीं हो सकता। समाज, संगठन और राष्ट्र का कोई संस्थापक हो सकता है। फिर भी आपकी तसल्ली के लिए बता देते हैं कि वेदों का ज्ञान परमेश्वर से त्रिदेवों ने सुना फिर 4 ऋषियों ने सुना ये 4 ऋषि हैं- अग्नि, वायु, अंगिरा और आदित्य। ये ही हैं मूल रूप से प्रथम संस्‍थापक। इसके बाद त्रेता में भगवान श्रीराम ने और द्वापर में भगवान कृष्ण ने उक्त ज्ञान और धर्म को फिर से स्थापित किया।

गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं…

।।यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्‌।। (4-7)
भावार्थ : हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूं अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूं।

माना जाता है कि कलियुग में विष्णु के 9वें अवतार भगवान बुद्ध ने फिर से सनातन धर्म की स्थापना की है। विद्वान या शोधकर्ता मानते हैं कि बौद्ध धर्म हिन्दू धर्म का नया रूप है, लेकिन कुछ लोग इससे इत्तेफाक रखते हैं क्योंकि भगवान बुद्ध को अनीश्वरवादी माना जाता है।

7. मूर्ति पूजकों का धर्म नहीं : वैसे ब्रह्म (ईश्वर, परमेश्वर या परमात्मा) की कोई मूर्ति या तस्वीर नहीं बनाई जा सकती है। वेद मूर्ति पूजा का विरोध करते हैं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि जो व्यक्ति मूर्ति पूजा करता है उसे नास्तिक माना जाए या उसे किसी प्रकार की सजा दी जाए या उसे भ्रम में जीने वाला व्यक्ति कहा जाए। इस तरह की वैमनस्यता वाले विचार के विरुद्ध है वेदांत। सभी की भावनाओं का सम्मान करना और सह-अस्तित्व की भावना रखना ही सनातन धर्म की शिक्षा है।

श्लोक : ‘न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महाद्यश:। हिरण्यगर्भस इत्येष मा मा हिंसीदित्येषा यस्मान जात: इत्येष:।।’ -यजुर्वेद 32वां अध्याय।

अर्थात जिस परमात्मा की हिरण्यगर्भ, मा मा और यस्मान जात आदि मंत्रों से महिमा की गई है उस परमात्मा (आत्मा) का कोई प्रतिमान नहीं। अग्‍नि‍ वही है, आदि‍त्‍य वही है, वायु, चंद्र और शुक्र वही है, जल, प्रजापति‍ और सर्वत्र भी वही है। वह प्रत्‍यक्ष नहीं देखा जा सकता है। उसकी कोई प्रति‍मा नहीं है। उसका नाम ही अत्‍यं‍त महान है। वह सब दि‍शाओं को व्‍याप्‍त कर स्‍थि‍त है। -यजुर्वेद

केनोपनिषद में कहा गया है कि हम जिस भी मूर्त या मृत रूप की पूजा, आरती, प्रार्थना या ध्यान कर रहे हैं वह ईश्‍वर नहीं है, ईश्वर का स्वरूप भी नहीं है। जो भी हम देख रहे हैं- जैसे मनुष्‍य, पशु, पक्षी, वृक्ष, नदी, पहाड़, आकाश आदि। फिर जो भी हम श्रवण कर रहे हैं- जैसे कोई संगीत, गर्जना आदि। फिर जो हम अन्य इंद्रियों से अनुभव कर रहे हैं, समझ रहे हैं उपरोक्त सब कुछ ‘ईश्वर’ नहीं है, लेकिन ईश्वर के द्वारा हमें देखने, सुनने और सांस लेने की शक्ति प्राप्त होती है। इस तरह से ही जानने वाले ही ‘निराकार सत्य’ को मानते हैं। यही सनातन सत्य है। स्‍पष्‍ट है कि‍ वेद के अनुसार ईश्‍वर की न तो कोई प्रति‍मा या मूर्ति‍ है और न ही उसे प्रत्‍यक्ष रूप में देखा जा सकता है।

