रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा - भाग 4


स्वदेश प्रेम

पूज्यपाद श्रीस्वामी सोमदेव का देहान्त हो जाने के पश्चात् जब से अंग्रेजी के नवें दर्जे में आया, कुछ स्वदेश संबन्धी पुस्तकों का अवलोकन प्रारंभ हुआ । शाहजहाँपुर में सेवा-समिति की नींव पं. श्रीराम वाजपेयी जी ने डाली, उसमें भी बड़े उत्साह से कार्य किया । दूसरों की सेवा का भाव हृदय में उदय हुआ । कुछ समझ में आने लगा कि वास्तव में देशवासी बड़े दुःखी हैं । उसी वर्ष मेरे पड़ौसी तथा मित्र जिनसे मेरा स्नेह अधिक था, एण्ट्रेंस की परीक्षा पास करके कालिज में शिक्षा पाने चले गये । कालिज की स्वतंत्र वायु में हृदय में भी स्वदेश के भाव उत्पन्न हुए । उसी साल लखनऊ में अखिल भारतवर्षीय कांग्रेस का उत्सव हुआ । मैं भी उसमें सम्मिलित हुआ । कतिपय सज्जनों से भेंट हुई । देश-दशा का कुछ अनुमान हुआ, और निश्‍चय हुआ कि देश के लिए कोई विशेष कार्य किया जाए । देश में जो कुछ हो रहा है उसकी उत्तरदायी सरकार ही है । भारतवासियों के दुःख तथा दुर्दशा की जिम्मेदारी गवर्नमेंट पर ही है, अतःएव सरकार को पलटने का प्रयत्‍न करना चाहिए । मैंने भी इसी प्रकार के विचारों में योग दिया । कांग्रेस में महात्मा तिलक के पधारने की खबर थी, इस कारण से गरम दल के अधिक व्यक्‍ति आए हुए थे । कांग्रेस के सभापति का स्वागत बड़ी धूमधाम से हुआ था । उसके दूसरे दिन लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की स्पेशल गाड़ी आने का समाचार मिला । लखनऊ स्टेशन पर बड़ा जमाव था । स्वागत कारिणी समिति के सदस्यों से मालूम हुआ कि लोकमान्य का स्वागत केवल स्टेशन पर ही किया जायेगा और शहर में सवारी न निकाली जाएगी । जिसका कारण यह था कि स्वागत कारिणी समिति के प्रधान पं. जगतनारायण जी थे । अन्य गणमान्य सदस्यों में पं. गोकरणनाथजी तथा अन्य उदार दल वालों (माडरेटों) की संख्या अधिक थी । माडरेटों को भय था कि यदि लोकमान्य की सवारी शहर में निकाली गई तो कांग्रेस के प्रधान से भी अधिक सम्मान होगा, जिसे वे उचित न समझते थे । अतः उन सबने प्रबन्ध किया कि जैसे ही लोकमान्य तिलक पधारें, उन्हें मोटर में बिठाकर शहर के बाहर बाहर निकाल ले जाऐं । इन सब बातों को सुनकर नवयुवकों को बड़ा खेद हुआ । कालिज के एक एम. ए. के विद्यार्थी ने इस प्रबन्ध का विरोध करते हुए कहा कि लोकमान्य का स्वागत अवश्य होना चाहिए । मैंने भी इस विद्यार्थी के कथन में सहयोग दिया । इसी प्रकार कई नवयुवकों ने निश्‍चय किया कि जैसे ही लोकमान्य स्पेशल से उतरें, उन्हें घेरकर गाड़ी में बिठा लिया जाए और सवारी निकाली जाए । स्पेशल आने पर लोकमान्य सबसे पहले उतरे । स्वागतकारिणी के सदस्यों ने कांग्रेस के स्वयंसेवकों का घेरा बनाकर लोकमान्य को मोटर में जा बिठाया । मैं तथा एक एम.ए. का विद्यार्थी मोटर के आगे लेट गए । सब कुछ समझाया गया, मगर किसी की एक न सुनी । हम लोगों की देखादेखी और कई नवयुवक भी मोटर के सामने आकर बैठ गए । उस समय मेरे उत्साह का यह हाल था कि मुँह से बात न निकलती थी, केवल रोता था और कहता था, मोटर मेरे ऊपर से निकाल ले जाओ । स्वागतकारिणी के सदस्यों ने कांग्रेस के प्रधान को ले जाने वाली गाड़ी मांगी, उन्होंने स्वीकार न किया । एक नवयुवक ने मोटर का टायर काट दिया । लोकमान्यजी बहुत कुछ समझाते किन्तु वहाँ सुनता कौन ? एक किराये की गाड़ी से घोड़े खोलकर लोकमान्य के पैरों पर सिर रख उन्हें उसमें बिठाया और सबने मिलकर हाथों से गाड़ी खींचनी शुरू की । इस प्रकार लोकमान्य का इस धूमधाम से स्वागत हुआ कि किसी नेता की उतने जोरों से सवारी न निकाली गई । लोगों के उत्साह का यह हाल था कि कहते थे कि एक बार गाड़ी में हाथ लगा लेने दो, जीवन सफल हो जाए । लोकमान्य पर फूलों की जो वर्षा की जाती थी, उसमें से जो फूल नीचे गिर जाते थे उन्हें उठाकर लोग पल्ले में बाँध लेते थे । जिस स्थान पर लोकमान्य के पैर पड़ते, वहां की धूल सबके माथे पर दिखाई देती । कुछ उस धूल को भी अपने रूमाल में बांध लेते थे । इस स्वागत से माडरेटों की बड़ी भद्द हुई ।

