मनु स्मृति का पुनर्मूल्यांकन

मनुस्मृति को लेकर लोगों में तमाम भ्रांतियां प्रचलित है ! इन्ही भ्रांतियों को दूर करने के उद्धेश्य से "विशुद्ध मनुस्मृति" का सन्देश जन जन तक पहुंचाने का कार्य हमारे वेब पोर्टल के द्वारा किया जा रहा है ! इस पुण्य कार्य में शिवपुरी (म.प्र.) के वैदिक संस्थान के आचार्य वैदिक आचार्य पं. योगेश जी का विशेष सहयोग लिया जा रहा है !

मनु स्मृति की महत्ता एवं प्रभाव 
भारतीय साहित्य में मनुप्रोक्त स्मृति का ‘मनुस्मृति’, ‘मनुसंहिता’, ‘मानवधर्म शास्त्र’, मानवशास्त्र’ आदि कई नामों से उल्लेख आता है ! मनु स्मृति भारतीय साहित्य में सर्वाधिक चर्चित धर्मशास्त्र है क्यूंकि अपने रचनाकाल से ही यह सर्वाधिक प्रामाणिक, मान्य एवं लोकप्रिय ग्रन्थ रहा है ! स्मृतियों में भी इसका स्थान सबसे ऊंचा है ! यही कारण है कि परवर्ती काल में अनेक स्मृतियाँ प्रकाश में आई किन्तु मनुस्मृति के प्रभाव के समक्ष टिक न सकीं, अपना प्रभाव न जमा सकीं ; जबकि मनु स्मृति का वर्चस्व आज तक बना हुआ है !

मनु स्मृति एक विधि-विधानात्मक शास्त्र है ! इसमें जहाँ एक और वर्णाश्रम धर्मों के रूप में व्यक्ति एवं समाज के लिए हितकारी धर्मों, नैतिक कर्तव्यों, मर्यादाओं, आचरणों का वर्णन है, वहां श्रेष्ठ समाज व्यवस्था के लिए विधानों (क़ानून) का निर्धारण भी है और साथ ही मानव को मुक्ति प्राप्त कराने वाले आध्यात्मिक उपदेशों का निरूपण है ! दुसरे शब्दों में यह भौतिक एवं आध्यात्मिक शिक्षाओं का मिला जुला अनूठा धर्मशास्त्र है ! इस प्रकार यह व्यक्ति एवं समाज के लिए धर्मशास्त्र एवं आचारशास्त्र है, तो साथ ही सामाजिक व्यवस्थाओं को सुचारू रूप में रखने के लिए ‘संविधान’ भी है !

मनुस्मृति को इतना अधिक महत्वशाली, सम्मान्य तथा लोकप्रिय बनाने वाले कारणों में जहाँ इसके व्यक्ति और समाज के लिए हितकारी, व्यवहारिक एवं युक्तिमुक्त विधि विधान है, वहां इसकी प्राचीनता एवं वेदानुकुलता भी उल्लेखनीय कारण है ! सर्वप्राचीन, सर्वाधिक मान्य और श्रधेय होने से वेद ही समस्त भारतीय साहित्य के मूलस्त्रोत है तभी तो मनु ने भी वेदों को ही प्रधानरूप से अपनी स्मृति का आधार बनाया है ! उनकी दृढ मान्यता है कि –

“वेदोंऽखिलो धर्ममूलम”
अर्थात वेद ही धर्म के मूलाधार है !
मंत्रार्थों के साक्षातदृष्टा ऋषि मुनियों ने वेदों के मौलिक सिद्धांतों को समझकर ही वेदांग, ब्राह्मण, दर्शन, धर्मशास्त्र आदि ग्रंथों की रचना की, जिससे मानव, ज्ञान को प्राप्त करके अज्ञान को छोड़कर अपने चरम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त कर सकें ! मनु ने भी मनुस्मृति में वर्णों एवं आश्रम धर्मों के रूप में व्यक्ति एवं समाज के लिए हितकारी धर्मों-कर्तव्यों, विधानों का वर्णन वेद के आधार पर ही किया है और धर्म जिज्ञासा में वेद को ही परम प्रमाण माना है –

“धर्मं जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः (मनु. २|13)

अर्थात – धर्म की जिज्ञासा रखनेवालों के लिए वेड ही परम प्रमाण है ! उसी से धर्म-सधर्म का निश्चय करें !

मनु की वेदों के प्रति गहन श्रधा है ! वे वेदों को अपौरुषेय मानते है क्यूंकि वेदज्ञान अपौरुषेय होने से निर्भ्रान्त ज्ञान है, धर्म का मूल स्त्रोत है एवं परम प्रमाण है ; अतः वह कुतर्कों द्वारा खंडनीय नहीं है ! जो कुतर्कों आदि का आश्रय लेकर वेदज्ञान का खंडन, अवमानना या निंदा करता है, उसे वह ‘नास्तिक’ जैसे तिरस्कारपूर्ण शब्दों से संबोधित करते है !