8. मूर्ति पूजा करनी चाहिए या नहीं? : मूर्ति पूजा को जो पाप जैसा कुछ समझते हैं, समझने में वे स्वतंत्र हैं। जो व्यक्ति मूर्ति पूजा कर रहा है उसको भला-बुरा कहना या मार देना पाप है कि पुण्य? जिनका मूर्ति में विश्वास हो वे उसका पूजन करें, जिनको विश्वास न हो वे न करें। प्राचीनकाल से ही ये दोनों तरह के मार्ग चले आ रहे हैं। सीधे और सरल लोगों के लिए मूर्ति पूजा ही भक्ति का एक तरीका है। मूर्ति पूजा के दौरान शंख, घंटे, घड़ियाल, कपूर, धूप, दीप, तुलसी, चंदन, गुड़-घी, पंचामृत, आचमन, प्रार्थना आदि का प्रयोग करने से मन को अपार शांति मिलती है। सकारात्मक भाव का निर्माण होता है। मस्तिष्क अलग तरीके से कार्य करने लगता है और किसी के भी प्रति द्वेष और हिंसा का भाव नहीं रहता है। मूर्ति पूजा का मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक महत्व समझना जरूरी है।

9. प्रकृति पूजा क्यों : प्राचीनकाल से ही दुनिया की सभी सभ्यताओं में प्रकृति पूजा का प्रचलन रहा है। प्रारंभ में प्रकृति की शक्तियों से डरते थे तो उसके प्रति प्रार्थना या पूजा करते थे। लेकिन जैसे-जैसे समझ बढ़ी तो प्रकृति के महत्व को समझा तो फिर उसके प्रति प्रेमपूर्ण प्रार्थना करने लगे। प्रकृति पूजा करना कोई पाप नहीं है। लेकिन हम इसकी पूजा क्यों करें? यह तो निर्जीव है जबकि वैदिक रहस्य यह कहता है कि प्रकृ‍ति से प्रार्थना करने से हमारे हर तरह के रोग और शोक जादुई तरीके से मिट जाते हैं।
ईश्वर की प्रकृति के प्रति अच्छा और सकारात्मक भाव होना जरूरी है। प्रकृति ही शक्ति है और वही देने वाली जगद्जननी है। उसी के आधार पर हमारा जीवन संचालित होता है। हमें इस प्रकृति में ही जन्म लेना है और इसकी मिट्टी में ही मिल जाना है। हम स्वयं भी प्रकृति का हिस्सा हैं। वेदों में प्रकृति को ईश्वर का साक्षात रूप मानकर उसके हर रूप की वंदना की गई है। इसके अलावा आसमान के तारों और आकाश मंडल की स्तुति कर उनसे रोग और शोक को मिटाने की प्रार्थना की गई है। धरती और आकाश की प्रार्थना से हर तरह की सुख-समृद्धि पाई जा सकती है।

10. ऋषियों ने समझा प्रकृति का महत्व : प्राचीन ऋषि-मुनियों, विद्वान त्रिकालदर्शी महात्माओं एवं तपस्वियों ने प्राणीमात्र के उत्थान एवं सुख-शांति के लिए प्रकृति के रहस्य को खोजा था। उन्होंने ही औषधियों, पीपल, नीम, बरगद आदि के अस्तित्व को सुरक्षित रखने के लिए धर्म से प्रकृति की आराधना को जोड़ा है। वेदों में प्रकृति का गुणगान गाया गया है तो इसीलिए कि प्रकृति जीवनदायिनी है। पर्यावरण की रक्षा और हमारी मांगों की पूर्ति के लिए प्रकृति से प्रार्थना जरूरी है। प्रकृति की सुरक्षा और उसके प्रति सम्मान उसकी पूजा किए बगैर भी किया जा सकता है। आज जरूरी है गंगा नदी को प्रदूषण से बचाना, जो करोड़ों भारतीयों की प्यास बुझाती है।

