कुछ बातें जिन्हें एक जैन को कभी नहीं कहना चाहिए - 1



एक जैन होने के नाते 'जागृत' रहना ! प्रत्येक विचार, शब्द और कार्य के प्रति सतर्क और जागरूक रहना, जहाँ जीवन में सौम्यता लाता है, वहीं हमारी आध्यात्मिक प्रगति भी सुनिश्चित करता है; हमें हमारे वास्तविक स्वभाव के नजदीक ले जाता है।

आइये इस आलेख में हम अपना ध्यान विचारपूर्ण संवाद पर केन्द्रित करें । एक जैन सदा ईमानदारी से बोलता है, (झूठ नहीं, असत्य नहीं, अफवाह नहीं, आधी अधूरी जानकारी नहीं या अतिशयोक्ति नहीं), वह दयालु होता है (दूसरों के लिए कम से कम नुकसानदेह), सुखद होता है (कठोर शब्द या लहजा नहीं), छल प्रपंच से दूर होता है, और इस सबसे बढ़कर वह हमेशा विचारशील होता है । जैन न केवल स्वयं विचारपूर्वक बोलने वाला होता है, बल्कि वह दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित और प्रोत्साहित करता है ।

इसके बाद भी कुछ बातें असावधानी से हम बार बार दोहराते हैं, बिना यह विचार किये कि वे अप्रासंगिक हैं , असत्य हैं या फिर तथ्यपूर्ण हैं ।

मेरे विचार से उनमें से कुछ इस प्रकार है, हो सकता है आप भी इनमें कुछ और जोड़ दें -

1. भगवान तुम पर कृपा करें (GOD BLESS YOU)

जैन जन्मतः मानते हैं कि सृष्टि का कोई रचयिता, पालक या विनाशक भगवान् नहीं है । इसके स्थान पर वह देवत्व में विश्वास करते हैं; कोई भी आत्मा स्वयं के प्रयास से सर्वज्ञ हो 'सिद्ध' बन सकती है - परम आत्मा।

जिन्होंने मुक्ति की ऐसी अवस्था प्राप्त कर ली है, ऐसी धीर गंभीर और सर्वज्ञ आत्मायें परम आनंद में निवास करती हैं । उन्हें न किसी से अधिक लगाव होता और न किसी से घृणा, इसलिए वे न किसी की निंदा करती हैं और न ही किसी को आशीर्वाद देती है!

जरा विचार कीजिए कि जब कोई 'ईश्वर' ही नहीं है तो god bless you कहने का क्या अर्थ ? 

2. मैंने दूसरों के लिए इतना कुछ किया, लेकिन मेरे लिए कोई कुछ भी नहीं करता !

कर्म सिद्धांत की गहरी समझ रखने वाले जैन जानते हैं कि हम सभी आत्मायें हैं, अन्य 5 तत्वों (पदार्थ, गति का माध्यम है, विश्राम का माध्यम, स्थान और समय) के समान इस ब्रह्मांड में स्वतंत्र अस्तित्व संपन्न आत्मायें । कोई भी दूसरों के लिए, दूसरों को या दूसरों के कारण कुछ नहीं कर सकता । फिर कोई हमारे लिए अनुकूल या प्रतिकूल, क्या करेगा ? वास्तविकता यह है कि जो होता है, वह है हमारा कर्म फल । वे तो केवल निमित्त हैं, जो कर्मफल को हम तक पहुंचा रहे हैं । जब वे 'अच्छे कर्म के दूत हैं, जैन उनके प्रति आभार व्यक्त करता है और जब वे' अच्छा फल नहीं देते, तब भी जैन उनके आभारी है! क्योंकि लोगों को प्रतिकूल कर्म का फल भी तो भोगना ही है, इसे समझकर अपने लंबित कर्मों के स्टॉक को कम करने के लिए वह उसे सहन करता है । निमित्त तो केवल बहाना है, अतः आभार प्राप्त करने का अधिकारी भी, क्योंकि उसने तो हमारी मदद ही की है।