ते सर्वार्थेष्वमीमांस्ये ताभ्यां धर्मो हि निर्बभौ॥
योऽवमन्येत ते मूले हेतुशास्त्राश्रयाद् द्विज:।
सं साधुभिर्बहिष्कार्यो नास्तिको वेदनिन्दक:॥
अर्थात – श्रुति एवं स्मृति ग्रंथों की किसी भी अवस्था में आलोचना नहीं करनी चाहिए, क्यूंकि उन्ही से धर्म की उत्पत्ति हुई है ! वही धर्म के मूल स्त्रोत है ! जो व्यक्ति तर्कशास्त्र का आश्रय लेकर कुतर्क आदि से उनकी अवमानना- निंदा करते है, तो श्रेष्ठ साधू, श्रेष्ठ लोगों को चाहिए कि उसे समाज से बहिष्कृत कर दें, क्यूंकि वेद की निंदा करनेवाला वह व्यक्ति नास्तिक है !

मनु के वचनों को आदर की दृष्टी से देखा गया है और प्रामाणिक भी माना है ! यहाँ कुछ भारतीयेतर उदाहरण प्रस्तुत किये जाते है, जिनसे मनुस्मृति की महत्ता, प्रामाणिकता, प्रभावशीलता एवं लोकप्रियता का निश्चय आसानी से किया जा सकता है !

(क) भारत में मनुस्मृति का प्रभाव एवं महत्त्व 

यह निश्चय रूप से कहा जा सकता है कि मनु के धर्मशास्त्र का अस्तित्व वैदिक काल से ही रहा है ! इसकी पुष्टि कई संहिताग्रंथों, ब्राह्मणग्रंथों में लगभग एक जैसे रूप में पाए जाने वाले निम्न वाक्य से हो जाती है –

“मनुवें........... भैषजम” 

अर्थात :- मनु ने जो कुछ कहा है, वह मानवों के लिए भेजष (औषध) के सामान कल्याणकारी एवं गुणकारी है !

ब्राह्मणग्रंथों का यह वचन यह सिद्ध करता है कि उस समय मनु के धर्मशास्त्र को प्रामाणिक माना जाता था ! धर्म निश्चय में उसका सर्वाधिक महत्त्व था ! एक ही रूप में कई ग्रंथों में पाया जाने वाला यह वाक्य इस बात की और इंगित करता है कि मनु का धर्मशास्त्र उस समय इतना लोकप्रिय हो चुका था कि वह औषध के तुल्य हितकारी, गुणकारी के रूप में स्वीकृत था ! तभी तो उसके विषय में यह उक्ति भी प्रसिद्द हो चुकी थी !

निरुक्तशास्त्र में महर्षि यास्क ने दायभाग में पुत्र और पुत्री के सामान अधिकार के विषय में किसी प्राचीन ग्रन्थ का श्लोक उद्धत करके मनु के मत का उल्लेख किया है ! मनु का यह समानाधिकार सम्बन्धी मत प्रचलित मनु स्मृति के ९|१३०, १९२, २१२ श्लोकों में वर्णित है ! इससे भी मनु के वचनों की विशेष प्रमाणिकता और महत्ता का अनुमान लगाया जा सकता है !

वाल्मीकि रामायण में, बालि और सुग्रीव के परस्पर युद्ध के अवसर पर राम द्वारा बालि का वध किये जाने से पूर्व घायल बालि राम के इस कृत्य को अनुचित एवं अधर्मनुकूल ठहराता है ! तब राम अपने इस कृत्य का औचित्य सिद्ध करने के लिए मनुस्मृति के वचनों का सहारा लेते है और दो श्लोक उद्धत करके अपने कार्य को धर्मानुकूल सिद्ध करते है ! वे दोनों श्लोक प्रचलित मनुस्मृति में किंचित पाठांतर से ८|३१६, ३१८ में पाए जाते है ! इन वचनों से भी ज्ञात होता है कि उस समय मनुस्मृति को धर्मनिश्चय में अत्याधिक प्रमाणिकता, प्रसिद्धि, मान्यता और महत्ता प्राप्त थी !

महाभारत में अनेक स्थलों पर मनु को विशिष्ठ प्रामाणिक स्मृतिकार के रूप में वर्णित किया है ! महाभारत के निम्न श्लोक से ज्ञात होता है कि उस समय मनु के वचनों को कुतर्क आदि के द्वारा अकाट्य माना जाता था –

पुराणं मानवो धर्मः .............हेतुमि: || (महा.)

