विकास का आधार बने देशज विज्ञान - प्रमोद भार्गव


यदि वाकई विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनना है तो देश में वैज्ञानिक शोध के अवसरों को न केवल आसान करने की जरूरत है, बल्कि भारत के अशिक्षित ग्रामवासी या सामान्य जन जो आविष्कार कर रहे हैं, उन्हें भी वैज्ञानिक मान्यता देकर उपयोग करने की जरूरत है। 

हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मैसूर में 103वीं विज्ञान कांग्रेस का उद्घाटन करते हुए पांच-ई पर फोकस किया है। ये हैं, इकोनॉमी (अर्थव्यवस्था), एन्वॉयर्नमेंट (पर्यावरण) ,एनर्जी (ऊर्जा), इम्पेथी (संवेदना) और इक्वेलिटी (समानता)। साथ ही मोदी ने नवोन्मेष के महत्व को रेखांकित करते हुए वैज्ञानिकों से अपील की है कि वे पारंपरिक ज्ञान और आधुनिक विज्ञान के बीच की खाई को खत्म करें, जिससे कि चुनौतियों के स्थानीय और अधिक स्थायी सामाधान खोजे जा सकें। प्रधानमंत्री के इस कथन में यह तथ्य अंतर्निहित है कि इस समय भारत के ग्रामीण नए-नए आविष्कारों के साथ न केवल भारत बल्कि विश्व-मंच पर भी उभर रहे हैं। इन प्रतिभाओं की रचनात्मकता को भी मान्यता मिलती है तो स्थानीय स्तर पर जरूरतों के हिसाब से उपकरणों के निर्माण का सिलसिला तेज हो सकता है।

आज विज्ञान विकास एवं प्रगति का अहम् साधन है। दुनिया के विकसित देश अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, रूस, जापान, चीन और कोरिया ने विज्ञान एवं तकनीकी क्षेत्र में आत्मनिर्भरता हासिल करके ही वैश्विक धाक जमाई है। किंतु आजादी के 68 साल बाद भी हम पिछड़े हुए हैं, नतीजतन परावलंबी हैं। यही वजह है कि गरीबी, भुखमरी, असमानता, अशिक्षा, बीमारी और शोषण से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं। भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी प्रतिष्ठानों में सरकार का प्रभुत्व है और दुनियाभर में ज्यादातर सरकारी इकाइयों की तरह ही उसमें जोखिम लेने की कार्य संस्कृति तथा नवोन्मेष का अभाव बना हुआ है। नई खोजों के लिए अनिवार्य जोखिम दृढ इच्छाशक्ति रखने वाले राजनेता ही उठा सकते हैं। इस द्रष्टि से मोदी ने विज्ञान कांग्रेस का उद्घाटन करते हुए उचित ही कहा है कि ‘सुशासन केवल नीतियां बनाना और निर्णय लेना मात्र नहीं है, बल्कि सुशासन विज्ञान और प्रौद्योगिकी को जोड़कर विकल्प पेश करने और रणनीति तैयार करने की व्यवस्था है। 

वर्तमान वास्तविकता तो यह है कि हमारी ज्यादातर प्रतिभाएं भी अनुसंधान का अनुकूल माहौल नहीं मिलने के कारण विदेषों में पलायन कर जाती हैं। जबकि अनेक प्रतिभाएं बतौर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सेल्समेन साबुन, सोडा, सिगरेट और इलेक्ट्रोनिक उपकरण बेचकर स्वयं को गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। दरअसल आविष्कार की उत्पत्ति को प्रोत्साहन एक क्षेत्र से दूसरे नितांत नए क्षेत्र में विचारों के अदान-प्रदान से मिलाता है। हमारी शिक्षा प्रणाली इस कौशल को तराशने में कमोवेष अक्षम है। अपवादस्वरूप चंद प्रतिभाएं विज्ञान और प्रौद्योगिकी प्रतिष्ठानों में अपनी किस्मत आजमाने पहुंच भी जाते हैं तो स्थानीय कार्य संस्कृति में निराशाजनक वातावरण से रूबरू होकर देश छोड़ने को मजबूर हो जाते हैं।