क्रांतिकारी आन्दोलन

कांग्रेस के अवसर पर लखनऊ से ही मालूम हुआ कि एक गुप्त समिति है, जिसका मुख्य उद्देश्य क्रान्तिकारी आन्दोलन में भाग लेना है । यहीं से क्रांतिकारी समिति की चर्चा सुनकर कुछ समय बाद मैं भी क्रांतिकारी समिति के कार्य में योग देने लगा । अपने एक मित्र द्वारा भी क्रांतिकारी समिति का सदस्य हो गया । थोड़े ही दिन में मैं कार्यकारिणी का सदस्य बना लिया गया । समिति में धन की बहुत कमी थी, उधर हथियारों की भी जरूरत थी । जब घर वापस आया, तब विचार हुआ कि एक पुस्तक प्रकाशित की जाये और उसमें जो लाभ हो उससे हथियार खरीदे जायें । पुस्तक प्रकाशित करने के लिए धन कहाँ से आये ? विचार करते-करते मुझे एक चाल सूझी । मैंने अपनी माता जी से कहा कि मैं कुछ रोजगार करना चाहता हूँ, उसमें अच्छा लाभ होगा । यदि रुपये दे सकें तो बड़ा अच्छा हो । उन्होंने 200 रुपये दिये । ’अमेरिका को स्वाधीनता कैसे मिली’ नामक पुस्तक लिखी जा चुकी थी । प्रकाशित होने का प्रबंध हो गया । थोड़े रुपये की जरूरत और पड़ी, मैंने माता जी से 200 रुपये और ले लिये । पुस्तक की बिक्री हो जाने पर माता जी के रुपये पहले चुका दिये । लगभग 200 रुपये और भी बचे । पुस्तकें अभी बिकने के लिए बहुत बाकी थी । उसी समय 'देशवासियों के नाम संदेश' नामक एक पर्चा छपवाया गया, क्योंकि पं. गेंदालाल जी, ब्रह्मचारी जी के दल सहित ग्वालियर में गिरफ्तार हो गये थे । अब सब विद्यार्थियों ने अधिक उत्साह के साथ काम करने की प्रतिज्ञा की । पर्चे कई जिलों में लगाये गये और बांटे गए । पर्चे तथा 'अमेरिका को स्वाधीनता कैसे मिली' पुस्तक दोनों संयुक्त प्रान्त की सरकार ने जब्त कर लिये ।

