राष्ट्र और राष्ट्रीयता - भारतीय दृष्टिकोण - आचार्य नागेष ठाकुर, राष्ट्रीय अध्यक्ष, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद


यह अत्यन्त प्रसन्नता का विषय हैं कि आजादी के सात दशक बाद ही क्यों न हो इस देश के बुद्धिजीवियों को देश की राष्ट्रीयता की पहचान की आवश्यकता महसूस हेा रही हैं।

वास्तव में देश की स्वतन्त्रता से राष्ट्रीयता का कोई सीधा सम्बन्ध नहीं हैं। राष्ट्रीयता तो समाज की स्थाई सामूहिक चेतना हैं जो परतन्त्रता की स्थिति में उसे एकजुट होकर जीवित रहने का मनोबल देती हैं तथा साथ ही स्वतन्त्रता हेतु व्याकुलता उत्पन्न कर संघर्ष हेतु प्रेरणा देती हैं और स्वतन्त्रता की स्थिति में एकजुट होकर, समरस होकर राष्ट्रीय चेतना को जागृत करने का काम करती हैं।

राष्ट्रीय चेतना का निर्माण समाज की एक सतत गतिशील प्रक्रिया हैं, जो समाज की प्रकृति, चरित्र, सिद्धान्त, रीतिरिवाज तथा परम्पराओं के माध्यम से परिलक्षित होती हैं तथा इन तत्वों केा प्रभावित भी करती चलती हैं। इस प्रकार राष्ट्रीयता का तत्व समाज के भूत, वर्तमान तथा भविष्य तीनों को एक बनाए रखता हैं तथा तीनों से प्रभावित भी होता है। स्थायित्व, समरसता तथा एक सूत्रता (integration) इसके स्थाई अंग हैं। राष्ट्रीयता देश तथा समाज का जीवन हैं। इसके स्थायित्व अथवा अस्थायित्व पर समाज का स्थायित्व या अस्थायित्व निर्भर करता हैं।

यूनान, मिश्र , रोमा मिट गए जहां से
बात कुछ हैं कि हस्ती मिटती नही हमारी

कवि ने बहुत सुन्दरता से भारतीय राष्ट्रीयता की परिभाषा को समझाने का प्रयास किया हैं। यूनान, मिश्र या रोम से क्या मिट गया। नदी, पहाड, जंगल, नगर, गांव तथा लोग तो वही हैं तो फिर उनका क्या मिट गया ? जीवन शक्ति या राष्ट्रीयता के स्थायित्व के अभाव में उनकी राष्ट्रीय चेतना विरल होती गई और क्षीण होते-होते समाप्त हेाती गई। भारतीय समाज अनेक घातक प्रहारों के बावजूद अपनी राष्ट्रीय चेतना में कुछ अंषों में आज भी जीवन के तत्व संजोए हुए है और इसलिए यह समाज विश्व का एकमात्र प्राचीन जीवित बचा समाज हैं।

आजादी के 69 वर्षो बाद इस देश की राष्ट्रीयता के सम्बन्ध में चर्चा की आवश्यकता महसूस की ऐसा क्यों?

यह इसलिए कि आज तक जो विचित्र राजनीतिक नेता राष्ट्रीयता की अस्पष्ट और भ्रामक व्याख्या के आधार पर वोट बटेारते रहें हैं तथा बुद्धिजीवी, साहित्य के उच्च आसनों पर प्रतिष्ठित होते आए हैं, आज उनके सामने राष्ट्रवाद की संकल्पनाऐं गम्भीर चुनौतियों के रूप में उपस्थित हो गई हैं। वे अब समझ गए हैं कि अब केवल कुछ व्यंगात्मक गालियां देकर इन गम्भीर चुनौतियों भरी संकल्पनाओं से किनारा नहीं किया जा सकता जिस विचारधारा के बढतें हुए प्रभाव के कारण आज विभिन्न क्षेत्रों में राष्ट्रीयता को व्याख्यांकित करने की आवश्यकता हो रही हैं, उसके पूरोधाओं ने तो स्वतंत्रता प्राप्ति के दो दशक पहले ही ‘राष्ट्रीयता’ के विषय में गम्भीर चिन्तन करके भारत की राष्ट्रीयता का सही आंकलन करते हूए समस्त राष्ट्र केा संगठित तथा जागृत करने का बीडा उठाया था।

