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1857 के 15 वर्ष पूर्व प्रारम्भ हुआ स्वतंत्रता का जन आँदोलन !


1857 की क्रांति की ज्वाला मेरठ की छावनी में भड़की थी, किन्तु इन ऐतिहासिक तथ्यों के पीछे एक सचाई गुम है ! वह यह कि आजादी का सूत्रपात मेरठ के संग्राम से भी 15 साल पहले बुन्देलखंड की धर्मनगरी चित्रकूट में हुआ था।

अंग्रेज अधिकारियों द्वारा लिखे बांदा गजट में एक ऐसी कहानी दफन है, जिसे बहुत कम लोग जानते हैं। इसे देश का दुर्भाग्य कहें या हमारे इतिहासकारों द्वारा जानबूझकर किया गया अपराध कि आजादी के संघर्ष की पहली मशाल सुलगाने वाले बुन्देलखंड के वे रणबांकुरे जिनकी वीरता की तस्दीक फिरंगी अफसर खुद कर गए हैं, इतिहास के पन्नों में जगह नहीं पा सके। 

आजादी के प्रथम संग्राम की इस क्रांति ज्वाला के नायक थे, सीधे-साधे बुंदेले हरबोले। संघर्ष की इस दास्तां को आगे बढ़ाने में महिलाओं की ‘घाघरा पलटन’ की भी अहम हिस्सेदारी थी। गजेटियर के पन्ने पलटने पर मालूम होता है कि पवित्र तीर्थस्थल चित्रकूट में पवित्र मंदाकिनी के किनारे अंग्रेज अफसर गायों का वध कराते थे। गौमांस को बिहार और बंगाल में भेजकर वहां से उसके एवज में रसद और हथियार मंगाये जाते थे। 

आस्था की प्रतीक मंदाकिनी किनारे एक दूसरी आस्था यानी गोवंश की हत्या से स्थानीय जनता विचलित थी, लेकिन फिरंगियों के खौफ के कारण जुबान बंद थी।कुछ लोगों ने हिम्मत दिखाते हुए मराठा शासकों और मंदाकिनी पार के ‘नया गांव’ के चौबे राजाओं से फरियाद लगायी, लेकिन दोनों शासकों ने अंग्रेजों की मुखालफत करने से इंकार कर दिया। 

लेकिन स्थानीय जनता निराश नहीं हुई, उसके सीने में प्रतिशोध की ज्वाला धधकती रही। गांव-गांव घूमने वाले हरबोलों ने इस ज्वाला को बडवाग्नि में बदल दिया ! उन्होंने गौकशी के खिलाफ लोगों को जागृत करते हुए एकजुट करना शुरू किया। 

 फिर तो 6 जून1842 को वह हुआ, जिसकी किसी को भी उम्मीद नहीं थी। हजारों की संख्या में निहत्थे मजदूरों, नौजवानों और महिलाओं ने मऊ तहसील को घेरकर फिरंगियों के सामने बगावत के नारे बुलंद किये। तहसील में गोरों के खिलाफ आवाज बुलंद हुई तो बुंदेलों की भुजाएं फड़कने लगीं।देखते-देखते अंग्रेज अफसर बंधक थे, इसके बाद पेड़ के नीचे ‘जनता की अदालत’ लगी और बाकायदा मुकदमा चलाकर पांच अंग्रेज अफसरों को फांसी पर लटका दिया गया। इसके बाद तो जिस अंग्रेज या फिर उनके किसी पिछलग्गू ने बुंदेलों की शान में गुस्ताखी का प्रयास किया तो उसका सिर कलम कर दिया गया।

जनक्रांति की यह ज्वाला मऊ में ही नहीं थमी, बल्कि राजापुर बाजार पहुंची और अंग्रेज अफसर खदेड़ दिये गये। वक्त की नजाकत देखते हुए मर्का और समगरा के जमींदार भी आंदोलन में कूद पड़े। दो दिन बाद 8 जून को बबेरू बाजार सुलगा तो वहां के थानेदार और तहसीलदार को जान बचाकर भागना पड़ा। जौहरपुर, पैलानी, बीसलपुर, सेमरी से अंग्रेजों को खदेड़ने के साथ ही तिंदवारी तहसील के दफ्तर में क्रांतिकारियों ने सरकारी रिकार्डो को जलाकर तीन हजार रुपये भी लूट लिये। 