हकीकत यह है कि हम विज्ञान में हमेशा पिछड़े हुए नहीं थे। देश के इतिहास के मध्यकाल में आर्यभट्ट, वराहमिहिर, भास्कराचार्य, यवनाचार्य, लीलावती जैसे अनेक वैज्ञानिक हुए। इन वैज्ञानिकों ने खगोलशास्त्र और ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति से लेकर अनेक उल्लेखनीय शोध किए। सुश्रुत जैसे शल्य चिकित्सक, चरक जैसे आयुर्वेदाचार्य, नागार्जुन जैसे रसायनशास्त्री, विश्वकर्मा जैसे अभियंता तथा सुलोचन जैसे वास्तुशास्त्री पर हम गर्व कर सकते हैं। किन्तु इसके बाद सामंतों के विलासी जीवन और विदेशी आक्रांताओं के हमलों के चलते देशज विज्ञान की प्रगति अवरूद्ध हो गई। इस संक्रमणकाल में पश्चिम परस्ती का ऐसा दौर आया कि हमारी ज्ञान परंपरा में जो भी विज्ञान सम्मत था, उसे भी हमने ढकोसला मान लिया। जबकि हमने पेटेंट की दो बड़ी कानूनी लड़ाइयां अपनी पुरातन ज्ञान परंपरा के बूते विगत वर्ष ही जीती हैं। पहली लड़ाई जायपत्री से कुल्ला करने के पारंपरिक तरीकों को हथियाने के परिप्रेक्ष्य में कोलगेट पामोलिव से जीती, तो दूसरी आयोडीनयुक्त नमक उत्पादन को लेकर यूनिलीवर लिमिटेड से जीती। इन दोनों ही प्रकरणों में इन विदेशी कंपनियों ने भारत की पारंपरिक ज्ञान प्रणालियों से उत्पादन की पद्धति व प्रयोग के तरीके चुरा लिए थे। इस संदर्भ में प्रधानमंत्री ने उचित ही कहा है कि हमारे वैज्ञानिक पारंपरिक ज्ञान और आधुनिक विज्ञान के बीच की खाई को पाटने का काम करें तो बेहतर होगा।
एक और बड़ी कठिनाई विज्ञान के क्षेत्र में किये जाने वाले शोधकार्य में आने वाली आर्थिक कठिनाई है । नवंबर 2013 में देश के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से सम्मानित होने वाले प्रसिद्ध वैज्ञानिक सीएन राव ने दुख जताते हुए कहा था कि हमारे देश में वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए पर्याप्त धन उपलब्ध नहीं कराया जाता है। 
दुर्भाग्य से इस स्थिति को सुधारने की दिषा में अपेक्षित प्रशासनिक और व्यावहारिक सुधार अभी तक नहीं हुए। इसी का परिणाम है कि कई वैज्ञानिक पलायन का रुख अपना लेते हैं। राष्ट्रीय भावना के चलते जो प्रतिभाएं नवोन्मेश करने के उत्साह में यहां रह भी जाती हैं, उन्हें नौकरशाही प्रोत्साहित करने की बजाय कागजी खानापूर्तियों के फेर में उलझाकर निराश करने का काम करती है। प्रयोगशालाओं में समुचित सुविधाओं व संसाधनों का अभाव भी उन्हें हताश करता है। इसीलिए संभव है, कुछ ऐसी ही वजहों के चलते हरगोविंद खुराना, एस चंद्रशेखर, अमर्त्य सेन, डॉ वेंकटरमन, रामकृष्णन और डॉ सत्येंद्रनाथ बोस जैसी प्रतिभाएं अमेरिका और ब्रिटेन की सरजमीं पर तो अपनी मौलिक कल्पनाशीलता को परिणाम में बदलकर नोबेल पुरस्कार तक हासिल कर लेती हैं,लेकिन भारत में पिछड़ जाती हैं। शोध के अनुकूल वातावरण के लिए इस नकारात्मक परिस्थिति को बदलने की जरूरत है। 
