बैंक से कर्ज लेकर डकारने वाले धन्ना सेठ होने चाहिए बेनकाब और सार्वजनिक अपमानित : डॉ. मयंक चतुर्वेदी



अच्छे दिन आने की आस और सब का साथ-सबका विकास का लोकलुभावन नारे ने देखते ही देखते केंद्र में कांग्रेस एवं अन्य विपक्षी पार्टियों को सत्ता से बाहर और भारतीय जनता पार्टी को सत्ता के सिंहासन पर विराजमान कर दिया था। इसके बाद समय अपनी रफ्तार से चलता रहा और अब तीन साल बीत चुके हैं। यूं, इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में देश जिस तेजी से आर्थ‍िक, समाजिक, संरचनात्मक, ढांचागत विकास की ओर सरपट दौड़ा है तथा निरंतर आगे की ओर गतिशील है, उतना वह पहले कभी इतने अल्पसमय में दौड़ता हुआ दिखाई नहीं दिया था। नोटबंदी के आंशि‍क असर वह भी तत्कालीन को छोड़ दें तो देश की विकास दर उसी तेजी के साथ आगे बढ़ रही है जैसा कि मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद आर्थ‍िक विश्लेषकों, विश्व बैंक, एशि‍याई बैंक, अर्थव्यवस्था की अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी मूडी, इत्यादि अर्थ एवं शासन से जुड़ी राष्ट्रीय एवं वैश्विक संस्थाओं ने अंदाजा लगाया था। किंतु फिर भी कुछ अर्थ से जुड़े विषय ऐसे हैं, जिन पर सरकार का जितना समुचित ध्यान दिया जाना था, वह अभी तक नहीं दिया जा रहा है।

मसलन, जीएसटी के एक जुलाई से लागू करने की घोषणा के बाद छोटे व्यापारियों के बीच बनी असहज स्थ‍िति और उन तमाम धन्नासेठों से ऋण वसूली जिनके कारण देश की अर्थव्यवस्था पर अब तक सीधेतौर पर प्रभाव पड़ता रहा है, लेकिन उन्हें इस बात से कोई लेनादेना नहीं। कर लेकर घी पीने वाले ऐसे लोगों की सेहत पर कोई असर नहीं है। वे आज भी मौज कर रहे हैं तो दूसरी ओर देश का आम आदमी किसी तरह अपनी जिन्दगी को चलाने पर विवश है। नरेंद्र मोदी के रूप में देश को प्रधानमंत्री मिलने के बाद जनता को उम्मीद यही थी कि वे भी गुजरात की माटी से हुए भारत के पहले गृहमंत्री सरदार पटेल की तरह देशहित में आये सभी मामलों में सख्ती बरतेंगे। कुछ हद तक उन्होंने बरती भी है, किंतु इसके बाद भी आर्थ‍िक मोर्चे का एक पक्ष उसमें से कहीं पीछे छूटता दिखाई दे रहा है। वह पक्ष है उन बैंक डिफाल्टरों को ढूंढ़-ढूंढ कर उनसे ब्याज सहित वसूली की जाती और देश के खजाने को इतना भर लिया जाता कि उसे डालर के मुकाबले कभी कमजोर स्थ‍िति का सामना न करना पड़े।

हां, भगोड़े माल्या के विदेश भागजाने के बाद लगातार के मीडिया दबाव का केंद्र सरकार पर इतना असर जरूर हुआ है कि वित्त मंत्रालय अब जाकर कह रहा है कि जल्द ही 12 बड़े विलफुल बैंक डिफॉल्टरों के नाम सार्वजनिक किये जाएंगे, जिनके खिलाफ भारतीय रिजर्व बैंक ने बैंक्रप्सी की कार्रवाई शुरू की है और जिन पर कि बैंकिंग क्षेत्र का 25 फीसद एनपीए यानी फंसे कर्ज हैं। इनमें से प्रत्येक खाते में 5 हजार करोड़ रुपये या इससे भी ज्यादा कर्ज बाकी है। इन डिफॉल्टरों के खिलाफ इनसॉल्वेंसी की कार्रवाई के लिए संबंधित बैंकों को निर्देश दिया गया है। आगे इन मामलों पर नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल द्वारा प्राथमिकता के आधार पर सुनवाई की जाएगी। लेकिन यहां सीधा प्रश्न यह है कि केवल यह कार्रवाही 12 तक ही क्यों सरकार सीमित कर देना चाहती है ? इनके अलावा भी तो बहुत से बड़े डिफॉल्टर हैं, जिनमें किसी के पास 4 हजार करोड़, 2 हजार करोड़ तो किसी के पास एक हजार करोड़ का सरकारी कर्ज है। 