आजादी की इस ज्वाला को कुचलने के लिए गोरी हुकूमत ने अपने पिट्ठू शासकों को हुक्म जारी किया। इस फरमान पर पन्ना नरेश ने एक हजार सिपाही, एक तोप, चार हाथी और पचास बैल भेजे, छतरपुर की रानी व गौरिहार के राजा के साथ ही अजयगढ़ के राजा की फौज भी चित्रकूट के लिए रवाना हुई । लेकिन नतीजा उल्टा हुआ ! विद्रोह को दबाने के लिए बांदा-चित्रकूट पहुंची भारतीय राजाओं की फौज के तमाम सिपाही भी आंदोलनकारियों के साथ कदमताल करने लगे। नतीजे में उत्साही क्रांतिकारियों ने 15 जून को बांदा छावनी के प्रभारी मि. काकरेल को पकड़ने के बाद गर्दन को धड़ से अलग कर दिया। इसके बाद आवाम के अंदर से अंग्रेजों का खौफ खत्म करने के लिए कटे सिर को लेकर बांदा की गलियों में घूमे।काकरेल की हत्या के दो दिन बाद राजापुर, मऊ, बांदा, दरसेंड़ा, तरौहां, बदौसा, बबेरू, पैलानी, सिमौनी, सिहुंडा के बुंदेलों ने युद्ध परिषद का गठन करते हुए बुंदेलखंड को आजाद घोषित कर दिया। 

क्या यह हैरत की बात नहीं है कि जब इस क्रांति के बारे में स्वयं अंग्रेज अफसर लिख कर गए हैं तो भारतीय इतिहासकारों ने इन तथ्यों को इतिहास के पन्नों में स्थान क्यों नहीं दिया? सच पूछा जाये तो यह एक वास्तविक जनांदोलन था, क्योकि इसमें कोई एक नेता नहीं था, बल्कि आन्दोलनकारी आम जनता ही थी, इसे इतिहास में स्थान न देना बुंदेलों के संघर्ष को नजर अंदाज करने के बराबर है..!!

आईये अब डालते हैं 1857 की क्रान्ति पर एक नजर -

**1857 में मेरठ में तैनात ईस्ट इंडिया कंपनी की थर्ड कैवेलरी, 11वीं और 12वीं इन्फेंट्री के ब्रिटिश जवान पारंपरिक चर्च परेड में हिस्सा लेने वाले थे। गर्मी का मौसम था इसीलिए परेड आधे घंटे की देरी से शुरू होनी थी। इस परेड में अंग्रेज सैनिक निहत्थे हुआ करते थे।

राइफल में इस्तेमाल के लिए गाय व सूअर की चर्बी से बने कारतूस दिए जाने को लेकर इस इन्फेंट्री में तैनात भारतीय जवानों में गुस्सा 6 मई से ही था। 90 भारतीय जवानों को ये कारतूसें दी गई थीं और इनमें से 85 ने इनका इस्तेमाल करने से इन्कार कर दिया था। नतीजा यह हुआ कि इनका कोर्ट मार्शल किया गया और इन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गई। उसी दिन भारतीय जवानों ने बगावत का मन बना लिया। इन जवानों ने सोच-समझ कर रविवार का दिन चुना क्योंकि इन्हें मालूम था कि अंग्रेज सैनिक निहत्थे चर्च परेड में जाएंगे। लेकिन आधे घंटे की देरी की जानकारी उन्हें नहीं थी। लिहाजा वे बैरक में रखे हथियार व कारतूसों पर तो कब्जा नहीं जमा पाए लेकिन कई अफसरों को मौत के घाट जरूर उतार दिया। अंग्रेज सैनिकों ने खुद की और हथियारों की रक्षा जरूर की लेकिन भारतीय जवानों का सामना नहीं कर पाए। इधर ये क्रांतिकारी हिंदुस्तानी सैनिक आजीवन कारावास में कैद अपने साथियों को छुड़ाकर ‘मारो फिरंगियों को’ के नारे बुलंद करने लगे। इससे पहले कि अंग्रेज बहादुर और उनके सैनिक कुछ समझ पाते इन सैनिकों का यह जत्था दिल्ली के लिए रवाना हो गया।

