सत्तावन के स्वातंत्र समर की विस्मृत गाथा - संबलपुर के राजकुमार सुरेन्द्र साईँ


1857 की क्रान्ति ज्वाला ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के सारे कसबल निकाल दिए ! समूचे देश ने अंग्रेजों से दो दो हाथ किये ! देश का कोई हिस्सा इस लड़ाई में अछूता नहीं रहा ! किन्तु उडीसा में संबलपुर के राजकुमार सुरेन्द्र साईँ की बलिदानी गाथा अंग्रेजी क्रूरता और विश्वासघात की घिनोनी कहानी है !
23 जनवरी 1809 को बोरगाँव में संबलपुर के चौहान राजवंश में सुरेन्द्र का जन्म हुआ ! पिता धर्मसिंह अत्यंत लोकप्रिय शासक थे ! अपनी हड़प नीति के अंतर्गत सन 1840 में अंग्रेजों ने इस परिवार पर अभियोग लगाया कि इन्होने रामपुर के तालुकेदार की हत्या की है ! चाचा बलराम सिंह, सुरेन्द्र और उनके छोटे भाई उदान्त को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर मुक़दमा चलाया और तीनों को कारागार में डाल दिया !
य लोग दस वर्ष तक जेल में रहे ! पर तभी देश में विप्लव ज्वाला दहकाता धधकाता 1857 का आग्नेय झंझावात आया ! गुलामी से निजात पाने के लिए देश एकजुट होकर उठ खड़ा हुआ ! चारों ओर अंग्रेजों का वध शुरू हो गया ! एक के बाद एक अंग्रेज छावनी में क्रान्ति का शंख संघोष गूंजने लगा ! ईस्ट इण्डिया कम्पनी की लूट खसोट, ईसाई करण, अन्याय अत्याचार के खिलाफ भारतीय सैनिक, राजे रजबाड़े, किसान दुकानदार, जनता का हर वर्ग इस क्रान्ति यज्ञ में आहुति देने को उतावला नजर आने लगा !
ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने जिन भारतीय सैनिकों को अपना गुलाम समझ रखा था, वे ही क्रांति की मशाल थामें अंग्रेजों को गाजर मूली की तरह काटते नजर आये ! ऐसी ही एक टुकड़ी हजारीबाग की उस जेल तक भी जा पहुंची जहाँ राजकुमार सुरेन्द्र अपने भाई और चाचा के साथ बंदी थे ! जेल तोड़कर उन्हें मुक्त कराया गया और उसके बाद ये तीनों भी क्रांति समर में सहभागी हो गए !
लेकिन जल्द ही अंग्रेजों ने अपनी शक्ति दोबारा संगठित कर ली और फिर शुरू हुआ दमन चक्र ! सुरेन्द्र साईँ ने भूमिगत होकर संगठन खड़ा करना प्रारम्भ किया और सक्षम होने के बाद अंग्रेजों के विरुद्ध गुरिल्ला छापामार युद्ध शुरू कर दिया ! सुरेन्द्र का संग्राम पूरे आठ माह तक चला ! किन्तु जनवरी 1858 में दुदुपाली नामक स्थान पर अंग्रजों की सेना ने इनकी छोटी सी झुझारू टुकड़ी को घेर लिया ! घमासान युद्ध हुआ जिसमें सुरेन्द्र क एक भाई छबीलो और 58 अन्य साथी बलिदान हो गए !
सुरेन्द्र किसी प्रकार बच निकले तथा चार वर्ष तक भूमिगत रहकर गुरिल्ला युद्ध करते रहे, अंग्रेजों को छकाते रहे ! अंग्रेज बहुत प्रयत्न करके भी उनका पता नहीं लगा सके ! उन्हीं दिनों एक नया अंग्रेज कमिश्नर आया – मेजर इम्पे ! उसने मुनादी करवाई कि अगर सुरेन्द्र और उनके साथी आत्म समर्पण कर देंगे तो उनके विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं की जायेगी ! इस झांसे में आकर सुरेन्द्र ने अपने 40 साथियों के साथ 1862 के मई माह में आत्म समर्पण कर दिया !
और उसके बाद शुरू हुई अंग्रेज कूटनीति ! मेजर इम्पे ने तो इनके खिलाफ कुछ नहीं किया, किन्तु जल्द ही उसके स्थान पर दूसरा कमिश्नर आ गया, जिसने वचन भंग कर सुरेन्द्र के साथ साथ उनके भाईयों, उदान्त, मेदिनी, ध्रुव साईँ के साथ तीन अन्य साथियों को भी बंदी बनाकर नागपुर के असीरगढ़ किले में पहुंचा दिया ! ये वीर सपूत 20 वर्ष तक जेल की यातनाये सहते रहे ! उस नारकीय जीवन में संबलपुर के उस राजकुमार सुरेन्द्र की आँखों की ज्योति चली गई ! उसी अवस्था में वह अंधा विप्लवी 28 फरवरी 1884 को जेल ही नहीं तो इस संसार की कैद से भी मुक्त हो अनंत में विलीन हो गया ! उनके दोनों भाई उदान्त और मेदिनी भी कारावास में ही स्वर्ग सिधारे !

फांसी, कालापानी, आजीवन कारावास और फिर अज्ञात अदृष्ट मरण – यही थी क्रांतिवीरों की अंतिम परिणिति ! इनके बलिदानों से मिली है आजादी की हवा जो कुटिल राजनीति में दिन प्रतिदिन पुनः विषैली होती जा रही है !
एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें