डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की अंतिम यात्रा – उनकी मृत्यु से संबंधित कुछ अनुत्तरित प्रश्न !


मैं उन दिनों दक्षिण कोलकाता के एक बालवाड़ी स्कूल में पढ़ने वाला एक आठ वर्ष का बालक था। एक दिन अचानक सुबह घोषणा हुई कि किन्ही श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मृत्यु हो गई है । श्याम प्रसाद मुखोपाध्याय कौन हैं, मैं नहीं जानता था ? फिर भी मन में किसी व्यक्ति की मौत के कारण कुछ उदासी लिए मैं छुट्टी का आनंद लेने अपने घर चला गया ।

वर्तमान में श्यामाप्रसाद जी को जानता हूँ, लेकिन मैं आज भी यह नहीं जानता कि कैसे मौत एक बीज बोती है, जिससे दूसरे दिन मैं पैदा हो जाता हूँ ।

एक लंबे समय के बाद, मैं श्याम प्रसाद जी के जीवन के विषय में जानने के लिए उनके अनेक नजदीकी लोगों से मिला । उनकी मौत के पचास साल बाद भी जिनकी स्मृतियों में उनकी यादें जीवित थीं । आज उनमें से भी कई लोग अब नहीं हैं | उनके पूर्व सहयोगी बलराज मधोक, उनके निन्यानवे वर्षीय सुपुत्र और केदारनाथ साहनी। परिवार में अभी भी उनकी तीन बेटियों जीवित हैं – बड़ी बेटी प्रबिता, सबिता बंद्योपाध्याय, न्यूयॉर्क प्रवासी आरती भट्टाचार्य और नाती अमिताभ चटर्जी। इनके अतिरिक्त परिवार का कोई अन्य सदस्य अब इस दुनिया में नहीं है | मेरा परम सौभाग्य है कि मुझे उनका साक्षात्कार लेने का अवसर मिला ।

अन्य लोगों में जो आज भी हैं (और भगवान से प्रार्थना है कि वे लंबे समय तक रहें) उनमें पूर्व न्यायाधीश चितंतोष मुखोपाध्याय के भतीजे, उनकी भतीजी रीना भादुड़ी, उनकी एक नजदीकी अमिता रॉयचौधुरी, और एक पोते शुभ प्रसाद शामिल हैं । श्री अटल बिहारी वाजपेई भी हैं, किन्तु उनकी स्थिति न होने जैसी है । इनमें से पहले दो लोगों से जितनी मदद मिली, उस ऋण से मैं कभी उऋण नहीं हो सकता ।

इन सबसे प्राप्त जानकारी और पुस्तकों को पढ़कर जो जाना, संक्षेप में उसका सारतत्व इस प्रकार है –

जिसे हम कश्मीर कहते हैं, वह अकेला कश्मीर नहीं है, वह राज्य जम्मू-कश्मीर है, जिसके तीसरे भाग का नाम लद्दाख है। कश्मीर धाटी में कश्मीरी बोलने वाले सुन्नी मुसलमानों की सबसे अधिक आवादी है | वहां उल्लेखनीय आबादी हिंदू अल्पसंख्यकों की भी थी, जिन्हें 'पंडित' कहा जाता था --- वे अब निर्वासित कर दिए गए हैं, वे आज अपने ही देश में शरणार्थी हैं । जम्मू क्षेत्र में अधिकांश, डोगरी बोलने वाले हिंदु या सिक्ख हैं और लद्दाख में ज्यादातर बौद्ध हैं ।

1947 में, पाकिस्तानी रजाकारों ने कश्मीर पर हमला किया। कश्मीर के महाराजा ने अविलम्ब कश्मीर के भारत के साथ विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए । उसके बाद भारतीय सेना ने अनेक कठिनाइयों से जूझते हुए कश्मीर में प्रवेश किया और हमलावरों को खदेड़ा । इस युद्ध के कमांडरों में से एक बंगाली ब्रिगेडियर एल.पी. सेन का कहना था कि अगर थोडा समय और दिया जाता तो पूरे कश्मीर से हमलावरों को हटाया जा सकता है – किन्तु पंडित नेहरू ने युद्ध विराम का आदेश देकर सैन्य कार्यवाही रोक दी, और कश्मीर का एक भाग हमलावरों के कब्जे में रह गया, जिसे आज हम पाक अधिकृत कश्मीर के नाम से जानते हैं |