महत्वपूर्ण यह है कि मेरठ में इतना बड़ा कांड हो चुका था लेकिन शहर में आमतौर पर शांति थी और किसी को इस पूरे वाकये का ठीक-ठीक पता भी नहीं था!

1857 के स्वतंत्रता संग्राम पर उपलब्ध तथ्य और कथ्य बताते हैं कि हिंदुस्तानी सैनिकों ने मई की रात विक्टोरिया जेल तोड़कर अपने 85 सैनिकों को रिहा कराकर कच्चे रास्ते से दिल्ली की ओर कूच किया। यह कच्चा रास्ता और बैरक आज भी बरकरार है। उन दिनों मेरठ से दिल्ली के लिए सड़क नहीं बनी थी। सैनिकों ने छोटा रास्ता अपनाया। सैनिक कच्चे रास्ते से मोहिद्दीनपुर, मोदीनगर, गाजिउद्दीनपुर से बागपत में यमुना पुल पार करके दिल्ली पहुंच गए। दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास के प्राध्यापक डॉ. विजय काचरू के अनुसार यह क्रांति इतिहास की एक विभाजन रेखा है। इसे केवल सैन्य विद्रोह नहीं कह सकते। क्योंकि जिन लोगों ने दिल्ली कूच किया वह समाज के हर वर्ग से आए थे। यह व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह था। इस विद्रोह के बाद भारतीय और अंग्रेज दोनों की विचारधारा में परिवर्तन आया। भारतीय और राष्ट्रवादी हुए और अंग्रेज और प्रतिरक्षात्मक। दादरी क्षेत्र के जिन क्रांतिकारियों को अंग्रेजों ने फांसी पर लटकाया था, उनके नाम का शिलालेख दादरी तहसील में लगा हुआ है। यहां एक छोटा स्मारक भी बना है। यहां राव उमराव सिंह की मूर्ति दादरी तिराहे पर लगी है। इसके अलावा, शहीदों का कोई चिन्ह जिले में शेष नहीं बचा है।

1857 के स्वातंत्र समर में 10 मई को मेरठ के ज्वाला की आग जब कानपुर पहुंची तो कई नवाब यहां से लखनऊ चले गए। जिन्हें बाद में अंग्रेज गिरफ्तार करके ऊंट पर बिठाकर कानपुर ले आए और मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया। सामान कुर्क कर उन्हें कैद कर लिया। 1अक्टूबर 1896 में सैयद कमालुद्दीन हैदर ने अपनी पुस्तक तारीख-ए-अवध में लिखा है कि नवाब दूल्हा हाता पटकापुर में एक मेम मारी गईं। इस जुर्म में अंग्रेजों ने नवाब दूल्हा और उनके भांजे नवाब मौतमुद्दौला को गिरफ्तार कर लिया। इसके बाद नवाब निजामुद्दौला, नवाब बाकर अली खां लखनऊ चले गए। अंग्रेजों ने नवाबों को लखनऊ में गिरफ्तार किया और उन्हें ऊंट से कानपुर लाकर अदालत के सामने पेश किया। नवाबों के घर का सारा सामान कुर्क कर उन्हें कैद कर लिया। इस सदमे में नवाब बाकर खां के बेटे की मौत हो गई।

इलाहाबाद से कत्लेआम करते हुए जनरल हैवलाक की फौज बकरमंडी स्थित सूबेदार के तालाब पर पहुंची तो अहमद अली वकील और कुछ महाजनों ने जनरल का स्वागत किया। लेकिन अंदर ही अंदर वे अंग्रेजों के खिलाफ रणनीति तैयार करते रहे।