हथियारों की खरीद

अधिकतर लोगों का विचार है कि देशी राज्यों में हथियार (रिवाल्वर, पिस्तौल तथा राइफलें इत्यादि) सब कोई रखता है, और बन्दूक इत्यादि पर लाइसेंस नहीं होता । अतएव इस प्रकार के अस्‍त्र बड़ी सुगमता से प्राप्‍त हो सकते हैं । देशी राज्यों में हथियारों पर कोई लाइसेंस नहीं, यह बात बिल्कुल ठीक है, और हर एक को बंदूक इत्यादि रखने की आजादी भी है । किन्तु कारतूसी हथियार बहुत कम लोगों के पास रहते हैं, जिसका करण यह है कि कारतूस या विलायती बारूद खरीदने पर पुलिस में सूचना देनी होती है । राज्य में तो कोई ऐसी दुकान नहीं होती, जिस पर कारतूस या कारतूसी हथियार मिल सकें । यहाँ तक कि विलायती बारूद और बंदूक की टोपी भी नहीं मिलती, क्योंकि ये सब चीजें बाहर से मंगानी पड़ती हैं । जितनी चीजें इस प्रकार की बाहर से मंगायी जाती हैं, उनके लिए रेजिडेंट (गवर्नमेंट का प्रतिनिधि, जो रियासतों में रहता है) की आज्ञा लेनी पड़ती है । बिना रेजिडेण्ट की मंजूरी के हथियारों संबंधी कोई चीज बाहर से रियासत में नहीं आ सकती । इस कारण इस खटखट से बचने के लिए रियासत में ही टोपीदार बंदूकें बनती हैं, और देशी बारूद भी वहीं के लोग शोरा, गन्धक तथा कोयला मिलाकर बना लेते हैं । बन्दूक की टोपी चुरा-छिपाकर मँगा लेते हैं । नहीं तो टोपी के स्थान पर भी मनसल और पुटाश अलग-अलग पीसकर दोनों को मिलाकर उसी से काम चलाते हैं । हथियार रखने की आजादी होने पर भी ग्रामों में किसी एक-दो धनी या जमींदार के यहाँ टोपीदार बंदूक या टोपीदार छोटी पिस्तौल होते हैं, जिनमें ये लोग रियासत की बनी हुई बारूद काम में लाते हैं । यह बारूद बरसात में सील खा जाती है और काम नहीं देती । एक बार मैं अकेला रिवाल्वर खरीदने गया । उस समय समझता था कि हथियारों की दुकान होगी, सीधे जाकर दाम देंगे और रिवाल्वर लेकर चले आयेंगे । प्रत्येक दुकान देखी, कहीं किसी पर बन्दूक इत्यादि का विज्ञापन या कोई दूसरा निशान न पाया । फिर एक ताँगे पर सवार होकर सब शहर घूमा । ताँगे वाले ने पूछा कि क्या चाहिए । मैंने उससे डरते-डरते अपना उद्देश्य कहा । उसी ने दो-तीन दिन घूम-घूमकर एक टोपीदार रिवाल्वर खरीदवा दिया और देशी बनी हुई बारूद एक दुकान से दिला दी । मैं कुछ जानता तो था नहीं, एकदम दो सेर बारूद खरीदी, जो घर पर सन्दूक में रखे-रखे बरसात में सील खाकर पानी पानी हो गई । मुझे बड़ा दुःख हुआ । दूसरी बार जब मैं क्रान्तिकारी समिति का सदस्य हो चुका था, तब दूसरे सहयोगियों की सम्मति से दो सौ रुपये लेकर हथियार खरीदने गया । इस बार मैंने बहुत प्रयत्‍न किया तो एक कबाड़ी की-सी दुकान पर कुछ तलवारें, खंजर, कटार तथा दो-चार टोपीदार बन्दूकें रखी देखीं । दाम पूछे । इसी प्रकार वार्तालाप करके पूछा कि क्या आप कारतूसी हथियार नहीं बेचते या और कहीं नहीं बिकते? तब उसने सब विवरण सुनाया । उस समय उसके पास टोपीदार एक नली के छोटे-छोटे दो पिस्तौल थे । मैंने वे दोनों खरीद लिये । एक कटार भी खरीदी । उसने वादा किया कि यदि आप फिर आयें तो कुछ कारतूसी हथियार जुटाने का प्रयत्न किया जाये । लालच बुरी बला है, इस कहावत के अनुसार तथा इसलिए भी कि हम लोगों को कोई दूसरा ऐसा जरिया भी न था, जहाँ से हथियार मिल सकते, मैं कुछ दिनों बाद फिर गया । इस समय उसी ने एक बड़ा सुन्दर कारतूसी रिवाल्वर दिया । कुछ पुराने कारतूस दिये । रिवाल्वर था तो पुराना, किन्तु बड़ा ही उत्तम था । दाम उसके नये के बराबर देने पड़े । अब उसे विश्‍वास हो गया कि यह हथियारों के खरीदार हैं । उसने प्राणपण से चेष्‍टा की और कई रिवाल्वर तथा दो-तीन राइफलें जुटाई । उसे भी अच्छा लाभ हो जाता था । प्रत्येक वस्तु पर वह बीस-बीस रुपये मुनाफा ले लेता था । बाज-बाज चीज पर दूना नफा खा लेता था । इसके बाद हमारी संस्था के दो-तीन सदस्य मिलकर गये । दुकानदार ने भी हमारी उत्कट इच्छा को देखकर इधर-उधर से पुराने हथियारों को खरीद करके उनकी मरम्मत की, और नया-सा करके हमारे हाथ बेचना शुरू किया । खूब ठगा । हम लोग कुछ जानते नहीं थे । इस प्रकार अभ्यास करने से कुछ नया पुराना समझने लगे । एक दूसरे सिक्लीगर से भेंट हुई । वह स्वयं कुछ नहीं जानता था, किन्तु उसने वचन दिया कि वह कुछ रईसों से हमारी भेंट करा देगा । उसने एक रईस से मुलाकात कराई जिसके पास एक रिवाल्वर था । रिवाल्वर खरीदने की हमने इच्छा प्रकट की । उस महाशय ने उस रिवाल्वर के डेढ़ सौ रुपये मांगे । रिवाल्वर नया था । बड़ा कहने सुनने पर सौ कारतूस उन्होंने दिये और 155 रुपये लिये । 150 रुपये उन्होंने स्वयं लिए, 5 रुपये कमीशन के तौर पर देने पड़े । रिवाल्वर चमकता हुआ नया था, समझे अधिक दामों का होगा । खरीद लिया । विचार हुआ कि इस प्रकार ठगे जाने से काम न चलेगा । किसी प्रकार कुछ जानने का प्रयत्न किया जाए । बड़ी कोशिश के बाद कलकत्ता, बम्बई से बन्दूक-विक्रेताओं की लिस्टें मांगकर देखीं, देखकर आंखें खुल गईं । जितने रिवाल्वर या बन्दूकें हमने खरीदी थीं, एक को छोड़, सबके दुगने दाम दिये थे । 155 रुपये के रिवाल्वर के दाम केवल 30 रुपये ही थे और 10 रुपये के सौ कारतूस इस प्रकार कुल सामान 40 रुपये का था, जिसके बदले 155 रुपये देने पड़े । बड़ा खेद हुआ । करें तो क्या करें ! और कोई दूसरा जरिया भी तो न था ।

