जाती व्यवस्था के वर्तमान स्वरुप में प्राथमिक शिक्षा और आरक्षण का योगदान : श्री भरत दुबे


जब भी समाज से जातिगत भेदभाव मिटाने की बात आती है या आरक्षण की समाप्ति की मांग उठती है बड़ा अहम सवाल खड़ा हो जाता है कि जाति क्यों नहीं जाती ? क्योकि जाती के खत्म हुए बिना तो यह दोनों ही बात असंभव सी लगती है फिर भी जाती क्यों नहीं जाती ? 

समाजवादी ही नहीं, दलित विचारकों के पास भी इस सवाल का जवाब नहीं है ! इस मुद्दे पर सारे समाज-सुधारक भी विफल हो गए ! 1935 में डॉ. अंबेडकर ने जाति के उन्मूलन पर एक महत्त्वपूर्ण निबंध लिखा था, जो एक व्याख्यान के रूप में था ! इसमें अंबेडकर ने तीन बातों पर जोर दिया था- 

(1) धर्मशास्त्रों को डायनामाइट से उड़ाना,
(2) अंतर्जातीय विवाह और
(3) अंतर्जातीय भोज !

इनमें पहली बात धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र में संभव नहीं है, हांलाकि यह सच है कि हिंदू धर्मशास्त्र वर्ण और जातिभेद का समर्थन करते हैं ! पर, धर्मशास्त्रों को उड़ाने का काम कोई तानाशाही सत्ता ही कर सकती है, जो खुद भी अपने आप में एक क्रूरतम और जनविरोधी सत्ता होगी ! भारत में भूलकर भी कभी ऐसी सत्ता न आए, यह कामना हमें हमेशा करनी चाहिए ! अब सवाल उन संस्कारों का है, जिन्हें धर्मशास्त्र हिंदू समाज में पैदा करते हैं ! ये संस्कार ही वस्तुत: जाति को मजबूत करते हैं ! संपूर्ण हिंदू संस्कृति जातिवादी है ! सारे तीज-त्यौहार, तीर्थ-कथाएं और रस्म-रिवाज जातिवादी हैं ! अब ये संस्कार टीवी चैनलों पर परोसे जा रहे हैं, रामचरितमानस के अखंड पाठ, कथापाठ और बाबाओं के सत्संग-प्रवचन तो चलते ही रहते हैं ! यह सभी चीजें वर्णव्यवस्था और जातिवाद को मजबूत करती हैं और यही कारण है कि हिंदू समाज-सुधारकों को सफलता नहीं मिली !

जहां तक अंतर्जातीय विवाह का प्रश्न है, यदि हम प्रेम विवाहों को अपवाद-स्वरूप छोड़ दें, तो अभी वह समय नहीं आया है, जब कोई मां-बाप अपनी पुत्री या अपने पुत्र का रिश्ता योग्यता के आधार पर अपनी जाति के बाहर या जाति-निरपेक्ष होकर तलाश करेंगे ! ऐसा समय कभी नहीं आएगा, यह भी हम नहीं कह सकते, लेकिन फिलहाल यह अभी दूर की कौड़ी ही है ! अंतर्जातीय भोज के संबंध में अंबेडकर ने स्वयं कहा था कि कई जातियां इसकी अनुमति देतीं हैं और यह जातिभेद को दूर करने में सफल नहीं हुआ है ! आम तौर पर अब जन्म दिन और विवाह के अवसरों पर जो भोज दिया जाता है, वह अंतर्जातीय ही होता है, पर यह जाति टूटने का कारण कभी नहीं बना !

सभी लोग अपनी जाति के साथ ही भोज में शामिल होते हैं ! कोई भी जाति घर छोड़ कर नहीं आता है ! इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि जाति को धारण करके जातिभेद को समाप्त नहीं किया जा सकता ! यह कुछ वैसा ही है, जैसे मच्छर को बनाए रखकर मलेरिया को समाप्त करना असंभव है, लेकिन जिस तरह लोगों में मच्छर के प्रति जागरूकता है उस तरह लोग जातिभेद को दूर करने में जागरूक नहीं हैं ! जाति भले ही रहे, पर जातिभेद तो नहीं रहना चाहिए ! यह जातिभेद ही मुख्य रोग है, जिसके निदान के सारे उपाय बेकार साबित हुए हैं ! इसका कारण क्या है ? 