जनरल हैवलाक की फौज ने 3000 लोगों को फांसी दी। बड़ी करबला नवाबगंज में सबील के लिए लगाए गए अहमद अली वकील के कारखास राना को अंग्रेजों ने पकड़ लिया तो राना ने पूछा कि मेरा कसूर क्या है। जनरल हैवलाक ने कहा कि तुम्हें तीसरे दिन फांसी देंगे। तुम्हारी कौम हमारे बेगुनाह लोगों को मार रही है।

1857 के मुगलिया सल्तनत दिल्ली में 10 मई के बाद हालत पूरी तरह से बेकाबू हो गए थे। बागी सैनिकों और आम जन का आक्रोश चरम पर था। यमुना पार करके दिल्ली पहुंचे विद्रोही सैनिकों की टुकड़ियों ने दरियागंज से शहर में प्रवेश करना शुरू कर दिया था।

यमुना नदी (दरिया) के करीब होने कारण इस जगह का नाम दरियागंज पड़ा। दरियागंज से हथियारों से लैस बागी सैनिक नारे लगाते जा रहे थे। फौजियों को आता देख पहले तो अंग्रेज छिप गए लेकिन कुछ ने मुकाबला किया। दरिया गंज की गलियों और भवनों में हुई मुठभेड़ में दोनों ओर से लोग घायल हुए और मारे गए। इस दौरान अंग्रेजों के घरों में आग लगा दी गई। कुछ अंग्रेज भागकर बादशाह के पास पहुंचे और पनाह की गुहार की। लेकिन दिल्ली के हालात बेकाबू थे, बागी सैनिकों और आम जन का गुस्सा चरम पर था। ऐसे भी प्रमाण हैं कि अंग्रेजों के नौकर भी उन दिनों विद्रोह में शामिल हुए थे। लाल किले के दक्षिण में बसाई गई दरिया गंज पहली बस्ती थी। यहां पर आम लोग नहीं रहते थे। यह जगह धनी वर्ग के लिए थी, यहां नवाब, सूबेदार और पैसे वाले रहा करते थे। किले के समीप इस बस्ती में शानदार कोठियां और बंगले बने थे। कुछ के अवशेष अब भी देखे जा सकते हैं।

1803 में जब अंग्रेज अपनी फौज के साथ दिल्ली पहुंचे तो किले के पास ही नदी के किनारे अपना डेरा जमाया और इसे छावनी का रूप दिया। इसलिए यह भी कहा जा सकता है कि दरियागंज दिल्ली में अंग्रेजों की सबसे पहली छावनी थी। और शायद इसीलिए बागियों ने इसके महत्व को समझ कर इसे निशाना भी बनाया। इस संबंध में प्रसिद्ध इतिहासकार इरफान हबीब का कहना है कि शाहजहांनाबाद की दीवार से दरियागंज लगा था।

इसका नाम दरियागंज कब पड़ा इसकी बारे में जानकारी नहीं है लेकिन यह जगह भी 1857 में प्रभावित थी। 1857 की क्रांति पर पुस्तकों का संपादन करने वाले मुरली मनोहर प्रसाद सिंह का कहना है कि उस दौर में दरियागंज में आतंक का माहौल था। अंग्रेजों द्वारा आसपास के इलाके से मुस्लिम आबादी हटा दी गई थी। अजमेरी गेट, कश्मीरी गेट, तुर्कमान गेट आदि जगहों से भी अंग्रेजों ने मुस्लिम बस्तियों को उजाड़ दिया था।

1857 की क्रान्ति का विस्तार एवं फैलाव लगभग समूचे देश में था। उत्तर भारत मे देखे तो इसके मुख्य स्थान बैरकपुर, मेरठ, दिल्ली, लखनऊ, कानपुर, झाँसी, बुंदेलखंड़, बरेली, बनारस व इलाहाबाद रहे जहाँ इस क्रांति का पूरा जोर था।

