राष्ट्रीय चुनौतियों के समाधान में समाज की भूमिका - संजय तिवारी

जब विवेकानंद कहते हैं कि मनुष्य चाहिए, तो हमें विचार करना होगा कि आज समाज में मनुष्यता कितनी है | हमें यह भी समझना होगा कि समाज क्या है, राष्ट्र क्या है, राष्ट्र में समाज की भूमिका क्या है | सीमा में बंधे भूखंड को राष्ट्र नही कहा जाता। भारतीय सभ्यता अर्थात सिंधु घाटी सभ्यता | दुनिया में जहाँ जहाँ सिंधु घाटी सभ्यता के लोग होंगे, भारत बही तक है । अगर सीमा से राष्ट्र बनता तो कश्मीर क्यों जलता ? पहले नारे लगते थे मजदूर एकता जिंदाबाद,छात्र एकता जिंदाबाद,आज नारे लगते है यादव एकता जिंदाबाद, ब्राह्मण एकता जिंदाबाद। हमें खंड खंड करने वाला यह परिवर्तन आज की राजनीति के कारण आया है | राजनीति जिसके राज से नीति बनती है, वह केवल स्वार्थ आधरित हो गई है। समस्याये विकट है अगर हम सजग और सचेत नही हुए तो आने बाली पीढ़ी हमे क्षमा नही करेंगी। विवेकानंद ने जब कहा कि मनुष्य चाहिए, तो उनका आशय था कि राष्ट्र में योग्य महिला, योग्य पुरुष चाहिए | आज की शिक्षा पद्धति क्या सही अर्थों में योग्य बना रही है ? जब योग्य होंगे तभी सारी समस्याएं समाप्त होगी।

राष्ट्रीय चुनौतियां है क्या -

सीमाओं की सुरक्षा 
आतंरिक सुरक्षा 
आतंकवाद 
जातिवाद 
अशिक्षा 
अज्ञानता 
मज़हबी कट्टरपन 
प्रदूषण 
गन्दगी 
प्राकृतिक आपदाये 

समाज की दशा 

खंड खंड बुनियादी ढांचा 
टूटा हुआ आपसी विशवास 
मानवीय प्रवृत्तयो का क्षय 
कुलधर्म का क्षय 
कुलपरम्परा का क्षय 
जातीय जाग्रति ने तोड़ी एकता 
सामूहिक जिम्मेदारी का आभाव 


परिणाम 

सामूहिक संघर्ष की चेतना का लोप
सामूहिक भागीदारी और जवाबदेही का पतन
सामूहिक नेतृत्व का अभाव
तहा नहस हुई सामूहिकता
कहा है समाज ?
राजनीति ने समाज को खंड खंड किया
समाज तो तमाशा बन कर रह गया
स्वार्थ सबसे बड़ी बाधा
स्वार्थ ने सब कुछ बिगाड़ कर रख दिया
सामाजिक दायित्व ही नष्ट हो गया
समाज का ताना बाना बिखर गया 

कौन इसे जोड़े , कैसे ?

किसी महान दार्शनिक ने कहा है कि अगर आप समस्याओं की तरफ ही देखोगे तो समाधान ढूंढना तो दूर सोच भी नहीं पाओगे! यह बात गलत नहीं है, बल्कि हम में से अधिकांश लोगों की यही धारणा है. हालांकि, इसका यह मतलब भी नहीं है कि आप व्यवहारिकता से दूर हो जाएँ. वह चाहे व्यक्ति हो, संस्था हो या देश ही क्यों न हो, उसे वर्तमान और भविष्य की चुनौतियों पर सटीक नज़र रखनी ही चाहिए, तभी वह समाधान की दिशा में निरंतर बढ़ते रहने की योजना बना और क्रियान्वित कर सकता है. आज़ादी के बाद हमारे देश ने कई सफलताएं पायीं हैं, तो कई कीर्तिमान भी गढ़े हैं. गुलामी के लंबे काल के बाद अपने नियम-कानून बनाकर संविधान की स्थापना के 68 साल हो चुके हैं, ऐसे में विभिन्न कसौटियों पर खुद को परखा जाना नितांत आवश्यक है.

