उपनिषद -1


उपनिषद भारतीय अध्यात्म की उच्‍चकोटि की रचना है उपनिषदों को वेदांत भी कहा जाता है ! उपनिषद की मूल प्रेरणा वेद ही है ! वेदों को 4 भागों में बाँटा जा सकता है –
1. संहिता
2. ब्रम्ह ग्रन्थ
3. आरण्यक
4. उपनिषद
उपनिषद ही समस्त भारतीय दर्शनों के मूल स्त्रोत हैं, चाहे वो वेदान्त हो या सांख्य या जैन धर्म या बौद्ध धर्म। उपनिषदों को स्वयं भी वेदान्त कहा गया है। दुनिया के कई दार्शनिक उपनिषदों को सबसे बेहतरीन ज्ञानकोश मानते हैं। उपनिषद् भारतीय सभ्यता की विश्व को अमूल्य धरोहर है। हरेक किसी न किसी वेद से जुड़ा हुआ है। ये संस्कृत में लिखे गये हैं। उपनिषद गूढ़ भाषा में है और इनको समझना आसान नहीं है, क्यूंकि हमारा मस्तिष्क और मन बाह्या वस्तुओं को ही पहचान पाता है संवेदन अंगो के द्वरा ग्रहण किया जा सकने वाला अनुभव ही मस्तिस्क में दर्ज़ होता है और वही हम समझ पाते है और इसी वजह से उपनिषदों को समझना भी मुश्किल होता है क्यूंकि उपनिषद ईश्वर के बारे में कुछ नही कहते ना शैतान के बारे में ना ही स्वर्ग ना ही नर्क के बारे में ! उपनिषद किसी सातवें आसमान में बैठे ईश्वर के बारे में बात नही करते उपनिषद बात करते है स्वयं की चेतना के बारे में जिसे हम आत्मा भी कहते है जो की समझने में बेहद मुश्किल है इसलिये उपनिषदों को समझना भी मुश्किल भी होता है !
उपनिषद् शब्द का साधारण अर्थ है - ‘समीप उपवेशन’ या 'समीप बैठना (ब्रह्म विद्या की प्राप्ति के लिए शिष्य का गुरु के पास बैठना)। यह शब्द ‘उप’, ‘नि’ उपसर्ग तथा, ‘सद्’ धातु से निष्पन्न हुआ है। सद् धातु के तीन अर्थ हैं: विवरण-नाश होना; गति-पाना या जानना तथा अवसादन-शिथिल होना। उपनिषद् में ऋषि और शिष्य के बीच बहुत सुन्दर और गूढ संवाद है जो पाठक को वेद के मर्म तक पहुंचाता है।

ईशोपनिषद -- उपनिषदों में सबसे प्रथम और प्राचीन ईशोपनिषद है जो की संहिता के रूप में है –


1. ॐ ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंचित जगत्यम् जगत्।तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम।।

अर्थात उस परमात्मा ने सम्पूर्ण ब्रह्मांड में जो कुछ भी जड़ और चेतन रूप यह समस्त जगत है उसको व्याप्त कर रखा है व सर्वत्र विद्यमान है इसलिए वह सब समय सबको सब ओर से देखता है, इसलिए तू परमात्मा से डर और अन्याय से किसी का कोई द्रव्य ग्रहण न कर, त्यागभाव से केवल कर्तव्यपालन के लिए ही भोगों और विषयों का उपभोग कर व धार्मिक बन इससे तू इस लोक के साथ परलोक में भी अच्छे फलों का भोग सदा करके सदा आनंद में रहेगा।

2. कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतम समाः |
एवंत्वयि नान्यथेतो sति न कर्म लिप्यते नरः ||..२..

यहाँ मानव कर्मों को करते हुए १०० वर्ष जीने की इच्छा करे, अर्थात कर्म के बिना, श्रम के बिना जीने की इच्छा व्यर्थ है | कर्म करने से अन्य जीने का कोई भी उचित मार्ग नहीं है क्योंकि इस प्रकार उद्देश्यपूर्ण, ईश्वर का ही सबकुछ मानकर, इन्द्रियों को वश में रखकर आत्मा की आवाज़ के अनुसार जीवन जीने से मनुष्य कर्मों में लिप्त नहीं होता अर्थात अनुचित कर्मों में, ममत्व में लिप्त नहीं होता ,अपना-तेरा, सांसारिक द्वंद्व दुष्कर्म, विकर्म आदि उससे लिप्त नहीं होते |

“कर्म” – 

कर्म की दो श्रेणियां होती है
1. निष्काम कर्म
२. सकाम कर्म 

निष्काम कर्म श्रेणी के साथ साथ उप श्रेणी भी होती है इस श्रेणी में वह मानव आते है जो पूर्ण रूप से इश्वर की साधना कर उन्हें प्राप्त करने एवं संसार में ईश्वर के सन्देश को पहुंचाने का कार्य बिना किसी स्वार्थ के करते है ! उदाहरण के लिए योगी !

शुभ कर्म की यह श्रेणी सकाम कर्म में आती है ! इस श्रेणी में वह मनुष्य जो निष्काम कार्य करने में अक्षम हो वह आते है ! ऐसे मनुष्य जो समाज हित में कार्य करते है और बदले में कुछ नाम और कुछ प्रतिष्टा समाज में अर्जित करना चाहते है वह इस श्रेणी के अंतर्गत आते है परन्तु यह मनुष्य किसी भी जीव को हानि नहीं पहुंचाते है ! उदाहरण : सच्चे समाजसेवी 

मिश्रित कर्म भी सकाम कर्म के अंतर्गत आती है ! इस श्रेणी में वह मनुष्य आते है जो निष्काम कार्य एवं शुभ कर्म दोनों ही करने में अक्षम हो ! ऐसे मनुष्य जो किसी कार्य विशेष के द्वारा अपने परिवार का भरण पोषण करना चाहते है और उपार्जित वस्तु को समाज में दे कर सहायता करना चाते है वह इस श्रेणी में आते है ! जैसे किसान और अन्य व्यापारी ! यहाँ समझना उचित होगा कि जब कोई किसान खेती हेतु बुवाई करता है तब जमीन में रहने वाले कई जीव मृत्यु को प्राप्त होते है परन्तु फसल के काटे जाने तक कई जीवों को आश्रय एवं दाना पानी भी मिलता रहता है ! 

अशुभ कर्म भी सकाम कर्म की श्रेणी में आते है ! इस श्रेणी में वह मनुष्य आते है जो निष्काम कार्य, शुभ कार्य एवं मिश्रित कर्म तीनो ही नहीं करना चाहते है वह सिर्फ अशुभ कार्य ही करने में विश्वास रखते है और समाज में बुराइयां फैलाते है ! उदाहरण के लिए चोर, डाकू

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