बंगाल व असम का पूरा क्षेत्र उस समय कलकत्ता रेजीड़ेसी के अधीन पड़ता था वहाँ कलकत्ता व असम में आम जनता व राजाओं व रियासतों ने भाग लिया। बिहार में यह संघर्ष पटना, दानापुर, जगदीशपुर (आरा) आदि अनेक स्थानों पर हुआ था। उस समय में पंजाब में आधुनिक भारत व पाकिस्तान के क्षेत्र आते थे। वहाँ लाहोर, फ़िरोजपुर, अमृतसर, जांलधर, रावलपिड़ी, झेलम, सियालकोट, अंबालातथा गुरुदासपुर में सैनिको व आम जनता ने इस संग्राम में बढ़ चढकर हिस्सा लिया था।

हरियाणा का योगदान भी इस संग्राम में महत्वपूर्ण था यहाँ के गुड़गाँव, मेवात, बहादुरगढ़, नारनोल, हिसार, झज्झर आदि स्थानों पर यह संग्राम अपने परवान पर था। उस समय में मध्य भारत में इंदौर, ग्वालियर, महू सागर, बुंदेलखंड़ व रायपुर स्थानों को केन्द्र में रखते हुए यह संग्राम आगे बढ़ा था। 

भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को यह कहना कि यह केवल उत्तर भारत तक सीमित था असत्य एवं भ्रामक है। दक्षिण भारत में यह संघर्ष करीब- करीब हर जगह व्याप्त था। महाराष्ट्र में यह संघर्ष जिन स्थानों पर हुआ था उनमें सतारा, कोल्हापुर, पूना, मुम्बई, नासिक, बीजापुर, औरंगाबाद, अहमदनगर मुख्य थे। आंध्र प्रदेश में यह संग्राम रायल सीमा, हैदराबाद, राजमुड़ी, तक फ़ैला हुआ था जहाँ किसानों ने भी इस संघर्ष में भाग लिया था।

कर्नाटक में हम देखते है तो पाते है कि मैसूर, कारवाड़, शोरापुर, बैंगलोर स्थानों पर इस संग्राम में लोगों ने अपनी आहुति दी। तमिलनाडु के मद्रास, चिगंलपुर, आरी, मदुरै में जनता व सिपाहियों ने इस विद्रोह में भाग लिया। यहाँ पर भी गुप्त कार्यवाही एवं संघर्ष के केन्द्र थे। केरल में यह संघर्ष मुख्यतया कालीकट, कोचीन नामक स्थानों पर केन्द्रित था। उपरोक्त से यह स्पष्ट होता है कि इस संग्राम का फ़ैलाव लगभग पूरे देश में था व इस संघर्ष में प्रायः प्रत्येक वर्ग, समुदाय व जाति के लोग़ों ने भाग लिया था।

अंग्रेजों के खिलाफ़ देश के इस संघर्ष से प्रभावित होकर पुर्तगाल की बस्तियों में ग़ोवा में विद्रोह हुआ। फ़्रांसिसियों के अधीन पांड़िचेरी में भी बगावत हुई। यह एक ऐसा समय था जब समूचे दक्षिण एशिया में हलचल व्याप्त रही, इसमें नेपाल, अफ़गानिस्तान, भूटान, तिब्बत आदि देश शामिल थे।

यह भारत में महाभारत के बाद लड़ा गया सबसे बडा युद्ध था। इस संग्राम की मूल प्रेरणा स्वधर्म की रक्षा के लिये स्वराज की स्थापना करना था। यह स्वाधीनता हमें बिना संघर्ष, बिना खड़ग-ढ़ाल के नहीं मिली, लाखों व्यक्तियों द्वारा इस महायज्ञ में स्वयं की आहुति देने से मिली है।

लार्ड डलहौजी ने 10 साल के अन्दर भारत की 21 हजार जमीदारियाँ जब्त कर ली और हजारों पुराने घरानों को बर्बाद कर दिया। ब्रितानियों ने अपने अनुकूल नवशिक्षित वर्ग तैयार किया तथा भारतीय शिक्षा पर द्विसूत्रीय शिक्षा प्रणाली लागू की ताकि ये लोग ब्रितानी सरकार को चलाने मे मदद कर सके। ब्रिटिश सरकार ने 1834 में सभी स्कूलों में बाइबिल का अध्ययन अनिवार्य बना दिया क्योंकि ईस्ट इंडिया कंपनी के सभी अधिकारी सामान्यत: अपने व्यापारिक काम के साथ-साथ ईसाई मत का प्रचार करते हुए लोगों को धर्मान्तरित करना अपना धार्मिक कर्तव्य मानते थे।