मध्ययुगीन कालखंड में संप्रदाय ही समाज- संगठन का प्रमुख साधन था। औद्योगिक संस्कृति के कालखंड में राजनीति ने यह स्थान ले लिया है और राजसत्ता समाज को नियंत्रित कर रही है। आगामी काल में यह कार्य मानवीय संबंधों का व्यवस्थापन, प्रौद्योगिकी एवं अर्थसत्ता करेगी, ऐसा दिखाई देता है। इस पृष्ठभूमि में संघ के सामने तीन चुनौतियां हैं। कार्यकर्ता के माध्यम से सत्ता-निरपेक्ष संघ अथवा सर्वोदयी संगठन अच्छा काम करते हैं, लेकिन कार्यकर्ताओं के सत्ता में आने के बाद स्थिति बदलती दिखी है। समाज परिवर्तन के लिए सत्ता का उपयोग परिणामकारक तरीके से किया जा सकता है, ऐसे उदाहरण कम दिखाई देते हैं और जो दिखाई देते भी हैं उन पर भी पर्याप्त चर्चा नहीं होती है। सत्ता परिवर्तन होते ही समाज की समस्याओं के समाधान की प्रक्रिया तेज होगी, ऐसा आभास हुआ था लेकिन अनुभव उतना संतोषजनक नहीं रहा है। वर्तमान कालखंड में मानवीय संबंधों का व्यवस्थापन, प्रौद्योगिकी एवं अर्थतंत्र- ये तीन बिंदु महत्त्वपूर्ण हैं। उनके बारे में सामाजिक कार्यकर्ताओं को गहराई से चिंतन करने की आवश्यकता है। आमतौर पर प्रौद्योगिकी और अर्थतंत्र के बारे में नकारात्मक विचार अपनाए जाते हैं। परिणामस्वरूप इन दोनों क्षेत्रों के भविष्य को लेकर कोई चर्चा नहीं होती है। मानवीय संबंधों के बारे में जो उच्चस्तरीय नैतिक भूमिका अपनाई जाती है, वह वास्तविक लोक व्यवहार में भी झलकनी चाहिए।

आज राजनीति सर्वस्पर्शी बन गई है, लेकिन उसमें भ्रष्टाचार भी गहरे समा गया है। इस लोकतांत्रिक ढांचे पर फिर से विचार करना होगा। राजनीति से पैदा हुए भ्रष्टाचार ने संपूर्ण देश का नैतिक अध:पतन किया है। यह चुनावी लोकतांत्रिक ढांचा अपना मर्म खो चुका है। उसमें से बनी परिस्थिति ने सामाजिक चारित्र्य की भाषा को दांभिक स्वरूप प्रदान किया है। इस वास्तविकता को नजरअंदाज करके सामाजिक चारित्र्य की तोता रटंत कितना सामाजिक विश्वास निर्माण कर पाएगी? परस्पर विश्वास से, संवाद के माध्यम से आपसी दुराव दूर करने का प्रयास होना चाहिए अन्यथा भाजपा या अन्य संस्थाओं में भी अविश्वास का वातावरण बनता है, जो गलत है। मानवीय संबंधों के मूल तत्व कायम रहते हैं, लेकिन काल के अनुरूप उनका स्वरूप बदलता रहता है।

अर्थसत्ता, राजसत्ता और प्रौद्योगिकी से नैतिक शक्ति सर्वश्रेष्ठ होती है और इसी शक्ति के आधार पर देश में निर्मित संगठन जीवन मूल्यों पर आधारित परिवर्तन ला सकता है। ऐसी स्थिति में वर्तमान राजकीय व्यवस्था की मर्यादाओं और उसमें से समाधान के मार्ग की व्यावहारिक चर्चा अधिक उपयुक्त सिद्ध होगी। इस पर राष्ट्रीय चर्चा का प्रारंभ करके उसमें देश को सहभागी बनाने की आवयकता है। 