इसका अर्थ यह नहीं है कि हमें किसी की मदद नहीं करना चाहिए, 'वयावाच' या सेवा प्रेम, करुणा और सार्वभौमिक मित्रता तो आत्मा का मूल स्वभाव है और परस्पर निर्भरता हमारे सांसारिक अस्तित्व का आधार है। सेवा अगर किसी अपेक्षा से की जाए तो वह सेवा नहीं होती, क्या वह कोई निवेश है, जिसका हमें प्रतिफल चाहिए ? यह तो एक व्यापार हुआ ! अपेक्षा से मोह पैदा होता है और उससे पसंदगी और नापसंदगी (राग और द्वेष), जिसका परिणाम होता है क्रोध, लोभ, छल और गर्व की भावनाएं (कसाय), जो हमें कर्म बंधन में बांधता है। इस अवधारणा को ठीक से न समझने के कारण ही हमारा जन्म और पुनर्जन्म होता है ।

जैन प्यार भी करता है और सेवा भी, क्योंकि यह उसका स्वभाव है और वह जानता है कि यह जीवन एक दूसरे से जुडा हुआ है, लेकिन वह कभी दूसरों से अपेक्षा नहीं पालता ।

3. योलो - आप केवल एक बार रहते हैं

केवल उस आत्मा को 'एकावतारी' कहा जा सकता है, जिसके अपने पिछले जन्म में में किये गए कर्मों की छाया न्यूनतम हो । शेष हम सब सांसारिक आत्मायें हैं, जो सुख दुःख में डूबे हुए हैं, अपनी अनंत इच्छाओं को पूर्ण करने में तल्लीन हैं और अज्ञानता, आलस्य और प्रमाद में भूल चुके हैं कि हमें अपना लंबा आध्यात्मिक मार्ग तय करना है।

मोह, ममता, इच्छा, दुख और मृत्यु के बारे में की जा रही इस चर्चा का अर्थ यह नहीं है कि जीवन में केवल निराशा या बर्बादी ही है।

वस्तुतः यह चर्चा जैन दर्शन के आधारभूत सिद्धांत को और अधिक स्पष्टता से समझने के लिए है ! जीवन "ला विदा लोका" अर्थात यह वर्तमान क्षण ही वह क्षण है, जो हमारे पास है, हम इस तथ्य को अच्छी तरह से समझ लें ।

यहाँ और अभी जी यह जीवन है, वही हम में से प्रत्येक के लिए उपलब्ध है। अतः हमारी मूलभूत दयालु और प्यार की प्रकृति के अनुरूप, जो भी कुछ हम सुविचारित ढंग से और आनंद पूर्वक कर सकते हैं, अविलम्ब कर लें ! भूखों को भोजन, बुजुर्गों की देखभाल, जरूरतमंदों को दान और उनकी सेवा, इस सबके लिए यही क्षण सबसे उपयुक्त है ! अपने अंतस में डूब जाएँ और सच्चे अर्थों में खुद को पहचानना शुरू करें ।

4. शांति में विश्राम (rest in peace)

किसी आत्मा की सांसारिक मृत्यु के समय हम जल्दी में इच्छा व्यक्त कर देते हैं कि वह आत्मा शान्ति में विश्राम करे (may his/her soul rest in peace), श्रद्धांजलि ! लेकिन हम लोग तो कर्म बंधन में बंधे हुए हैं, जन्म के बाद पुनर्जन्म और उसके बाद पुनः जन्म होगा। जीवन तो जारी रहेगा, इच्छाओं का वसंत आयेगा, क्रियाकलाप होंगे, कार्यों की पूर्ति होगी, क्रोध, लोभ, छल और गर्व का पीछा किया जाएगा और उनके परिणाम स्वरुप मोह भी उत्पन्न होगा, आराम कहाँ मिलेगा ?

चिर विश्रांति तो तभी मिलेगी, जब संसार में आवागमन से मुक्त होंगे । अतः आशय यह होना चाहिए कि आत्मा स्थायी रूप से सिद्ध होकर चिर शांति में विश्राम करे । 

हम जैसी अज्ञानी आत्माओं के लिए धैर्य की वह स्थिति एक दूर का सपना है और उसे प्राप्त करने के लिए साधना व आध्यात्मिक प्रयासों की जरूरत है; आराम करने में तो समय बर्बाद ही होगा?

अतः ‘rest in peace’ के स्थान पर ‘be in peace’ शांत बनो कहना क्या अधिक उचित नहीं होगा ? 

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