कुछ समय पश्चात् कारखानों की लिस्टें लेकर तीन-चार सदस्य मिलकर गये । खूब जांच-खोज की । किसी प्रकार रियासत की पुलिस को पता चल गया । एक खुफिया पुलिस वाला मुझे मिला, उसने कई हथियार दिलाने का वायदा किया, और वह पुलिस इंस्पेक्टर के घर ले गया । दैवात् उस समय पुलिस इंस्पेक्टर घर मौजूद न थे । उनके द्वार पर एक पुलिस का सिपाही था, जिसे मैं भली-भाँति जानता था । मुहल्ले में खुफिया पुलिस वालों की आँख बचाकर पूछा कि अमुक घर किसका है ? मालूम हुआ पुलिस इंस्पेक्टर का ! मैं जैसे-जैसे निकल आया और अति शीघ्र अपने ठहराने का स्थान बदला । उस समय हम लोगों के पास दो राइफलें, चार रिवाल्वर तथा दो पिस्तौल खरीदे हुए मौजूद थे । किसी प्रकार उस खुफिया पुलिस वाले को एक कारीगर से जहाँ पर कि हम लोग अपने हथियारों की मरम्मत कराते थे, मालूम हुआ कि हम में से एक व्यक्‍ति उसी दिन जाने वाला था, उसने चारों ओर स्टेशन पर तार दिलवाए । रेलगाड़ियों की तलाशी ली गई । पर पुलिस की असावधानी के कारण हम बाल-बाल बच गए ।