11. प्रकृति पूजा : भारत एक कृषि प्रधान देश है। प्राचीनकाल से ही लोग कृषि पर आधारित जीवन-यापन करते आए हैं। लोगों के लिए उनके खेत, पशु आदि ईश्‍वरतुल्य हैं। इसी के चलते ऋतुओं के परिवर्तन पर भारत में स्थानीय लोगों द्वारा अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग पर्व मनाए जाते हैं, जैसे छठ, संक्रांति, बसंत पंचमी, गोवर्धन पूजा, सरहुल पूजा, हड़ताली तीज, वट सावित्री, लोहड़ी आदि।

हिन्दू धर्म में चंद्र आधारित कैलेंडर में जितना शुक्ल और कृष्ण पक्ष के अलावा अमावस्या और पूर्णिमा का महत्व है उसी तरह सूर्य आधारित कैलेंडर में संक्रांतियों का बहुत महत्व माना गया है। सूर्य के उत्तरायन होने पर और फिर दक्षिणायन होने पर व्रत और पर्व मनाए जाते हैं। यह पूर्णत: वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक विषय है। ज्योतिष के इस विज्ञान को समझना जरूरी है।

प्रत्येक धर्म प्रकृति पर आधारित व्रत और उपवास का आयोजन करता है। धर्म की शुरुआत में प्रकृति पूजा का ही महत्व था। उक्त पूजा में कालांतर में जादू और टोनों का प्रयोग होने लगा। जैसे-जैसे व्यक्ति की समझ बढ़ी उसने मूर्ति और प्रकृति की पूजा के वैज्ञानिक पक्ष को समझा और महत्व को भी समझा और फिर उसने उसे छोड़कर दैवीय शक्तियों की ओर ध्यान दिया। थोड़ी और समझ बड़ी तब वह वेदों के ब्रह्म (परमेश्वर) की धारणा को भी समझने लगा।

।। अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम्।
पितृणामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम् ।।29।। -गीता

भावार्थ : हे धनंजय! नागों में मैं शेषनाग और जलचरों में वरुण हूं; पितरों में अर्यमा तथा नियमन करने वालों में यमराज हूं।

12. समाधि या पूर्वज पूजा : आजकल हिन्दू कई दरगाहों, समाधियों और कब्रों पर माथा टेककर अपने सांसारिक हितों को साधने में प्रयासरत हैं, लेकिन क्या यह धर्मसम्मत है। क्या यह उचित है? यदि हिन्दू धर्म समाधि पूजकों का धर्म होता तो आज देश में लाखों समाधियों की पूजा हो रही होती, क्योंकि इस देश में ऋषियों की लंबी परंपरा रही है और सभी के आज भी समाधि स्थल हैं। लेकिन आज ऐसे कई संत हैं जिनके समाधि स्थलों पर मेला लगता है।

भूतान्प्रेत गणान्श्चादि यजन्ति तामसा जना।
तमेव शरणं गच्छ सर्व भावेन भारत: -गीता।। 17:4, 18:62

अर्थात : भूत-प्रेतों की उपासना तामसी लोग करते हैं। हे भारत! तुम हरेक प्रकार से ईश्वर की शरण में जाओ।

गुरु या पूर्वज पूज्यनीय होते हैं, लेकिन प्रार्थनीय या ईश्‍वरतुल्य नहीं। माता और पिता को ईश्‍वरतुल्य माना गया है, लेकिन ये सभी ईश्वर तो नहीं हैं। तब इनके प्रति आदर और सम्मान प्रकट करना जरूरी है, क्योंकि यही धर्म की शिक्षा और धर्मसम्मत आचरण है।

