कुतुबुद्दीन ऐबक, जयचंद और बनारस के वो बलिदान

जब प्रथ्विराज चौहान का तेजोमयी पुण्य प्रताप माँ भारती के लिए अपना बलिदान देकर माँ के श्री चरणों में विलीन हो गया और जब ‘जयचंदी-छल प्रपंचों’ के कारण कई दुर्बलताओं ने माँ के आँगन में विदेशी आक्रान्ता को भीतर तक घुसने का अवसर उपलब्ध करा दिया तो मोहम्मद गौरी की मृत्यु के पश्चात उसके द्वारा भारत के कुछ विजित क्षेत्र का स्वतंत्र शासक गौरी का एक गुलाम बन बैठा, जिसका नाम था- कुतुबुद्दीन ऐबक !

‘गुलाम’ ने बनाया गुलाम ?

कई इतिहासकारों ने इस बात के लिए कुतुबुद्दीन का विशेष गुणगान किया है कि वह एक गुलाम होकर भी भारत को ‘गुलाम’ बनाने में सफल रहा ! इस बात का अर्थ कुछ यूं प्रकट किया जाता है कि भारत तो ‘गुलामों का भी गुलाम’ रहा है ! ऐसी मान्यता या अवधारणा को आरोपित करने के पीछे का मंतव्य केवल हमें अपने ही विषय में हीन भावना से भर देना है !

‘तबकात’ के अनुसार –‘वह (कुतुबुद्दीन) एक बहादुर और उदार राजा था ! पूर्व से पश्चिम तक उसके समान कोई राजा नहीं था ! जब भी सर्वशक्तिमान खुदा अपने लोगों के सामने महानता और भव्यता का नमूना पेश करना चाहते है, वे वीरता और उदारता के गुण अपने किसी एक गुलाम में भर देते है ! अतः यह शासक दिलेर और दरियादिल था !’

कुतुबुद्दीन ऐबक अपने प्रारंभिक जीवन में कई हाथों में बिका ! वह कई स्वामियों का सेवक रहा ! अंत में जब वह गौरी का गुलाम बनकर उसकी सेवा में पहुंचा तो उसने अपने स्वामी के भारत विजय अभियान म और यहाँ मूर्तिपूजक हिन्दुओं के विनाश कराने में विशेष रूचि दिखाई ! जिसका स्वामी ही घोषित क्रूर और निर्दयी शासक रहा हो, उसके सेवक से आप दयालुता या दरियादिली की अपेक्षा कैसे कर सकते है ? यदि वह स्वयं क्रूर और निर्दयी न होता, या हिन्दू विनाशक न होता तो यह सत्य है कि मोहम्मद गौरी जैसे शासक का वह कभी भी प्रिय न रहा होता !

आतंक और अत्याचार का पर्याय 

‘तबकात’ के उपरोक्त कीर्तिमान को असत्य सिद्ध करने के लिए हसन निजामी जैसे मुस्लिम लेखक द्वारा लिखित इतिहास ताजुलमा-आसीर (पृष्ठ २२९ इसलिए एंड डॉसन) का यह उदहारण ही पर्याप्त है ! वह लिखता है – ‘कुतुबुद्दीन ऐबक इस्लाम और मुसलमान का स्तंभ है, काफिरों का विध्वंसक है !

अपनी स्वतंत्रता के लिए हिन्दू का सतत संघर्ष 

हसन निजामी के इसी कथन पर थोडा और विचार किया जाना चाहिए कि इतनी क्रूरताओं के मध्य भी हिन्दू अपने देश धर्म की रक्षा के लिए तथा अपनी स्वतंत्रता के लिए सतत संघर्षशील रहा ! उसने जहन्नुम की आग की परवाह नहीं की और धडाधड कटते सिरों को देखकर कभी आह नहीं की !उसकी चाह देश-धर्म की बलिवेदी पर शीश चढ़ाना थी और उसकी राह माँ के लिए स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त करना था ! उसे परवाह थी तो माँ की स्वतंत्रता की ! आह निकली तो बलिदान होते समय केवल इसलिए कि अभी में माँ की सेवा और क्योँ नहीं कर सका ? उत्कृष्ट देशभक्ति के इस भाव ने हिन्दू को उस आवारा बादल का सा रूप दे दिया था जो आकाश में ऊपर घूमता रहता है, पर जब उसे अपने शत्रु का नाश या संहार करना होता है तो उसपर बिजली भी गिराता है और फटकर उसे बहा ले जाने का कारण भी बनता है ! देशभक्ति के इस बादल ने कुतुबुद्दीन को पहले दिन से ही चुनौती देने का कार्य किया !

तुर्क साम्राज्य का संस्थापक 

कुतुबुद्दीन ऐबक भारत में तुर्क सल्तनत का संस्थापक माना जाता है ! उसने भारत में इस्लामिक सांप्रदायिक राज्य की स्थापना की ! वास्तव में इसी इस्लामिक साम्प्रदायिक राज्य की स्थापनार्थ के लिए ही पिछले पांच सौ वर्षों से विभिन्न मुस्लिम आक्रान्ता भारत पर आक्रमण करते आ रहे थे, जिनका सफलता पूर्वक प्रतिकार भारत के स्वतंत्रता प्रेमी राजाओं और उनकी प्रजा के द्वारा किया जा रहा था ! इस प्रतिकार के विषय में रामधारी सिंह दिनकर अपनी पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय’ के पृष्ठ २३७ पर लिखते है –‘इस्लाम केवल नया मत नहीं था ! यह हिंदुत्व का ठीक विरोधी मत था ! हिंदुत्व की शिक्षा थी कि किसी भी धर्म का अनादर मत करो ! मुस्लिम मानते थे कि जो धर्म मूर्ती पूजा में विश्वास रखता है, उसे विनष्ट कर देना धर्म का सबसे बड़ा काम है !” इस मौलिक मतभेद के कारण इस्लाम और हिन्दू में संघर्ष होना निश्चित था !