मोदी ने कहा तो है कि शोध की इस जटिलता को सरल बनाने का काम जल्दी होगा। इस दृश्टि से अभिनव पहल करते हुए कर्नाटक के तुमकुरू में मोदी ने सुरक्षा के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनने के लिए पांच हजार करोड़ रुपए के ग्रीन फील्ड हेलीकॉप्टर परियोजना की आधारशिला रखी है। इसी परियोजना का प्रशासनिक तंत्र स्वायत्त रखते हुए भारतीय वैज्ञानिक और अभियंताओं को स्वनिर्मित शस्त्र निर्माण के लिए बेहतर अनुकूल माहौल उपलब्ध कराया जाएगा। यह परियोजना हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स संस्थान के अंतर्गत है। ऐसी परियोजनाओं की इसलिए भी जरूरत है, क्योंकि आधुनिक और महंगे हथियार दूसरे देशों से खरीदने में जो करोड़ों-अरबों की विदेशी पूंजी खर्च होती है,वह बचेगी। 
इसके अतिरिक्त कई बार आवश्यकतानुसार आधुनिक हथियार मिल भी नहीं पाते । इसका ही एक उदाहरण है कि भारत जब मिसाइल के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की दिशा में बढ़ रहा था,तब अमेरिका, ब्रिटेन और रूस ने भारत को क्रायोजनिक इंजन देने से इनकार का दिया था। इस इंकार के बाद ही भारत ने अपने देशज संसाधनों से यह इंजन बनाया और ब्रह्मोस मिसाइल अंतरिक्ष में छोड़ने में कामयाबी हासिल की। अब तो भारत ने अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में जीएसएलभी की एक पूरी निर्माण श्रृखंला ही विकसित कर ली है। चंद्र और मंगल अभियान क्षेत्र में भारत ने चीन को पीछे छोड़ दिया है। इतना ही नहीं तो भौतिक और रसायान क्षेत्रों में भी कुछ श्रेष्ठ अनुसंधान हुए हैं। सॉप्टवेयर निर्माण में भी तरक्की संतोषजनक है। इस सबके बावजूद चिकित्सा विज्ञान,इलैक्ट्रोनिक उपकरणों और अन्य तकनीकि क्षेत्रों में हम चीन समेत अनेक विकसित देशों के लिए महज बाजार ही हैं।
अतः विज्ञान नीति को गांव और ग्रामीण आविष्कारकों से जोड़ने की अत्यंत जरूरत है। देश में अनेक लोग हैं, जिन्होंने कम पढ़े-लिखे होने के बावजूद ऐसी तकनीकें इजाद कीं,जो समूचे देश के लोगों का जीवन बदलने में सहायक बनी हैं। इन लोगों ने कम से कम कीमत में ग्रामीणों को सिंचाई, ऊर्जा, खेती, यातायात और मनोरंजन के उपकरण हासिल कराए हैं। ग्रामीण पृष्ठभूमि से आने वाले ऐसे अनेक आविष्कारकों का विवरण विश्व प्रसिद्ध अमेरिकी पत्रिका ‘फोर्ब्स‘ में भी प्रकाशित हुआ है | असम के उद्धव भराली गरीबी की मार के चलते किसी विज्ञान अथवा अभियांत्रिकी संस्थान से शिक्षा तो नहीं ले पाए, लेकिन उन्होंने अपनी मेधा के बूते कई उपकरणों का आविष्कार जरूर कर डाला। वे ऐसे वैज्ञानिक हैं, जिनके 98 आविष्कारों को पेटेंट भी मिल चुका है। अमेरिका की नासा ने उनकी विलक्षण प्रतिभा से प्रभावित होकर उन्हें ‘प्रौद्योगिकी सम्मान‘ से भी सम्मानित किया है। गांवों में काम करने वाले ऐसे नवाचारी वैज्ञानिकों को प्रोत्साहित करने के लिए विज्ञान नीति को शिथिल करते हुए भाषा और शिक्षा के अकादमिक बंधन तोड़ने की जरूरत है। जिससे लोकविज्ञानियों को वैज्ञानिक की श्रेणी में खड़ा किया जा सके। मौजूदा केंद्र सरकार ऐसा करती है तो यह नवोन्मेशी पहल मानी जाएगी। 


प्रमोद भार्गव




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लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं।




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