राष्ट्रीयता के बारें में ऐसी महान् विभूतियों के विचारों की चर्चा करना उचित होगा, जिनके व्यक्तित्व तथा विचारों की मान्यता के सम्बन्ध में दुनियां में कोई भी राजनैतिक अथवा सामाजिक विचारधारा या बुद्धिजीवी ऊॅगली उठाने का साहस नहीं कर सकता।

महर्षि अरविन्द ने अलीपुर बम प्रकरण से कारावास से मुक्त होने पर कलकता के उत्तरपाडा क्षेत्र में जंहा उनका जन- सम्मान किया गया था अपने भाषण में कहा थाः-

कारावास से बाहर आने के बाद आज कुछ भी बोलने की इच्छा नहीं हैं, तथापि मैं जो यह कह रहा हूँ वह उस “परमात्मा” का संदेश हैं और वही मूझे बोलने को विवश कर रहा हैं।

‘बाहर जाकर भारतवासियों से कहो कि जब भी भारत जागा हैं, केवल अपने लिए नही जागा हैं वह सनातन धर्म के लिए जागा हैं। सम्पूर्ण विश्व के लिए जागा हैं। जब भी कहा जाता हैं कि भारत महान हैं तो इसका अर्थ हैं कि सनातन धर्म महान हैं। सनातन धर्म का प्रसार ही भारत का प्रसार हैं। भारत धर्म हैं और धर्म ही भारत है | हिन्द महासागर के उत्तर और हिमालय के दक्षिण के पवित्र भूभाग में संबर्धित हुआ यह हिन्दू धर्म सार्वभौमिक तथा सार्वकालिक धर्म हैं।

इतने ही जोर से एक बार मैने पहले भी कहा था कि यह आन्दोलन केवल राजनीतिक मांग नही हैं, यह भी कहा था कि राष्ट्रीयता केवल राजनीति नहीं हैं, अपितु यह एक विश्वास हैं, एक आस्था हैं, एक धर्म हैं। आज मैं केवल इतना ही नही कहता हूँ अपितु आगे जाकर कहता हूँ कि सनातन धर्म ही हमारी राष्ट्रीयता हैं इस हिन्दु राष्ट्र की उत्पत्ति ही सनातन धर्म के साथ हुई हैं। सनातन धर्म के साथ ही यह राष्ट्र आंदोलित होता हैं और उसके साथ ही बढता हैं। यदि सनातन धर्म की अवनति होती हैं तो हिन्दू राष्ट्र की अवनति होती हैं। यदि सनातन धर्म नष्ट होता हैं तो उसके साथ ही हिन्दु राष्ट्र भी समाप्त हो जाएगा। सनातन धर्म अर्थात हिन्दु राष्ट्र हैं बस यही परमात्मा का संदेश हैं।‘

डा0 भीमराव अम्बेडकर जी द्वारा विभिन्न प्रसंगों पर प्रकट किऐ उनके उदगारों के अंशों को परस्पर समन्वित किया जाए, तो राष्ट्रीयता के सम्बन्ध में उनकी-संकल्पना का स्पष्ट संकेत प्राप्त होता हैं।

‘अगर मैं इसाई धर्म को स्वीकार करता हूँ तो ब्रिटिष साम्राज्य का पोषण करता हूँ, अगर मैं इस्लाम स्वीकार करता हूँ, तो मैं विदेषी संस्कृति को बढावा दूंगा, क्योंकि इन धर्मों के आस्था केन्द्र भारत से बाहर हैं। मेरे लिए तो बौद्ध और सिख पंथ धर्म ही अनुकुल हो सकते हैं।‘

“1936, टाइम्स आफ इंडिया के पत्र”

स्पष्ट हैं कि डा0 अम्बेडकर जी की राष्ट्रीयता की कल्पना धर्म पर आधारित थी। स्वामी विवेकानन्द जी जब अमेरिका से भारत वापस आए तो स्थान-स्थान पर राष्ट्रीयता के सम्बन्ध में अपने विचार प्रकट किए। स्वामी जी ने कहा- मैं भिन्न-भिन्न देशों में बहुत सी जातियों से मिला हूँ, प्रत्येक जाति/समाज का एक न एक आदर्श अवश्य होता हैं। यह कह सकते हैं कि यह आदर्श राष्ट्रीय जीवन की रीढ होता हैं। परन्तु भारत का मेरूदण्ड राजनीति नहीं हैं, सैन्य शक्ति नहीं हैं, व्यावसायिक आधिपत्य भी नहीं हैं और न याँत्रिक शक्ति ही हैं, बस धर्म केवल धर्म ही हमारा सर्वस्व है। धर्म और आध्यात्मिकता ही ऐसे मुख्य आधार हैं जिसके ऊपर भारतीय जीवन निर्भर रहा हैं तथा फल फूल रहा हैं और भविष्य में भी इसी पर निर्भर रहना हैं। धर्म, सम्प्रदाय नहीं यह एक जीवन पद्धति हैं। धर्म यानी धारण करने योग्य जो मनुष्य को मनुष्य के प्रति और प्रकृति के प्रति कर्तव्य परायण बनाता हैं।