सरकार 5 हजार करोड़ रुपये अथवा इससे ज्यादा रकम के कर्ज की सूची जारी करने के साथ उनकी भी सूची सार्वजनिक करें जिन पर कि इससे कम मात्रा का कर्ज है, जिससे कि उन पर भी एक साथ सीधी कार्रवाही संभव हो जाए। हालांकि वित्त मंत्री अरुण जेटली ने इसके संकेत तो पहले ही दे दिए थे कि कार्रवाही ऐसे लोगों पर जरूर होगी जो डिफॉल्टर हैं। इसके लिए केंद्र सरकार ने पिछले महीने ही एक अध्यादेश जारी कर बैंकिंग नियमन कानून, 1949 में संशोधन किया था, ताकि रिजर्व बैंक को एनपीए के मामलों में और अधिक शक्तियां मिल सकें और फंसे कर्ज के मसलों का सही समाधान तुरंत निकाला जा सके। किंतु क्या अध्यादेश जारी करने भर से वसूली हो जाएगी ? चुंकि राशि‍ बहुत बड़ी है, अत: वसूली के लिए प्रयास भी उतने ही बड़े करने होंगे।

आंकड़े यह बता रहे हैं कि देश में बैड लोन (एनपीए) का वर्तमान आंकड़ा 8 लाख करोड़ रुपए के स्तर को पार कर गया है। दूसरी ओर जिन 12लोगों के नाम सार्व‍जनिक किए जाने की जो बात कही गई है, उनके बारे में बताया तो यहां तक जा रहा है कि उन पर बैंकों की 1 लाख75,000 करोड़ रुपए की उधारी बाकी है। अभी सरकार ने इन पर कार्रवाई करने के लिए 180 दिन का समय निर्धारित किया है। इस छह माह की अवधि में यह पैसा वापस कैसे होगा, इस संबंध में क्या खाका तैयार किया गया है अभी कुछ पता नहीं।

वस्तुत: देश को आर्थ‍िक नुकसान पहुँचाने वालों को लेकर सरकार जिस तरह से समय लगा रही है उससे कहा जा सकता है कि व्यर्थ में यह समय बर्बादी है। सरकार जितनी देरी करेगी उतने ही डिफॉल्टर अपने लिए बचने के रास्ते खोज लेंगे, कुछ अपने को दीवालिया घोषित कर देंगे तो कुछ अपनी सम्पत्ति‍यों को बेच खाएंगे। वास्तव में सरकार अभी जितनी ओर देर वसूली में करेगी, उतनी आसानी से ये लोग सरकारी चुंगुल से भाग निकलेंगे। आकड़े यह भी बताते हैं कि वर्ष 2016-17 में ऋण की वृद्धि मात्र 5.08 प्रतिशत रही। यह बीते छह दशक का न्यूनतम आंकड़ा है। एक साल पहले कर्ज में 10.7 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी। इससे साफ होता है कि एक तरफ बैंकों को ऋण देने के लिए धन चाहिए तो दूसरी तरफ डिफाल्टर बड़ी रकम दबाकर बैठे हैं ऐसे में बैंक आम नागरिक को सहजता के साथ आखि‍र कहां से ऋण उपलब्ध करवाए ?

सरकार को चाहिए कि वह 12 के नहीं ऐसे सभी डिफाल्टरों की सूची सार्वजनिक करें, जिससे कि देश का आम नागरिक भी जान सके कि कहीं उसके पड़ौस में रहने वाला व्यक्ति देश को नुकसान तो नहीं पहुंचा रहा है। जब ऐसे लोगों को सार्वजनिक तौर पर उलाहना और अपमान का शि‍कार होना पड़ेगा तभी वे सही रास्ते पर आएंगे। यह सच है कि सरकार की हालिया कोशि‍शों का बैंकों पर सकारात्मक असर पड़ेगा। उम्मीद है कि इनसॉल्वेंसी की कार्रवाई में देरी नहीं होगी और इनमें जल्दी नतीजा सामने आयेगा। किंतु सही और प्रभावी परिणाम तो तभी सामने आयेंगे,जब ऐसे लोगों का सार्वजनिक अपमान होना शुरू हो जाएगा ।

मयंक चतुर्वेदी

लेखक, सेंसर बोर्ड की एडवाइजरी कमेटी के सदस्य और पत्रकार हैं।



एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें