विश्व विज्ञान को भारत की देंन – भाग 2


दहाई इत्यादि स्थान पर आधारित मान पद्धति के निर्माण और विकास के कारण गणित की बहुत सी प्रक्रियाओं का जन्म हुआ वे प्रक्रियाएं आज भी सुरक्षित है और व्यवहार में लाई जा रही है !


वर्गमूल/घनमूल 

अपेक्षित संख्या के वर्गमूल और घनमूल की प्राप्ति के लिए आधुनिक गणित में एक पद्धति अपनाई गयी है ! वस्तुतः इस पद्धति की खोज आर्यभट ने पंचम शताब्दी (४९९ ई.) में कर दी थी ! आर्यभट का नियम इस प्रकार है :-
भागं हरेतवर्गान्नित्यं द्विगुणेन वर्गमूलेन ।वर्गात्वर्गे शुद्धे लब्धं स्थानान्तरे मूलम् ।। २.४ ।।

यह पद्धति १६१३ ई. तक यूरोपियों के लिए अज्ञात ही थी ! इस प्रकार वर्षों पूर्व एक भारतीय द्वारा खोजी गयी इस पद्धति के विषय में आज भी यह कहा जाता है कि इसकी खोज विदेशियों ने की है ! वस्तुस्थिति को जानते हुए भी हमारा उसमे विश्वास नहीं है ! हम लोगों की यह कैसी अभिमानशून्यता है ! त्रैराशिक नियम और व्यस्तत्रैराशिक नियम अंकगणित के क्षेत्र में उत्कृष्ट नियम के रूप में जाने जाते है ! ये दोनों नियम भारत में प्राचीनकाल से ही व्यवहार में प्रयुक्त हो रहे है ! भारत में इन दोनों नियमों का उपयोग बहुत पहले से हो रहा है ! अतः बहुत से विद्वानों का मत है कि ये दोनों नियम भारत से ही पश्चिम के देशों में गए है !

बीजगणित

ऐसा देखने में आता है कि बीजगणित का प्रारंभ वेदांग के शुल्वसूत्र से ही हुआ है ! रेखीय हल ( Solutions of Linear) क्रमिक समीकरण ( Simultaneous Equations) इन दोनों ही विषयों पर भारतीय बीजगणित के क्षेत्र में चर्चा हुई है ! यज्ञवेदियों के निर्माणकार्य के द्वारा बीजगणित की बहुत सी प्रक्रियाओं का विकास देखने में आया है ! 

ब्रह्मगुप्त (७०० ई.) के काल में बीजगणित का स्वतंत्र विषय के रूप में विकास हुआ जिसे कुट्टकगणित, बीजगणित अव्यक्तगणित इत्यादि नामों से जाना जाता है !

QUADRATIC EQUATION (वर्गीय समीकरण)

ax + bx+ c = 0 इस प्रकार के वर्गीय समीकरण के हल आर्यभट ब्रह्मगुप्त आदि जानते थे ! वर्गीय समीकरणों के उत्तर जानने के लिए जिस प्रक्रिया का आलंबन आज किया जा रहा है ! वह प्रक्रिया (१० वी शताब्दी) के श्रीधराचार्य ने दी है !

चतुराहतवर्गसमैः रुपैः पक्षद्वयं गुणयेत् ।अव्यक्तवर्गरूपैर्युक्तौ पक्षौ ततो मूलम् ॥ 

क्रमयोजन और संयोजन (PREMUTATIONS AND COMBINATIONS)

“क्रमयोजन” और “संयोजन” सम्बंधित पद्धति का उपयोग प्राचीनकाल से ही भारत में हो रहा था ! इन दोनों पद्धतियों का उपयोग प्रमुख रूप से काव्य निर्माण, वास्तु शास्त्र, संगीत शास्त्र और औषधि के क्षेत्र में होता था !



इस प्रकार के साधारण से नियम का निर्माण नवीं शताब्दी में कर्नाटक में गणितज्ञ के रूप में प्रसिद्द वराहमिहिर नामक आचार्य ने श्लोक बद्ध किया है !

एकाघेकोट्टरतः पद्मूर्ध्वाधर्यतः क्रमातक्रमशः |स्थाप्य प्रतिलोमधनं प्रतिलोमधनेन भाजितं सारम ||

वेद काल में विभिन्न यज्ञ वेदियों के निर्माण में कुछ समस्याएं आती थी ! उस काल में समस्या निवारण के लिए ज्यामिति का उपयोग किया जाता था ! इसी के कारण ज्यामिति क्षेत्र से सम्बंधित बहुत से विषयों का निरूपण भी हो जाता था !

बौधायन सूत्र (PYTHAGORAS THEOREM)

वर्तमान काल में पाइथागोरस थियोरम के नाम से जिस नियम का व्यवहार में उपयोग दिखाई देता है ! वह नियम पाइथागोरस से एक हजार वर्ष पूर्व एक भारतीय के द्वारा निर्मित है ! महामुनि बौधायन और कात्यायन ने इस नियम का प्रतिपादन किया तथा इसका विचरण भी दिया ! बौधायन कहते है –

दीर्घस्याक्ष्णयारज्जुः पार्श्वमानी तिर्यङ्मानी च यत्पृथग्भुते कुरुतस्तदुभयं करोति ।

देखने में आया है कि विभिन्न कारकों के यज्ञ वेदियों के निर्माण में इस सिद्धांत का उपयोग किया गया है ! चतुरस्रवेदी, समकोण वेदी समद्विभुजाकृति वेदी, विषय चतुर्भुजा-कृति वेदी इत्यादियों का निर्माण हमारे पूर्वजों के द्वारा किया जाता था

(क्रमशः)

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