प्रौद्योगिकी, अर्थतंत्र और आध्यात्मिक अनुभूति- इन तीनों के आधार पर भारत विश्व शक्ति बन सकता है, लेकिन इन तीनों घटकों का गहरा और शास्त्रीय अध्ययन करके उसे प्रस्तुत करने की आवश्यकता है। आज समाज के सामने राजनीतिक, सामाजिक परिवर्तन का कार्यक्रम रखने की बजाय लोकप्रियता प्राप्त करने के लिए अभिनेताओं और खिलाड़ियों की सहायता लेनी पड़ रही है और राष्ट्रीय कार्यकारिणी में विविध समाज घटकों का विचार करने वाले अनुभवसिद्ध राजनीतिकों के बजाय इन्हीं को प्रमुखता दी जाती है। इस परिदृश्य में वैचारिक दृढ़ता के साथ महत्वपूर्ण समस्याओं पर व्यापक राष्ट्रीय बहस छेड़ते हुए उसमें से सामाजिक विश्वास प्राप्त कर समाज के सूत्र अपने हाथों में लेना और उसके द्वारा समाज-परिवर्तन लाना, यही आगे की राह हो सकती है।

26 जनवरी 1950 के बाद अगर ईमानदारी से आंकलन किया जाए तो अब तक हमारा गणतंत्र लगातार परिपक्व हुआ है.आज समाज का 90 फीसदी से अधिक हिस्सा अपने इच्छित जन प्रतिनिधियों को संसद में भेज सकता है, तो इसके लिए हमारे संविधान निर्माताओं को धन्यवाद प्रेषित किया जाना चाहिए.हालाँकि, चुनाव सुधारों की दिशा में बड़े स्तर पर कार्य किया जाना आवश्यक है, क्योंकि इसके अभाव में आपराधिक पृष्ठभूमि के लोग तो सदन में पहुँचते ही हैं, साथ ही साथ बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार की सम्भावना भी जन्म लेती है. इसके साथ बार-बार हो रहे विभिन्न चुनाव हमारे देश में ‘चुनाव’ को एक इंडस्ट्री के रूप में तब्दील कर चुके हैं, जो किसी हाल में उचित नहीं कहा जा सकता है. रोज-रोज हो रहे चुनावों की बजाय इसे व्यवस्थित और एक समय पर ही किये जाने का मार्ग ढूँढा जाना चाहिए. चुनाव सुधार, जिसमें प्रत्येक तरह के चुनाव 5 साल के दौरान एक या अधिकतम दो बार में कराये जाएँ, राजनीतिक पार्टियां आरटीआई के दायरे में हों, बेनामी चंदे की दुकान बन्द किया जाना और अमेरिकी प्रेजिडेंट की तरह पार्टी मुखिया, सीएम, पीएम जैसे शीर्ष पदों का अधिकतम कार्यकाल 8 साल तक ही हो, शामिल किया जा सकता है. अगर इतना संभव हो सके, तो हम भारतीय गणतंत्र का सच्चे अर्थों में लाभ उठा सकते हैं.