राष्ट्र, राज्य, संस्कृतिः

कुछ बुद्धिजीवी, राष्ट्र तथा राज्य को परस्पर ईकाईयां मानते हैं। यह धारणा ही गलत हैं। वास्तव में राज्य, समाज में शान्ति व्यवस्था तथा सुचारू जीवन संचालन के उद्देष्य से निर्मित तत्कालिक व्यवस्था हैं जिसके संचालन का मुख्य साधन कानून होता हैं। राष्ट्र हजारों वर्षो के परस्पर सम्बधों तथा परम्पराओं से स्वयंविकसित एक गहरी भावना तथा धारणा हैं जो संस्कृति तथा भावनात्मक समरसता द्वारा संचालित होती हैं। धर्म तथा संस्कृति की गहराइयों से जूडे हूए किसी क्षेत्र विशेष कालान्तर में एक या एक से अधिक राज्यों का अस्तित्व हो सकता है, किन्तु जब तक वहां की संस्कृति जीवित एवं अक्षुण है तब तक वहां की राष्ट्रीयता अपरिवर्तित तथा स्थायी होती हैं। इस देश में सहस्त्रों वर्षों से विश्वकल्याण की भावना से उन्मेषित गतिशील धर्म भावना ने, जन-जीवन के राजनैतिक , आर्थिक, भौतिक, आध्यात्मिक और सामाजिक सभी अंषों को समन्वित करते हूए, सम्पूर्ण समाज को श्रेष्ठ बनाने की दिशा प्रदान की हैं इसलिए यहां धर्म और संस्कृति अविभाज्य हो गऐ हैं। इसलिए चिन्तकों ने धर्म को इस देश की राष्ट्रीयता का प्राण कहा हैं।

राष्ट्र की एकात्मकता के लिए समान राज्य का होना उतना आवश्यक नहीं है जितना समान संस्कृति का स्वरूप। युगोस्लाविया ने अपने आसपास की विभिन्न संस्कृतियों व समाजों को अपने राजनीतिक प्रभुत्व तथा सैन्य बल की सहायता से एक राज्य में पिरों दिया। अपनी उसी सैन्यशक्ति द्वारा उनकी पृथक राष्ट्रीयता पर अंकुश लगाकर, उस अस्वभाविक एकत्रीकरण को एक राष्ट्र कहना प्रारम्भ कर दिया | किन्तु राजनीतिक शक्ति के बिखरते ही वे सभी राष्ट्र पुनः अलग होकर अपनी मूलभूत राष्ट्रीयता से जुड गये। इसके विपरीत ऐसीही सैन्यशक्ति एवम् राजनैतिक स्वार्थेा ने जर्मनी के दो टुकडे कर, दो राज्यों के साथ दो राष्ट्रीयताऐं विकसित करने का प्रयास किया, परन्तु उस भौतिक शक्ति का ह्रास होते ही, एक राष्ट्र के दो टुकडे पूनः एक हों गए।

पष्चिम में राष्ट्रवाद का जन्म प्रतिक्रिया से हुआ। पष्चिम में राष्ट्रवाद चर्च और पेाप के आधिपत्य के विरोध में तथा साम्राज्यवाद की प्रतिक्रिया के रूप में पैदा हुआ और अन्ततः वह भी साम्राज्यवाद का सहायक बना। यही कारण हैं कि पष्चिम में राष्ट्रवाद शब्द लांछित हुआ। पष्चिम में उग्र राष्ट्रवाद ‘फासीवाद’ और उदार राष्ट्रवाद के नाम से अनेक धाराऐं चली। प्रतिक्रिया से पैदा हुई हर चीज अस्थाई होती हैं और प्रायः नकारात्मक होती हैं। ;अतः जो अन्धी देश भक्ति पैदा हुई थी, साम्राज्यवाद के विरोध में उसने आगे चलकर फासीवाद को जन्म दिया और विष्वयुद्धो का कारण बनी।

राष्ट्र के रूप में भारत सहज विकसित हुआ। सम्भवतः उसका एक प्रमुख कारण भौगोलिक था। पृथ्वी का वह भू-भाग जो समूद्र के उत्तर और हिमालय के दक्षिण में है, उपजाउ भी था और जलवायु की दृष्टि से सुहावना भी। यहां जो लोग रहते थे उन्हें बाहर जाने की आवश्यकता नही थी। लम्बे सहजीवन से जो अपनत्व का भाव धरती के प्रति, लोगों के प्रति, परिवेश के प्रति पैदा हुआ, उसी से भारत या हिन्दु राष्ट्र का निर्माण हुआ। जो जीवन शैली यहां के लोगो में विकसित हुई, वही इनकी संस्कृति कहलाई। सर्व समावेषी, एकात्मक, मानववादी संस्कृति ही देश की पहचान बनी। भारतीय संस्कृति की यह मान्यता हैं उन सब में एक ही मूल तत्व हैं, एक से ही अनेक रूप विकसित हुए हैं। अतः अनेक रूप, रंग, भाषा इत्यादि होने पर भी सभी में एक ही मूल तत्व होने से एक-दूसरे के प्रति संवेदनषीलता एवं प्रेम की भावना रखना हमारी संस्कृति का मूल सिद्धान्त हैं। 

इसलिए हमने पारस्परिक सहयोग (mutual cooperation) के सिद्धान्त की बात कही। पष्चिम की संस्कृति ने survival of the fittest के सिद्धान्त को मानकर प्रकृति के शोषण की बात कही हैं। प्रकृति में जो हैं वह सब हमारी सुख-सुविधा के लिए हैं इसके कारण से आज दुनियां भर में देश दुखी जीवन जीने के लिए मजबूर हुए हैं। धरती का तापमान बढ़ना (global warming) पर्यावरण की अन्य समस्याऐं, पानी की समस्याएं, इसी उपभेाक्तावादी संस्कृति की देन हैं। भारतीय संस्कृति संयम की संस्कृति हैं। हिन्दु संस्कृति हमारी राष्ट्रीयता हैं। भारतीय संस्कृति वह जीवन पद्धति हैं जो मानती हैं कि धरती पर सभी प्राणियों को जीने का समान अधिकार हैं यह केवल मनुष्य की वपौती नही। भारत में राष्ट्रवाद या राष्ट्रीयता कृण्वन्तो विश्वमार्यम तथा वसूधैव कुटुम्बकम के विचार से पैदा हुआ हैं। सभी सुखी हो, स्वस्थ हो, उच्च गुणों से युक्त हों किसी को दुख प्राप्त न हों, का उच्च आदर्श लेकर यह राष्ट्र चला और आगे बढ रहा हैं। 

तेरा वैभव अमर रहे मॉ
हम दिन चार रहे न रहे। 

यह इसी भाव से हम कहते हैं। हम संगठन नही देश, राष्ट्र का नाम बडा करने के लिए कार्य करते हैं।

विश्व सुखी नहीं हैं, विश्व को सुखी करने के प्रयास पिछले 2000 वर्ष से बहुत हुए हैं पर विश्व सुखी नही हो पाया। विश्व भर के चिन्तको ने विष्लेषण किया तथा इतने उपाय करने के बाद भी विश्व सुखी नहीं हुआ सभी विचारकों के समाधान खोजने के बाद एक निष्कर्ष सामने आया कि जब भारत अपने विचारेां पर खडा होगा तथा विश्व को मार्गदर्शन देगा तभी विश्व सुखी होगा।

इस महत्वपूर्ण दायित्व का निर्वाह करने के लिए सभी युवा भाई-बहनों को भारत के समस्त समाज केा जागृत कर राष्ट्र जागरण का आवाहन् कर भारत केा जगाना होगा। वर्तमान समय हम सभी को पुकार रहा हैं भारत की सारी युवा शक्ति राष्ट्रवाद से ओत-प्रोत होकर विश्व कल्याण की भावना से आगे बढेगी तथा भारतीय राष्ट्रवाद के आधार पर सम्पूर्ण विश्व में शान्ति स्थापित होगी। 

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