रुपये की चपत बुरी होती है। एक पुलिस सुपरिटेण्डेंट के पास एक राइफल थी । मालूम हुआ वह बेचते हैं । हम लोग पहुँचे । अपने आप को रियासत का रहने वाला बतलाया । उन्होंने निश्चय करने के लिए बहुत से प्रश्न पूछे, क्योंकि हम लोग लड़के तो थे ही । पुलिस सुपरिटेण्डेंट पेंशनयाफ्ता, जाति के मुसलमान थे । हमारी बातों पर उन्हें पूर्ण विश्‍वास न हुआ । कहा कि अपने थानेदार से लिखा लाओ कि वह तुम्हें जानता है । मैं गया । जिस स्थान का रहने वाला बताया था, वहाँ के थानेदार का नाम मालूम किया, और एक-दो जमींदारों के नाम मालूम करके एक पत्र लिखा कि मैं उस स्थान के रहने वाले अमुक जमींदार का पुत्र हूँ और वे लोग मुझे भली-भाँति जानते हैं । उसी पत्र पर जमींदारों के हिन्दी में और पुलिस दारोगा के अंग्रेजी में हस्ताक्षर बना, पत्र ले जा कर पुलिस कप्‍तान साहब को दिया । बड़े गौर से देखने के बाद वह बोले, "मैं थानेदार से दर्याफ्त कर लूं । तुम्हें भी थाने चलकर इत्तला देनी होगी कि राइफल खरीद रहे हैं ।" हम लोगों ने कहा कि हमने आपके इत्मीनान के लिए इतनी मुसीबत झेली, दस-बारह रुपये खर्च किए, अगर अब भी इत्मीनान न हो तो मजबूरी है । हम पुलिस में न जायेंगे, राइफल के दाम लिस्ट में 150 रुपये लिखे थे, वह 250 रुपये मांगते थे, साथ में दो सौ कारतूस भी दे रहे थे । कारतूस भरने का सामान भी देते थे, जो लगभग 50 रुपये का होता है, इस प्रकार पुरानी राइफल के नई के समान दाम माँगते थे । हम लोग भी 250 रुपये देते थे । पुलिस कप्‍तान ने भी विचारा कि पूरे दाम मिल रहे हैं । स्वयं वृद्ध हो चुके थे । कोई पुत्र भी न था । अतएव 250 रुपये लेकर राइफल दे दी । पुलिस में कुछ पूछने न गए । उन्हीं दिनों राज्य के एक उच्च पदाधिकारी के नौकर से मिलकर उनके यहाँ से रिवाल्वर चोरी कराया । जिसके दाम लिस्ट में 75 रुपये थे, उसे 100 रुपये में खरीदा । एक माउजर पिस्तौल भी चोरी कराया, जिसके दाम लिस्ट में उस समय 200 रुपये थे । हमें माउजर पिस्तौल की प्राप्‍ति की बड़ी उत्कट इच्छा थी । बड़े भारी प्रयत्‍न के बाद यह माउजर पिस्तौल मिला, जिसका मूल्य 300 रुपये देना पड़ा । कारतूस एक भी न मिला । हमारे पुराने मित्र कबाड़ी महोदय के पास माउजर पिस्तौल के पचास कारतूस पड़े थे । उन्होंने बड़ा काम दिया । हम में से किसी ने भी पहले माउजर पिस्तौल को देखा भी न था । कुछ न समझ सके कि कैसे प्रयोग किया जाता है । बड़े कठिन परिश्रम से उसका प्रयोग समझ में आया ।

हमने तीन राइफलें, एक बारह बोर की दोनाली कारतूस बन्दूक, दो टोपीदार बन्दूकें, तीन टोपीदार रिवाल्वर और पाँच कारतूसी रिवाल्वर खरीदे । प्रत्येक हथियार के साथ पचास या सौ कारतूस भी ले लिए । इन सब में लगभग चार हजार रुपये व्यय हुए । कुछ कटार तथा तलवारें इत्यादि भी खरीदी थीं ।