आरक्षण सुधार की जरूरत

संविधान में आरक्षण-व्यवस्था से निश्चित रूप में हमारे देश को व्यापक लाभ हुआ है, किन्तु ‘क्रीमी-लेयर’ इसे इसके असली हकदारों तक पहुँचने से आज भी रोक रहा है. हालाँकि, आरक्षण बेहद जटिल विषय है, किन्तु अब आर्थिक आधार पर इसे लागू करने की दिशा में कार्य शुरू किया जाना चाहिए, जिससे असली गरीबों को इसका फायदा हो सके. गरीबों और पिछड़ों, दबे-कुचलों के लिए आरक्षण व्यवस्था है, किन्तु इसी श्रेणी से अगर एक व्यक्ति आईएएस अधिकारी बन जाता है, अथवा सांसद-विधायक बन जाता है तो फिर उसके दबे-कुचले और पिछड़े होने की सम्भावना 100 फीसदी समाप्त हो जाती है. ऐसे में आरक्षण का सहारा लेकर, पुनः वही सांसद-विधायक बने या फिर उसी के बेटे-बेटियां आईएएस अधिकारी बने, यह कहाँ से न्यायोचित है?

क्या यह बेहतर नहीं रहता कि एक बार आरक्षण का लाभ ले लेने के पश्चात किसी व्यक्ति का परिवार स्वतः ही ‘जनरल’ कटेगरी में आ जाए. चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों से ऊपर के सभी लाभार्थियों और उनके परिवारों को ‘क्रीमी लेयर’ मानते हुए आरक्षण व्यवस्था का लाभ दूसरे भारतीय नागरिकों को दिए जाने का मार्ग प्रशस्त किया जाना चाहिए.

इसमें वह लोग भी शामिल किये जाएँ, जिनकी सालाना आय 5 लाख से ऊपर हो. इसके अतिरिक्त, प्रत्येक 5 साल पर आरक्षण व्यवस्था पर अनिवार्य रूप से कमिटी का गठन किया जाए, जो उत्पन्न हालातों से निपटने के लिए सलाह देती रहे. हालाँकि, जातिवाद की घृणात्मक बेड़ियों में जकड़े हमारे देश में ‘आरक्षण व्यवस्था’ की लंबे समय तक आवश्यकता है, इस बात में दो राय नहीं!

सामाजिक आन्दोलनों की जरूरत

शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएं और रोजगार जैसी मूलभूत मानवीय आवश्यकताएं आज भी हमारे सामने मुंह बाए खड़ी हैं. एक तरफ तो हम सुपर पावर बनने का दम भर रहे हैं, किन्तु दूसरी ओर हमारे देश में कहीं किसान आत्महत्या करते हैं तो कहीं भूख से किसी की मौत हो जाती है. सरकार की जिम्मेदारी और जवाबदेही अपनी जगह है, और पिछले 70 सालों से इस सन्दर्भ में उसकी गलत नीतियां ही रही हैं, जिसके कारण करोड़ों लोग आज भी यहाँ गरीबी रेखा से नीचे हैं. पर सरकार से जरा अलग हटकर सोचा जाए तो इन समस्याओं से निपटने में ‘सामाजिक आन्दोलनों’ की बड़ी भूमिका हो सकती है. सामाजिक योद्धा ‘वर्गीज कूरियन’ और उनका अमूल आंदोलन हमें याद होना चाहिए, जिसने गुजरात जैसे राज्य और वहां के लोगों को स्थाई रूप से संपन्न बनाने की राह खोली. वस्तुतः सम्पन्नता एक तरह का ‘मानवीय चरित्र’ माना जा सकता है और यह समाज में ही विकसित होता है.

हम अक्सर कहते हैं कि जापानी लोग बड़े मेहनती होते हैं, तो क्या उन्हें मेहनती वहां की सरकार ने बनाया? नहीं, वहां का सामाजिक चरित्र ही है जिसने समूचे देश की सम्पन्नता की राह खोली. हमारे देश में बदहाल लोग, दूसरी जगह पलायन करते लोग, एक-दूसरे की टांग खींचते लोग, मेहनत की बजाय गप्पबाजी को अपना पेशा बना चुके लोग और ऐसी ही अन्य समस्याओं से दो-चार होते हुए अपराधी बनते लोग, देश की पहचान रहे हैं! सच यही है कि व्यक्तियों के पास समय भरपूर है, लेकिन उसका प्रयोग लोग गप्पबाजी में करते हैं. यह समस्याएं अगर दूर नहीं हुईं तो सिर्फ राजनीति के सहारे हमारा राष्ट्रीय चरित्र नहीं बदलने वाला! इसके लिए सीधे तौर पर समाज को प्रयत्न करने की आवश्यकता है.