अब कुछ अनछुए पहलुओं की चर्चा -

** विश्‍व में चित्तौड ही एक मात्र वह स्थान है, जहाँ 900 साल तक आजादी की लड़ाई लड़ी गई।

** भारत में ब्रिटिश सरकार के शासन काल के समय जहां-जहां ब्रितानियों का राज था वहाँ आम लोग उनके सामने घुड़सवारी नहीं कर पाते थे।

** क्रांति के समय प्रत्येक गाँव में रोटी भेजी जाती थी जिसे सब मिलकर खाते व क्रांति का संकल्प करते थे। कई रोटियाँ बनकर आस पास के गाँवो में जाती। सिपाहियों के पास कमल के फ़ूल जाते व हर सैनिक इसे हाथ में लेकर क्रांति की शपथ लेता था।

** दिल्ली पर चारों तरफ़ से ब्रितानियों ने हमला किया जिसमें पहले ही दिन उनके तीन मोर्चो के प्रमुख कमांडर भयंकर रूप से घायल हुए, 66 अधिकारी व 404 जवान मृत हुए।

** बनारस के आसपास जनरल नील ने बदले की भावना से भंयकर अत्याचार किए। हजारों लोगों को फ़ांसी देना, गाँव जलाकर लोगों को जिन्दा जलाना जैसे कई प्रकार के अत्याचार किए। वे बड़े वृक्ष की हर डाली पर लोगों को फ़ांसी पर लटकाते चले गये।

** 24 जुलाई को क्रांतिकारी पीर अली को ब्रितानियों द्वारा पटना में फ़ांसी देते ही दानापुर की पलटन ने संग्राम प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने जगदीशपुर के 80 साल के वयोवृद्ध राजपूत कुंवरसिह को अपना नेता बनाया। कुंवरसिह ने इस उम्र में जिस तरह से कई लड़ाइयां लड़ी वह वास्तव में प्रेरणादायी है। उनकी प्रेरणा से पटना आरा, गया, छपरा, मोतीहरी, मुज्जफ़रनगर आदि स्थानों पर भी क्रांति हो पाई थी।

** भारत के वीर सेनानी तांत्या टोपे को ब्रितानियों ने 7 अप्रेल 1859 की सुबह गिरफ़्तार किया और 15 अप्रैल को ग्वालियर के निकट शिवपुरी में सैनिक न्यायालय में मुकदमे का नाटक किया गया और उनको फ़ांसी देने की घोषणा की गई। 18 अप्रैल 1859 को शाम 7 बजे उन्होंने वीर योद्धा की तरह खुद ही अपनी गर्दन फ़ांसी के फ़ंदे में डाली व अनंत यात्रा पर निकल पडे।

** यह बात सरासर झूठ है कि 1857 की क्रांति केवल सिपाही विद्रोह था क्योंकि शहीद हुए 3 लाख लोगों में आधे से ज्यादा आम लोग थे। जब इतनी बड़ी संख्या में लोग शामिल होते हैं तो वह विद्रोह नहीं बल्कि क्रांति या संग्राम कहलाता है।

** केवल दिल्ली में 27,000 लोगों को फ़ांसी दी ग़यी।

** भगवा, विरसा मुंडा जैसे कई जनजाति नेता, क्रांतिकारी वासुदेव बलवंत फ़डके से लेकर सावरकर, चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह जैसे कई दीवाने एवं सुभाष की आजाद हिन्द फ़ौज तथा गाँधीजी का अहिंसक आंदोलन आदि सभी ने इसी 1857 की क्रांति से प्रेरणा पाई थी।