13. नाग पूजा क्यों? : सावन के महीने में शुक्ल पक्ष की पंचमी को नागपंचमी का पर्व मनाया जाता है। विदेशी धर्मों में नाग को शैतान माना गया है। हालांकि नाग उतना बुरा नहीं है जितना कि आज का आदमी है। भारतीय संस्कृति की यह विशेषता है कि इसमें जीवन को पोषित करने वाले जीवनोपयोगी पशु-पक्षी, पेड़- पौधे एवं वनस्पति सभी को आदर दिया गया है।

जहां एक ओर गाय, पीपल, बरगद तथा तुलसी आदि की पूजा होती है, वहीं अपने एक ही दंश से मनुष्य की जीवनलीला समाप्त करने वाले नाग की पूजा भी की जाती है। इस विषधर जीव को शास्त्रों में देवतुल्य और रहस्यमय प्राणी माना गया है, लेकिन यह ईश्वर नहीं है। इसकी विशेषता यह है कि यह मानव से अधिक बुद्धिमान और चीजों को होशपूर्वक देखने में सक्षम है। इसकी चेतना पर शोध किए जाने की आवश्यकता है।

एक ओर जहां भगवान विष्णु शेषनाग की शैया पर शयन करते हैं तो दूसरी ओर भगवान शिव नाग को गले में डाले रहते हैं। नागों एवं सर्पों का सृष्टि के विकास से बहुत पुराना संबंध रहा है। देवों और दानवों द्वारा किए गए सागर मंथन के समय सुमेरु पर्वत को मथनी तथा वासुकि नाग को रस्सी बनाया गया था। वर्तमान में नाग पूजा के नाम पर इस बेचारे जीव का अस्तित्व संकट में है।

14. वर्ण व्यवस्था : आज भी अमेरिका में गोरे और काले का भेद है। छुआछूत का मामला प्रत्येक देश और धर्म में पाया जाता है। प्राचीनकाल में चिकित्सा का अभाव था। ऐसे में संभ्रांत और जानकार लोग ऐसे लोगों से दूर ही रहते थे जिनसे संक्रमण फैलने का खतरा हो। लेकिन यह व्यवहार कब जातिगत व्यवस्था में बदल गया, यह शोध का विषय है।

15. जातियों के प्रकार : प्रारंभिक काल में जातियां वे होती थीं, जो रंग-रूप, खान-पान और आचार-विचार से समान हों अर्थात वे समान या लगभग समान प्राणियों के समूह का प्रतिनिधित्व करती थीं। तो जातियों के प्रकार अलग होते थे जिनका सनातन धर्म से कोई लेना-देना नहीं था।

जातियां होती थीं- द्रविड़, मंगोल, शक, हूण, कुशाण, निग्रो, ऑस्ट्रेलॉयड, काकेशायड्स आदि। आर्य जाति नहीं थी बल्कि उन लोगों का समूह था, जो सामुदायिक और कबीलाई संस्कृति से निकलकर सभ्य होने के प्रत्येक उपक्रम में शामिल थे और जो सिर्फ वेद पर ही कायम थे।

वर्ण का अर्थ होता है रंग - प्रारंभिक काल में एक ही रंग के लोगों का समूह होता था, जो अपने समूह में ही रोटी-बेटी का संबंध रखते थे। इस समूह की धारणा को तोड़ने और राज्य कार्य को सुचारु रूप से चलाने के लिए राजा वैवस्वत मनु ने एक व्यवस्था को लागू किया गया जिसे वर्ण व्यवस्था माना गया। हालांकि उस काल में कोई भी व्यक्ति किसी भी जाति और स्थान से हो वह राज्य व्यवस्था में अपनी योग्यता अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या दास बन सकता था, जैसे कि आज चाहे तो किसी भी जाति का व्यक्ति ज्योतिष, सैनिक, किसान या सेवक बनने के लिए स्वतंत्र है। कालांतर में यही रंग बन गया कर्म और बाद में जाति।