महिलाओं का सम्मान एवं अधिकार

इस मामले में हालिया दिनों में हम कुछ ज्यादे ही बदनाम हुए हैं. ‘निर्भया काण्ड’ ने तो विश्व भर में हमारी नाक कटा दी थी. ”यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः” का मन्त्र देने वाले हमारे देश का चरित्र इस मामले में कड़ाई से सुधारे जाने की आवश्यकता है. निष्पक्ष रूप से वर्तमान में अगर भारतीय लोकतंत्र और पश्चिमी देशों की समृद्धि की तुलना करें तो एक व्यापक कारण ‘स्त्रियों’ का स्थान नजर आएगा. हालाँकि, अपराध पश्चिमी देशों में भी है, किन्तु हमारा रिकॉर्ड इस मामले में दिन ब दिन खराब हुआ है. इसको यदि सिर्फ समृद्धि और स्व-निर्भरता के लिहाज से देखा जाय तो साफ़ हो जाता है कि पश्चिम में जहाँ स्त्री-पुरुष दोनों उत्पादकता के मामले में समान रूप से कार्य करते हैं. भारत में आज भी यह दर बेहद कम है. यहाँ स्पष्ट कर देना चाहूंगा कि हमारी पारिवारिक संरचना, उनकी अश्लीलता से हज़ार गुना बेहतर है, किन्तु जब बात ‘मेक इन इंडिया’ की आती है तो इस तथ्य पर समाज के साथ सरकार को भी ठोस और तेज प्रयास करने होंगे.

आश्चर्य तो तब होता है, जब संसद और विधान सभाओं में 33 प्रतिशत महिला आरक्षण का मुद्दा ठंडे बस्ते में अनिश्चितकाल तक के लिए बंद है. पिछले 20 सालों में तमाम चुनावी घोषणाओं और दावों के बावजूद, देश के मुख्य राजनीतिक दल चुप्पी साधे हुए हैं तो इसी कारण से राज्य सभा में पारित होने के बावजूद ‘महिला आरक्षण विधेयक’ लोकसभा तक नहीं जा सका है.यह एक ऐसा सवाल है, जो शीर्ष स्तर से लेकर समाज की सबसे छोटी ईकाई, यानी ‘परिवार’ तक में पूछा जाना चाहिए. अगर इन मूलभूत चुनौतियों से हम पार पा सकें तो कोई कारण नहीं है कि आने वाले दशकों में हमारा देश विश्व भर में सिरमौर होगा, अन्यथा धीरे-धीरे अव्यवस्थित तरीके से हम कभी एक कदम आगे जाएंगे तो कभी दो कदम पीछे हटने को भी मजबूर हो जाएंगे!

भारत एक ऐसा देश है जहां विभिन्न धर्मों, संस्कृतियों, परंपराओं और संप्रदायों के लोग एक साथ रहते हैं। इसलिए इन विविधताओं के कारण कुछ मुद्दों पर लोगों के बीच मतभेद होने की संभावना बनी रहती है। राष्ट्रीय अखंडता एक धागे के रूप में काम करती है जो सभी मतभेदों के बावजूद लोगों में एकता बनाये रखता है। यह इस देश की सुंदरता है कि किसी भी धर्म से संबंधित त्योहार को सभी समुदायों के साथ मनाया जाता है। लोग धार्मिक अवसरों पर मिलने, अभिवादन करने और बधाई देने के लिए एक-दूसरे की जगहों पर मुलाकात करने जाते हैं। यही कारण है कि विविधता में एकता के साथ भारत एक देश के रूप में जाना जाता है।