इसका कोई बड़ा कारण होना चाहिए ! वह है विशेषाधिकारों का ! वर्णव्यवस्था में यह स्थिति ऊपर से नीचे की ओर है ! ऊपर वाले को सबसे ज्यादा विशेषाधिकार प्राप्त हैं और नीचे वाले को उससे कम ! इसी आधार पर ऊंच-नीच का भेदभाव कायम है ! इसलिए भेदभाव खत्म करने के लिए किसी को सबसे ज्यादा और किसी को सबसे कम विशेषाधिकार छोडऩे पड़ेंगे ! इन्हीं विशेषाधिकारों की वजह से यहां हर जाति अपने आप को दूसरी जाति से या तो उच्च मानती है या निम्न ! कार्ल मार्क्स का वह नारा, जो उसने मजदूरों के लिए दिया था कि गुलामी के सिवाय तुम्हारे पास खोने को कुछ नहीं है, भारत में इसीलिए असफल रहा कि यहां लोगों के पास खोने के लिए विशेषाधिकार थे, जिन्हें वे खोना नहीं चाहते थे ! 

जाति क्यों नहीं जाती ? इसका एक बड़ा कारण आरक्षण भी है, खास तौर से राजनैतिक आरक्षण ! क्योंकि जातिविहीन और वर्ग- विहीन समाज के लिए नेतृत्व करने वाले बौद्धिक वर्ग को राजनैतिक आरक्षण ने निष्क्रिय बना दिया है ! दूसरी ओर नौकरियों में आरक्षण ने जिस मध्यवर्ग को दलितों में विकसित किया है, उसकी सारी भागदौड़ अब उच्च वर्ग बनने की दिशा में है ! जाति उसके लिए अब लाभ की चीज है ! अपने उच्च वर्गीय स्तर को खोने के डर से वह भी अपनी जाति के निम्नतर लोगों से संपर्क नहीं रखना चाहता ! फिलहाल तो यही स्थिति है, जिसमें जाति-व्यवस्था नष्ट होती दिखाई नहीं दे रही है ! विशेषाधिकारों के संदर्भ में एक बड़ी समस्या उस समाज की है, जिन्हें अब दलित कहा जाता है ! 

दलित चूंकि वर्णव्यवस्था से बाहर हैं, इसलिए अधिकारों से भी वंचित हैं ! वे सबसे निम्न श्रेणी में हैं, पर, ऊंच-नीच का भेदभाव उनमें भी ऊपर से नीचे के क्रम में मौजूद है ! जाति का यह जटिल स्वरूप लोकतंत्र के लिए घातक है ! हम वास्तव में एक लोकतांत्रिक सरकार तो बना लेते हैं, पर लोकतांत्रिक समाज नहीं बना पाते ! क्या शिक्षा जाति को समाप्त कर सकती है ? भारत की सभी समस्याओ का मूल स्तरहींन प्राथमिक शिक्षा का होना है ! आज़ादी के इतने साल बाद भी समाज के वंचित वर्ग को आज तक न्याय नही मिला इसका कारण शिक्षा के प्राथमिक स्तर का पतन है ! क्यों की प्राथमिक स्कूल में सबसे जायदा गरीब वंचित और दलित वर्ग छात्र है ! प्राथमिक शिक्षा का स्तर गिरना मतलब समाज के उन वंचितो को सदा के लिए वंचित बनाना !

दुर्भाग्य से निम्न वर्गों की शिक्षा में सरकार की रुचि न कल थी और न आज है, इसीलिए आज भी भारत में प्राथमिक शिक्षा दयनीय स्थिति में है, जिसे शिक्षा के निजीकरण ने और भी बदतर बना दिया है ! शिक्षा जाति को समाप्त कर भी सकती है और नहीं भी कर सकती है ! ‘जो शिक्षा आजकल दी जा रही है, अगर वही शिक्षा है, तो वह जाति पर कोई प्रभाव नहीं डाल सकती ! जाति वैसी ही बनी रहेगी !’ इसका श्रेष्ठ उदाहरण ब्राह्मण जाति है ! ‘यह वह जाति है, जो शत-प्रतिशत शिक्षित है, बल्कि इसका बहुमत उच्च शिक्षितों का है ! किंतु अभी तक एक भी ब्राह्मण ने स्वयं को जाति के विरुद्ध घोषित नहीं किया है !

उच्च जाति का व्यक्ति शिक्षित होने के बाद जाति को ज्यादा मानता है क्योंकि शिक्षा उसे बड़ी नौकरियां प्राप्त करने का अवसर देकर उसमें जाति-व्यवस्था के प्रति और भी ज्यादा रुचि पैदा कर देती है ! कहना न होगा कि आरक्षण के संदर्भ में भी यही बात लागू होती है ! जहां भी जाति आर्थिक लाभ का साधन बन जाती है, वहीं जाति मजबूत हो जाती है ! यह शिक्षा का नकारात्मक पक्ष है, इसलिए शिक्षा जाति समाप्त नहीं कर सकती ! जाती तभी खत्म हो सकती है जब यह लाभ का साधन ना रहे , अतः जातियों के कुचक्र को तोड़ने के लिए जातिगत आरक्षण की समाप्ति आवश्य्क ही नहीं अपरिहार्य भी है, साथ ही प्राथमिक शिक्षा का स्तर और इसकी सर्व सुलभता भी आवश्यक है !

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