** इस क्रांति के समय मुम्बई में 1213, बंगाल में 1994, मद्रास में 1044 सैनिकों के कोर्ट मार्शल किये गये थे।

** इस आंदोलन में तीन लाख से भी अधिक लोग शहीद हुए, अकेले अवध में 1 लाख 20 हजार लोगों ने अपनी आहुति दी थी। लखनऊ में 20 हजार, इलाहबाद में 6000 लोगों को ब्रितानियों ने सरेआम कत्ल किया था।

** 1857 के स्वाधीनता संग्राम के बाद 1857 में ईस्ट इंडिया कम्पनी के 100 पौंड की कीमत का शेयर 10000 पौंड में खरीदकर ब्रिटिश सरकार ने भारत पर अपना अधिकार कर लिया था।

1857 में अमानवीय ब्रिटिश अत्याचारों के कुछ उदाहरण –

** ब्रिटिश सरकार ने मौलवी अहमद शाह की मृत्यु के बाद उनके सिर को कोतवाली में लटका दिया व मौलवी साहब को मौत के घाट उतारने वाले ब्रितानियों के समर्थक पवन राजा जगन्नाथ सिंह को 5000 रु का इनाम भी दिया।

** एक बार ब्रितानी कानपुर के बहुत से ब्राह्मणों को पकड़ कर लाये ओर उनमें से जिनका सम्पर्क क्रांतिकारियों से था, उन्हें फ़ांसी पर चढ़ाया। इतना ही नहीं फ़ांसी देने से पूर्व वह रक्त की भूमि जिस पर क्रांतिकारियों ने ब्रितानियों को मारा था उसको चाटने के लिये और बुहारी से रक्त के धब्बे धोने के लिये उन्हें बाध्य किया गया, क्योंकि हिन्दू धर्म की दृष्टि से इन कृत्यों से उच्च वर्ण के लोगों का पतन होता है।

** ब्रितानियों ने रानी लक्ष्मी बाई की उत्तराधिकार वाली याचिका खारिज कर दी व डलहौजी ने बालक दामोदर को झाँसी का उत्तराधिकारी मानने से इन्कार कर दिया क्योंकि वे झाँसी को अपने अधिकार में लेना चाहते थे। मार्च 1854 में ब्रिटिश सरकार ने रानी को महल छोड़ने का आदेश दिया साथ ही उनकी सालाना राशि में से 60,000 रुपये हर्जाने के रूप में हड़प लिये।

** ब्रितानी सेना का विरोध करने के कारण बहादुर शाह को बंदी बनाकर बर्मा भेज दिया गया । उनके साथ उनके दोनों बेटों को भी कारावास में डाल दिया गया। वहाँ उनके दोनों बेटों को मार दिया गया।

** 26 जनवरी 1851 में जब बाजीराव द्वितीय की मृत्यु हो गई तो ब्रिटिश सरकार ने उनके दत्तक पुत्र नाना साहब को पेशवा की उपाधि व व्यक्तिगत सुविधाओं से वंचित कर दिया।

** ब्रितानियों ने भारतीय सिपाहियों व मंगल पांडे आदि को उनकी धार्मिक भावनाओं व उनकी हिन्दू धर्म की मान्यताओ को ठेस पहुँचाने के लिये गाय व सुअर की चर्बी वाले कारतूसों का प्रयोग करने के लिये बाध्य किया। जब उन लोगों ने विरोध किया तो ब्रिटिश सरकार ने मंगल पांड़े का कोर्ट मार्शल किया व उनको फ़ांसी पर चढ़ा दिया। रेजिमेंट के जिन सिपाहियों ने मंगल पांड़े का विद्रोह में साथ दिया था। ब्रिटिश सरकार ने उनकों सेना से निकाल दिया और पूरी रेजिमेंट को खत्म कर दिया।

** जबलपुर के राजा शंकर शाह ने नागपुर व जबलपुर की फ़ौज में विद्रोह का काम किया। उन्हें तोप से बांधकर निर्दयता से उड़ा दिया गया।

संदर्भ-
हिंदी पत्रिका : पाथेय कण, अंक : 1,
दिनांक 13 अप्रैल (संयुक्तांक) 2007

ब्रितानियोें के राक्षसी कृत्य
(चाँद के फाँसी अंक (1928) का एक लेख)

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