जयचंद से युद्ध की तैयारी 

कुतुबुद्दीन ऐबक ने जब भारत में प्रवेश किया तो उसने भी इसी परंपरा का निर्वाह किया और भारतीय धर्म का सर्वनाश कर इस्लाम का परचम फहराना अपना उद्धेश्य घोषित किया ! अपने इस उद्धेश्य की प्राप्ति में उसे जयचंद बाधा दिखाई दिया, तो उसके नाश के लिए उसने गोरी के आदेशानुसार योजना बनानी आरम्भ की ! गोरी ने उसकी योजना से सहमत होकर एक सेना जयचंद के नाश के लिए भेजी ! कन्नोज का शासक जयचंद उस समय कन्नोज से लेकर वाराणसी तक शासन कर रहा था ! वाराणसी के पवित्र भूमि के रजकणों की देश और धर्म के प्रति पूर्णतः निष्ठावान धूलि भी उस पापी जयचंद का ह्रदय परिवर्तन नहीं कर पायी थी और वह देश के प्रति कृतघ्नता कर गया था ! माँ भारती का श्राप उसे लगा और उसे अपने किये गए पापकर्म का दंड देने के लिए क्रूर काल ने अपने पंजो में कसना आरम्भ कर दिया ! 

जयचंद की सुखानुभूति और युद्ध में समाप्ति 

जयचंद प्रथ्विराज चौहान को समाप्त करने के पश्चात ये सुखानुभूति कर रहा था कि संभवतः मुस्लिम आक्रान्ता उसके साथ तो सदा ही दयालुता का व्यवहार करेंगे ! जब उसने देखा की कुतुबुद्दीन ऐबक जैसे गुलाम और उसके स्वामी मोहम्मद गौरी ने उसके विरुद्ध उसके विनाश की योजना बना ली है तो उस योजना के तहत कुतुबुद्दीन ऐबक उसके राज्य की और बढ़ता आ रहा है तो वह पूर्णतः अचम्भि व आश्चर्यचकित रह गया ! कुतुबुद्दीन ऐबक से युद्ध करना उसकी विवशता थी उसकी सेना व् प्रजा भी उससे यही अपेक्षा करती थी कि उनका राजा भागे नहीं अपितु शत्रु से युद्ध करे ! 

फलस्वरूप कुतुबुद्दीन ऐबक और जयचंद के मध्य भयंकर युद्ध हुआ ! युद्ध के समय किसी मुस्लिम सैनिक का विषयुक्त बाण जयचंद को लगा और वह अपने हाथी पर से नीचे आ गिरा ! नीचे गिरते ही उसका पापक्षय हो गया और शत्रु की जय हो गयी !

श्री पी.एन. ओक अपनी पुस्तक ‘भारत में मुस्लिम सुलतान’ के पृष्ठ १३२ पर किसी मुस्लिम लेखक को उद्धत करते हुए लिखते है- ‘भाले की नोक पर उसके (जयचंद) सर को उठाकर सेनापति के पास लाया गया, उसके भीतर को घृणा की धूल में मिला दिया गया ! तलवार के पानी से बुतपरस्ती के पाप को उस जमीन को साफ़ किया गया और हिन्द देश को अधर्म और अंधविश्वास से मुक्त किया गया !’

बढ़ गयी काशी की चिंताएं 

इस प्रकार जयचंद को अपने किये का फल मिल गया ! पर उसकी मृत्यु ने देश की धार्मिक राजधानी के नाम से विख्यात रही काशी की चिंताएं बढ़ा दी ! हर देशभक्त भारतीय अब इस नगरी की सुरक्षा को लेकर चिंतित था ! मुस्लिम सेना ने कुतुबुद्दीन ऐबक के नेतृत्व में अब इस धार्मिक नगरी की और प्रस्थान कर दिया ! जहाँ, पवित्र प्यारा भगवा ध्वज फहरा रहा था और अपने यश एवं कीर्ति की गाथा गा रहा था ! उसे नहीं पता था कि नियति का दुष्चक्र कितनी तेजी से घूम रहा है और अगले क्षण क्या होने वाला है ?

पलक झपकते ही विदेशी आक्रान्ता ऐबक का दुष्ट दल इस ऐतिहासिक पावन धार्मिक नगरी में प्रवेश कर गया ! व्यापक जन हानि का अनुमान आप इसी बात से लगा सकते है कि जहाँ एक हजार हिन्दू मंदिर तोड़े गए हो, वहां कितने लोगों का संहार करना पड़ा होगा ? धर्म पर अधर्म का, आस्था पर अनास्था का, श्रधा पर अश्रधा का और नैतिकता पर अनैतिकता का आक्रमण था यह ! जिसे कुछ इतिहासकारों ने एक सहज सी बात कहकर उपेक्षित किया है ! वाराणसी की जनता ने सत्याग्रही रुपी हथियार से युद्ध किया और अपने मंदिरों की सुरक्षार्थ बड़ी संख्या में बलिदान दिए ! आज उन सत्याग्रहियों के मौन बलिदान निश्चय ही स्वतंत्र भारत के लोगों से अपना सम्मान चाहते है !


स्त्रोत – “भारत के १२३५ वर्षीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास – भाग 2”

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