राष्ट्रीय एकता के लिए चुनौतियां

भारत विभिन्न भाषाओं, धर्मों और जातियों आदि की विशाल विविधता का देश है। इन सभी विशेषताओं के कारण ही भारत में अलग-अलग समूह के लोग बसते हैं। भारत में सभी जातियां आगे उप-जातियों में विभाजित की गई हैं और भाषाओं को बोलियों में विभाजित किया गया है। इसके अलावा यहाँ जो सबसे महत्वपूर्ण है वह है धर्म जिसे उप-धर्मों में विभाजित किया गया हैं। इन तथ्यों के आधार पर हम यह कह सकते है की भारत एक अनंत विविध सांस्कृतिक परिभाषा को प्रस्तुत करता है क्योंकि यह एक बड़ी आबादी वाला विशाल देश है। लेकिन साथ ही यह भी सच है कि भारत में विविधता के बीच एकता भी दिखाई दे रही है। 

भारत कई विभिन्न समूहों के लोगों से बना है इसलिए इसकी विविधता देश की एकता के लिए एक अव्यक्त खतरा बन गई है। भारतीय समाज हमेशा जाति, पंथ और धर्मों और भाषाओं के संदर्भ में विभाजित किया गया है। इसी कारण अंग्रेज भारत को विभाजित करने के अपने इरादे में सफल रहे थे। स्वतंत्रता के लिए राष्ट्रवादी आंदोलन के दौरान इन विभाजनकारी प्रवृत्तियों में तेजी देखी गई अंततः भारत से ब्रिटिशों को बाहर करने का काम केवल राष्ट्रीय एकीकरण की सोच रखने वाले व्यक्तियों, जैसे महात्मा गांधी, सुभाष चंद्र बोस, लाला लाजपत राय, वल्लभ भाई पटेल, आदि के कारण ही संभव हो सका। विभिन्न धार्मिक समुदायों में संकीर्ण सोच का व्यवहार राष्ट्रीय एकीकरण के लिए प्रमुख खतरों में से एक हैं। लोगों के विभिन्न क्षेत्रीय पहचान के कैदी बनने के पीछे मुख्य कारण हमारी देश की राजनीति ही है। यहां तक कि हमारे देश में कुछ विशेष धर्मों से जुड़ी विभिन्न भाषाओं के आधार पर कुछ राज्य भी बनाए गए हैं। सांप्रदायिकता ने धर्मों के आधार पर लोगों के बीच मतभेद पैदा करने में अहम् भूमिका निभाई है।

हालांकि हमारा देश एक धर्मनिरपेक्ष देश है जहाँ सभी धर्मों का सम्मान किया जाता है, फिर भी कभी-कभी सांप्रदायिक मतभेद सामने आ रहे हैं जिससे जीवन और संपत्तियों को काफी नुकसान पहुँच रहा हैं। सांस्कृतिक मतभेद कभी-कभी राष्ट्रीय अखंडता की राह में एक प्रमुख बाधा बन जाते हैं। इसे हम उत्तरी राज्यों और दक्षिणी राज्यों के बीच मतभेद के रूप में साफ़ देख सकते है जो अक्सर लोगों के बीच पारस्परिक विरोधाभास और शत्रुता पैदा करते हैं।

राष्ट्रीय अखंडता के मार्ग में क्षेत्रीयवाद या प्रांतीयवाद भी एक बड़ी अड़चन है। हमारे देश को स्वतंत्रता की प्राप्ति के बाद राज्यों के पुनर्गठन आयोग ने प्रशासन और जनता के विभिन्न सुविधाओं के लिए देश को चौदह राज्यों में बांट दिया था। उन विभाजनों के दुष्परिणाम हमें आज भी दिखाई दे रहें हैं। प्रांतीय आधार पर बनाए गए नए राज्यों के साथ ऐसी और अधिक राज्यों की मांग दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। इससे देश के विभिन्न राज्यों में प्रांतीयवाद की संकीर्ण भावना बढ़ रही है जिससे लोगों के बीच सामाजिक असंतोष पनप रहा है।

भारत एक विशाल देश है जहां विभिन्न भाषाएं बोली जाती हैं। हालांकि अपनी-अपनी भाषाओं की विविधता को लेकर कुछ भी गलत नहीं है, लेकिन अपनी भाषा के प्रति जुनून और अन्य भाषाओं के प्रति असहिष्णुता राष्ट्रीय एकता के रास्ते में बाधा पैदा करती है। यह भी एक तथ्य है कि लोग केवल भाषा के माध्यम से ही एक-दूसरे के करीब आते हैं, जिसके लिए एक राष्ट्रीय भाषा की आवश्यकता होती है जो पूरे देश को एक साथ जोड़ सकती हैं। दुर्भाग्य से, अब तक हमारे पास एक भी भाषा नहीं है जो कश्मीर से कन्याकुमारी तक पूरे देश में संचार के माध्यम के रूप में सेवा कर सकती है।

जातिवाद को पहले से ही एक सामाजिक बुराई माना जाता है। अभी भी लोग अपनी जाति की पहचान पर विभाजित हैं। खासकर राजनीति में जाति एक निर्णायक भूमिका निभा रहीं है। हालांकि सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में सीटों का आरक्षण मुख्यधारा से वंचित लोगों को लाभ पहुँचाने के लिए दिया गया है, लेकिन कभी-कभी इससे अलग-अलग जातियों के बीच संघर्ष और आंदोलन देखने को मिले है जिससे राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा पैदा हो गया है।

अक्सर ऐसा देखे गया हैं कि चुनावों के दौरान लोग आम तौर पर उम्मीदवार के धर्म और जाति के मद्देनजर वोट देते हैं, व्यक्ति की योग्यता के आधार पर नहीं। चुनाव के बाद जब राजनीतिक सत्ता किसी व्यक्ति या विशेष वर्ग के हाथों में होती है तो वह सबके लिए कार्य करने की बजाए अपने वर्ग या अपने धर्म के लोगों को लाभ देने की कोशिश करता है।

सामाजिक विविधता के साथ-साथ हमारे देश में आर्थिक असमानता भी देखने को मिलती है। अमीर, जिनकी संख्या ज्यादा नहीं हैं, वे और अमीर हो रहे हैं जबकि अधिकांश गरीब लोग अपने दो वक़्त की रोटी का प्रबंध भी नहीं कर पा रहे है। अमीरों और गरीबों के बीच बढ़ता हुआ यह अंतर उनके बीच परस्पर दुश्मनी पैदा कर रहा है। भाईचारे और सामाजिक सद्भाव की यह कमी राष्ट्रीय एकीकरण की भावनाओं को लोगों के दिलों में बसने नहीं दे रही है। समाज के सभी वर्गों में राष्ट्रीय एकता की भावना को बढ़ावा देने के लिए सही तरह का नेतृत्व का होना आवश्यक है। लेकिन कई बार ऐसा देखने में आया है की अपने निहित स्वार्थों को पूरा करने के लिए सामाजिक और राजनीतिक नेताओं द्वारा जातीय, प्रांतीयवाद और सांप्रदायिकता भावनाओं को भड़काने का प्रयास किया जाता है। उदाहरणस्वरुप महाराष्ट्र में शिवसेना सिर्फ स्थानीय मराठी लोगों का साथ देकर तथा बाहरी प्रदेशों से आकर बसे लोगों का विरोध कर हमेशा अपने राजनीतिक एजेंडे को बढ़ावा देने की कोशिश करती है। इसके अलावा हमारे पास बहुत कम नेता हैं जो पूरे देश के लोगों को एकजुट करने की क्षमता रखते है तथा पूरा भारत उन्हें सम्मान के नज़रों से देखता है।

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