मैनपुरी षड्यन्त्र

इधर तो हम लोग अपने कार्य में व्यस्थ थे, उधर मैनपुरी के एक सदस्य पर लीडरी का भूत सवार हुआ । उन्होंने अपना पृथक संगठन किया । कुछ अस्‍त्र-शस्‍त्र भी एकत्रित किए । धन की कमी की पूर्ति के लिये एक सदस्य ने कहा कि अपने किसी कुटुम्बी के यहाँ डाका डलवाओ, उस सदस्य ने कोई उत्तर न दिया । उसे आज्ञापत्र दिया गया और मार देने की धमकी दी गई । वह पुलिस के पास गया । मामला खुला । मैनपुरी में धरपकड़ शुरू हो गई । हम लोगों को भी समाचार मिला । दिल्ली में कांग्रेस होने वाली थी । विचार किया गया कि 'अमेरिका को स्वाधीनता कैसे मिली' नामक पुस्तक जो यू. पी. सरकार ने जब्त कर ली थी, कांग्रेस के अवसर पर बेची जावे । कांग्रेस के उत्सव पर मैं शाहजहाँपुर की सेवा समिति के साथ अपनी एम्बुलेन्स की टोली लेकर गया । एम्बुलेन्स वालों को प्रत्येक स्थान पर बिना रोक जाने की आज्ञा थी । कांग्रेस-पंडाल के बाहर खुले रूप से नवयुवक यह कर कर पुस्तक बेच रहे थे - "यू.पी. से जब्त किताब अमेरिका को स्वाधीनता कैसे मिली" । खुफिया पुलिस वालों ने कांग्रेस का कैम्प घेर लिया । सामने ही आर्यसमाज का कैम्प था, वहाँ पर पुस्तक विक्रेताओं की पुलिस ने तलाशी लेना आरम्भ कर दिया । मैंने कांग्रेस कैम्प पर अपने स्वयंसेवक इसलिए छोड़ दिये कि वे बिना स्वागतकारिणी समिति के मन्त्री या प्रधान की आज्ञा पाए किसी पुलिस वाले को कैम्प में न घुसने दें । आर्यसमाज कैम्प में गया । सब पुस्तकें एक टैंट में जमा थीं । मैंने अपने ओवरकोट में सब पुस्तकें लपेटीं, जो लगभग दो सौ होंगी, और उसे कन्धे पर डालकर पुलिस वालों के सामने से निकला । मैं वर्दी पहने था, टोप लगाए हुये था । एम्बुलेन्स का बड़ा सा लाल बिल्ला मेरे हाथ पर लगा हुआ था, किसी ने कोई सन्देह न किया और पुस्तकें बच गईं ।


दिल्ली कांग्रेस से लौटकर शाहजहाँपुर आये । वहां भी पकड़-धकड़ शुरू हुई । हम लोग वहाँ से चलकर दूसरे शहर के एक मकान में ठहरे हुये थे । रात्रि के समय मकान मालिक ने बाहर से मकान में ताला डाल दिया । ग्यारह बजे के लगभग हमारा एक साथी बाहर से आया । उसने बाहर से ताला पड़ा देख पुकारा । हम लोगों को भी सन्देह हुआ, सब के सब दीवार पर से उतर कर मकान छोड़ कर चल दिए । अंधेरी रात थी । थोड़ी दूर गए थे कि हठात् की आवाज आई - 'खड़े हो जाओ, कौन जाता है ?' हम लोग सात-आठ आदमी थे, समझे कि घिर गए । कदम उठाना ही चाहते थे कि फिर आवाज आई - 'खड़े हो जाओ, नहीं तो गोली मारते हैं' । हम लोग खड़े हो गए । थोड़ी देर में एक पुलिस का दारोगा बन्दूक हमारी तरफ किए हुए, रिवाल्वर कन्धे पर लटकाए, कई सिपाहियों को लिए हुए आ पहुँचे । पूछा - 'कौन हो ? कहाँ जाते हो ?' हम लोगों ने कहा - विद्यार्थी हैं, स्टेशन जा रहे हैं । 'कहां जाओगे'? 'लखनऊ' । उस समय रात के दो बजे थे । लखनऊ की गाड़ी पाँच बजे जाती थी । दारोगा जी को शक हुआ । लालटेन आई, हम लोगों के चेहरे रोशनी में देखकर उनका शक जाता रहा । कहने लगे - 'रात के समय लालटेन लेकर चला कीजिए । गलती हुई, माफ़ कीजिये' । हम लोग भी सलाम झाड़कर चलते बने । एक बाग में फूँस की मड़ैया पड़ी थी । उस में जा बैठे । पानी बरसने लगा । मूसलाधार पानी गिरा । सब कपड़े भीग गए । जमीन पर भी पानी भर गया । जनवरी का महीना था, खूब जाड़ा पड़ रहा था । रात भर भीगते और ठिठुरते रहे । बड़ा कष्‍ट हुआ । प्रातःकाल धर्मशाला में जाकर कपड़े सुखाये । दूसरे दिन शाहजहाँपुर आकर, बन्दूकें जमीन में गाड़कर प्रयाग पहुंचे ।

क्रमशः
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