भ्रष्टाचार की अघोषित कहानी, जय हो अघोषित महारानी !



कहानी की शुरूआत पी.वी. नरसिंहाराव के प्रधान मंत्रित्व काल से होती है | उस दौरान भारत की अर्थव्यवस्था में एक महत्वपूर्ण बदलाव आया जिसे उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण मॉडल के रूप में जाना जाता है। इस मॉडल का मुख्य उद्देश्य दुनिया में भारत की अर्थव्यवस्था को सबसे तेजी से विकसित अर्थव्यवस्था बनाने का था। भारत ने अपने ऊर्जा क्षेत्र को भी निजी कंपनियों के लिए खोल दिया |

अमरीकी बहुराष्ट्रीय कंपनी एनरोन को लगा कि यह मौक़ा अच्छा है और उसने फ़टाफ़ट अपने प्रतिनिधि तत्कालीन ऊर्जा सचिव के पास पहुंचाए और नतीजा यह निकला कि जून 1992 में महाराष्ट्र राज्य विद्युत् मंडल के साथ बहुचर्चित डाभोल प्रोजेक्ट के लिए एक अनुबंध पत्र पर हस्ताक्षर हो गए | दिसंबर 1993 में भारत सरकार की सहमति भी हो गई और साथ साथ महाराष्ट्र राज्य विद्युत् मंडल ने भी बिजली खरीदने हेतु अनुबंध कर लिया |

मजा यह कि एनरोन से जो बिजली खरीदी जाने वाली थी उसके रेट भारत में अन्य उत्पादित बिजली से चार गुना होते | स्वाभाविक ही यह एक बड़ा मुद्दा बना और एनरोन को अरब सागर में फेंकने के नारे के साथ 1995 में विधानसभा चुनाव हुआ, जिसमें कांग्रेस को हार का मुंह देखना पड़ा | भाजपा के समर्थन से शिवसेना के मनोहर जोशी मुख्यमंत्री बने | उन्होंने डाभोल प्रोजेक्ट को लेकर मुंडे कमेटी गठित की जिसने अपनी रिपोर्ट अगस्त 1995 में सोंप दी और अविलम्ब उस पर कार्यवाही करते हुए सरकार ने डाभोल प्रोजेक्ट को रोक दिया |

अमरीका पूरी तरह एनरोन के साथ था | एनरोन ने 300 मिलियन हर्जाने की मांग अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय से की | अमरीका के तत्कालीन रक्षा सचिव हेजल ओ लेरी ने भारत को चेतावनी भी दी | लेकिन महाराष्ट्र सरकार अडिग रही | नवम्बर 1995 में एनरोन के अध्यक्ष रेबेका मार्क ने बाल ठाकरे से भेंट की | अंततः अग्रीमेंट संसोधित हुआ और 1997 में एनरोन को विद्युत् उत्पादन हेतु पचास लाख टन नेचुरल गैस प्रति वर्ष मिलने लगी | इस प्रकार 740 मेगा वाट क्षमता का डाभोल फेज वन शुरू हुआ |

जनवरी 2001 में विवाद पुनः शुरू हुआ | अब केंद्र में अटल जी के नेतृत्व वाली सरकार थी | महाराष्ट्र ने एनरोन का बिल भुगतान रोक दिया और धोखाधड़ी का आरोप लगाते हुए, विद्युत् क्रय हेतु किया गया एग्रीमेंट निरस्त करने की कार्यवाही प्रारम्भ कर दी |

अब सामने आईं सोनिया जी 

भारत में विपक्ष की नेता सोनिया गांधी से 27 जून 2001 में अमरीकी वाईस प्रेसिडेंट सिनोय मिले और डाभोल प्रकरण में मदद मांगी | इसके विपरीत 9 नवम्बर 2001 को भारत के प्रधान मंत्री के साथ अमरीकी प्रेसीडेंट बुश की भेंट होनी थी | जैसे ही भारत को ज्ञात हुआ कि उस बैठक में डाभोल प्रकरण पर भी चर्चा होगी, एक दिन पूर्व ही ईमेल मेसेज कर दिया गया कि बैठक में यह विषय न आये |

अब एक रोचक तथ्य देखिये – 

अटल जी की सरकार के समय जो मध्यस्थता विवाद अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में पहुंचा उसमें एनरोन की और से वकील थे स्वनामधन्य श्री श्री 1008 चिदंबरम साहब और भारत सरकार के वकील थे श्री हरीश साल्वे | लेकिन 2004 में सरकार बदल गई | सोनिया जी नई सरकार की सर्वे सर्वा बन गईं | फिर क्या था ? चिदंबरम जी वित्त मंत्री बने | 

अब एनरोन के वकील कैसे रहते ? 

किन्तु वे एनरोन के विधि सलाहकार बने रहे | उन्होंने पहला काम किया, भारत सरकार की और से कार्यरत वकील श्री साल्वे को हटाने का | जानते हैं, उनके स्थान पर किसे वकील किया ? पाकिस्तानी मूल के वकील श्री खावर कुरैशी को | वे ही खाबर कुर्रेशी, जिन्होंने कुलभूषण जाधव मामले में अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में अभी पिछले दिनों पाकिस्तान का प्रतिनिधित्व किया था |

खेल समझ में आ ही गया होगा ? भारत का वित्त मंत्री चिदंबरम एनरोन को जितायेगा और भारत का पाकिस्तानी वकील भारत को हराएगा | 

परिणाम क्या हुआ ? यह भी कोई कहने की बात है ? भारत पराजित हुआ, एनरोन को मुआबजा मिला |

कितना ? 

38 हजार करोड़ रुपये एनरोन को दिए भारत ने |

पूरे एनरोन ने रखे या हमारे नेताओं के स्विस एकाउंट में भी आधे जमा किये, इसका अनुमान प्रमाण आप लगाते रहिये | मैं गरीब तो इस मुद्दे पर चुप ही भला |

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