अर्थात – पुराण अर्थात ब्राह्मण ग्रन्थ, मनु द्वारा प्रतिपादित धर्म, सांगोपांग चिकित्सक धार्मिक विद्वानों की आज्ञा से सिद्ध कार्य, इन चारों का हेतुशास्त्र का आश्रय लेकर कुतर्क आदि द्वारा खंडन नहीं करना चाहिए ! 

आचार्य बृहस्पति ने तो अपनी स्मृति में स्पष्ट शब्दों में मनुस्मृति को सर्वोच्च स्मृति घोषित किया है ! उसकी प्रामाणिकता, महत्ता की उद्घोषणा और उसकी प्रशंसा करते हुए वे कहते है – 

वेदार्थोपनिबद्धत्वात ........... दुश्यते || (बृह. स्मृति संस्कार्खंड 13-१४)

अर्थात – वेदार्थों के अनुसार रचित होने के कारण सब स्मृतियों में मनुस्मृति ही सबसे प्रधान एवं प्रशंसनीय है ! जो मनु स्मृति के अर्थ के विपरीत है, वह प्रशंसा के योग्य अथवा ग्राहय नहीं है ! तर्कशास्त्र, व्याकरण आदि शास्त्रों की शोभा तभी तक है जब तक धर्म, अर्थ, मोक्ष का उपदेश देने वाला मनु नहीं होता अर्थात मनु के उपदेशों के समक्ष सभी शास्त्र निस्तेज, प्रभावहीन प्रतीत होते है !

इनके अतिरिक्त अन्य भी अनेक प्रसिद्द लेखक-व्याख्याकार हुए है, जिन्होंने अपने मत के समर्थन में या अपनी मान्यता की पुष्टि के लिए मनु के वचनों को उद्धत किया है और इस प्रकार अपने ग्रन्थ का गौरव बढ़ाया है !

बोद्ध महाकवि अश्वघोष ने, जो राजा कनिष्क के समकालीन थे, जिनका समय प्रथम शताब्दी माना जाता है, अपनी “वज्रकोपनिषद” कृति में अपने पक्ष के समर्थन में मनु के श्लोकों को उद्धत किया है ! विश्वरूप ने अपने यजुर्वेदभाष्य और याज्ञवल्क्य स्मृति भाष्य में मनु के अनेक श्लोकों को उद्धत किया है ! शंकराचार्य ने वेदान्तसूत्र भाष्य में मनुस्मृति के पर्याप्त उदाहरण दिए है ! 500 ई. में जैमिनी सूत्रों के भाष्यकार शबरस्वामी ने अपने भाष्य में मनु के अनेक वचनों का उल्लेख किया है ! याज्ञवल्क्य स्मृति के एक अन्य भाष्यकार विज्ञानेश्वर ने याज्ञ. स्मृति के श्लोकों की पुष्टि के लिए मनु के श्लोकों को पर्याप्त संख्या में उद्धत किया है ! गौतम, वशिष्ठ, आपस्तम्ब, जैमिनी, औधायन आदि सूत्रग्रंथों में भी मनु का आदर के साथ उल्लेख है ! आचार्य कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में बहुत से स्थलों पर मनुस्मृति को आधार बनाया है, और कई स्थलों पर मनु के मतों का उल्लेख किया है ! इनके अतिरिक्त भी बहुत सारे ऐसे ग्रन्थ है, जिन्होंने अपनी प्रमाणिकता और गौरव बढाने के लिए अथवा मनु के मत को मान्य मानकर उद्धत किया है !

अठारहवी शताब्दी में मनु स्मृति को सर्वाधिक महत्त्व आर्यसमाज के प्रवर्तक महर्षि दयानंद ने दिया ! उन्होंने केवल मनुस्मृति को ही आर्ष एवं प्रामाणिक धर्मशास्त्र घोषित किया और अपने मंतव्यों का आधार बनाया ! उन्होंने अपने ग्रंथों में मनुस्मृति के लगभग ५१४ श्लोकों या श्लोकखण्डों को प्रमाण रूप में उद्धत किया है !

इनके अतिरिक्त ऐसे भी बहुत सारे ग्रन्थ मिलते है जिनमे किसी अन्य ग्रन्थ के ऐसे वचन उद्धत है जिनमे कि मनु के मत का उल्लेख है, या मनु के नाम से कोई मान्यता निर्दिष्ट है ! यदपि इनमे बहुत से श्लोक ऐसे भी है, जो न तो वर्तमान मनुस्मृति में मिलते है और न किसी स्मृति में ! यह भी संभव है कि अपने पक्ष की पुष्टि के लिए लोगों ने मनु के नाम से स्वयं ही श्लोक रच लिए हों ! यहाँ इस विवाद में न पड़कर केवल इतना कहना ही प्रासंगिक होगा कि इन सब बातों से मनु के एकछत्र प्रभाव का संकेत अवश्य मिलता है ! 

प्राचीनकाल से मनुस्मृति के अनुकूल आचरण को भी प्रतिष्ठा सूचक माना जाता रहा है ! वलभी के राजा धारसेन का एक शिलालेख उपलब्ध हुआ है, जो ५७१ ई. का है ! उसमे उस राजा को मनु के धर्म नियमों का पालनकर्ता कहकर उसकी विशेषता बतलाई गयी है ! 

सभी स्मृति-ग्रंथों एवं धर्मशास्त्रों में प्राचीनकाल से लेकर अब तक सर्वाधिक टीकाएँ एवं भाष्य मनुस्मृति पर ही लिखे गए है और अब भी लिखे जा रहे है ! यह भी मनुस्मृति की सर्वोच्च्त्ता एवं सर्वाधिक प्रभविष्णता का घोतक है ! 

आजकल भी पठन-पाठन, अध्यन मनन में मनुस्मृति का ही सर्वाधिक प्रचलन है ! हिन्दू कोड बिल एवं संविधान का प्रमुख आधार मनुस्मृति को माना जाता है ! आजकल भी न्यायालयों में न्याय दिलाने में मनुस्मृति का महत्वपूर्ण योगदान रहता है ! सामाजिक तथा राजनैतिक व्यवस्थाओं के प्रसंग में मनुस्मृति का उल्लेख अनिवार्यरूप से होता है और इससे मार्गदर्शन भी प्राप्त किया जाता है ! 

(ख) विदेशों में मनु स्मृति का प्रभाव –

भारत ही नहीं अपितु विदेशों में भी मनुस्मृति का प्रभाव रहा है और इसे महत्त्व मिला है ! चम्पादीप के एक शिलालेख में मनु का निम्न श्लोक उद्धत मिलता है –

वित्तं बन्धुर्वयः कर्म विधा भवति पंचमी |
एतानि मान्यस्थानानि गरियो यधदुत्तरम ||

बालि, स्याम और जावा के विधान मनुस्मृति से पर्याप्त साम्य रखते है ! वर्मा का ‘धम्मथट’ मनुस्मृति से ही प्रेरित प्रतीत होता है ! नेपाल का विधि विधान, आचार, मनुस्मृति का ही अनुकरण करता है !

फिलिपीन द्वीप के नए लोकसभा भवन के सामने उस देश की संस्कृति के निर्माण में आधारभूत योगदान देने वाले चार व्यक्तियों की मूर्तियाँ उत्कीर्ण की गयी है, जिनमे एक महर्षि मनु की है !

इस प्रकार मनु और मनु के शास्त्र का महत्त्व एवं प्रभाव देश-विदेश में प्राचीन काल से लेकर आज तक अल्पाधिक रूप में सदैव रहा है ! उक्त विवेचन से यह भी स्पष्ट हो गया है कि स्म्रुतिग्रंथों एवं धर्मशास्त्रों में मनुस्मृति ही सर्वाधिक प्रामाणिक,प्रभावशाली, लोकप्रिय एवं मान्यता प्राप्त ग्रन्थ है ! 

मनुस्मृति अपनी अनेक विशेषताओं के कारण सर्वोच्च स्थान को प्राप्त कर पायी है ! किन्तु खेद के साथ कहना पड़ता है कि आज ऐसे उत्तम और प्रसिद्द धर्मशास्त्र का पठन-पाठन क्षीण होता जा रहा है ! इसके प्रति लोगों के मन में अश्रधा की भावना घर करती जा रही है ! इसका कारण है – ‘मनुस्मृति में प्रक्षेपों की भरमार होना’ ! प्रक्षेपों के कारण मनुस्मृति का उज्जवल स्वरुप गंदा एवं विकृत हो गया है ! परस्पर विरुद्ध, प्रसंग विरुद्ध, एवं पक्षपात पूर्ण वर्णनों से मनुस्मृति की गरिमा विलुप्त हो गयी है ! एक महान तत्वदृष्टा ऋषि के अनुपम शास्त्र को प्रक्षेपकर्ताओं ने विविध प्रक्षेपों से दूषित करके न केवल इस शास्त्र के साथ, अपितु महर्षि मनु के साथ भी अन्याय किया है !

विशेष सहयोग :- वैदिक संस्थान शिवपुरी

साभार : "विशुद्ध मनुस्मृति" भाष्यकार प्रो. सुरेन्द्र कुमार

क्रमशः

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