पंडित नेहरू की विचारधारा के विद्वान अभी भी यहाँ रह रहे थे । संघर्ष विराम के बाद, शेख अब्दुल्ला कश्मीर की मस्जिद में बैठकर समय समय पर अलगाव वादी स्वर मुखरित करता रहा | उसके दबाब में ही एक परमिट प्रणाली कश्मीर में लागू की गई, जिसके अनुसार किसी भी भारतीय नागरिक को कश्मीर में प्रवेश करने के पूर्व परमिट लेना अनिवार्य कर दिया गया । शेख अब्दुल्ला जोकि स्वयं एक कश्मीरी बोलने वाला सुन्नी मुस्लिम था, वह जम्मू के डोगरा लोगों को नफरत की हद तक नापसंद करता था, लेकिन यह बोलता नहीं था । उसने अनेक प्रकार से जम्मू के लोगों को परेशान करना शुरू किया, यहाँ तक कि उन्हें यह लगने लगा कि वे द्वितीय श्रेणी के नागरिक हैं । परिणाम स्वरुप जम्मू के लोगों ने पंडित प्रेमनाथ डोगरा के नेतृत्व में आन्दोलन प्रारंभ कर दिया |

उन दिनों श्यामाप्रसाद दक्षिण कोलकाता से लोकसभा सांसद चुने गए थे, तथा वे पंडित नेहरू के मुखर आलोचक माने जाते थे । पूर्व में वे नेहरू मंत्रिमंडल के सदस्य थे, किन्तु पूर्वी बंगाल से निष्कासित बंगाली शरणार्थियों के पुनर्वास को लेकर नेहरू जी की उदासीनता के विरोध में उन्होंने मंत्रीपद से त्यागपत्र देकर भारतीय जनसंघ के नाम से एक नई पार्टी बनाई थी । इसी भारतीय जनसंघ का वर्तमान रूप आज केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी है |

श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने डोगरा का समर्थन किया और शेख अब्दुल्ला के खिलाफ उनके संघर्ष में पूरी तरह से शामिल हो गए । अंत में उनके साथ कंधे से कन्धा मिलाकर लड़ने के लिए वे 10 मई, 1953 को एक पेसेंजर ट्रेन में सवार होकर दिल्ली से पठानकोट के लिए रवाना हुए । उन्होंने यह भी घोषणा की कि वे एक भारतीय नागरिक के रूप में बिना परमिट लिए कश्मीर में प्रवेश करेंगे, जो कि उनका मूलभूत अधिकार है ।

श्यामाप्रसाद नहीं जानते थे कि यह उनकी अंतिम यात्रा है, पर यात्रा पर जाने से पूर्व वे अपनी माँ का आशीर्वाद लेने कोलकता आये । उस समय कई लोगों ने उन्हें इस अभियान के लिए मना भी किया, जिनमें स्वामी सच्चिदानंद, भारत सेवाश्रम संघ के प्रधानाचार्य, सुचेता कृपलानी और डॉ बिधान चंद्र राय प्रमुख थे । लेकिन जैसे जूलियस सीजर किसी की न मानकर सीनेट में गया और चाकू से मारा गया, बैसा ही कुछ श्यामाप्रसाद जी की इस आश्चर्यजनक यात्रा में भी हुआ ।

श्यामाप्रसाद जी ने अपनी यात्रा दिल्ली से शुरू की और अंबाला, करनाल, नीलोखेरी, फगवाड़ा और जालंधर होते हुए वे पठानकोट पहुंचे । हर जगह अपार जन समर्थन उन्हें मिला |

पठानकोट पहुंचने के बाद, एक आश्चर्यजनक घटना हुई, जो इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि उनके खिलाफ षडयंत्र रचा गया था | घटना इस प्रकार थी : पठानकोट पहुंचने से पहले, एक सज्जन गाड़ी में आकर उनसे मिले और उन्होंने अपना परिचय गुरुदासपुर जिले के उपायुक्त के रूप में दिया । उन्होंने आगे कहा कि वह दिल्ली से निर्देशों का इंतजार कर रहे हैं, और जैसा निर्देश प्राप्त होगा, उसी के अनुरूप वे आगे कार्यवाही करेंगे | श्यामाप्रसाद जी ने उन्हें अपना कर्तव्यपालन करने को कहा । लेकिन पठानकोट तक पहुंचने के बाद वे सज्जन स्वयं ही आश्चर्यचकित हुए, जब उन्हें बताया गया कि वे श्यामाप्रसाद जी को बिना रोके माधोपुर जाने दें | स्मरणीय है कि माधोपुर पंजाब की सीमा के आगे जम्मू और कश्मीर की सीमा में है |

लेकिन आज यह समझा जा सकता है कि इस व्यवहार का मतलब क्या था ।

अगर श्यामाप्रसाद को पंजाब के पठानकोट में गिरफ्तार किया जाता तो भारतीय क़ानून के अनुसार सुप्रीम कोर्ट में 'बंदी प्रत्यक्षीकरण' की अपील की जा सकती थी, जबकि जम्मू और कश्मीर भारत का अभिन्न अंग होते हुए भी उस समय सुप्रीम कोर्ट के दायरे से बाहर था, और यही कारण है कि घातक और सुविचारित षड्यंत्र रचे गए । जम्मू-काश्मीर का कानून उस समय शेष भारत से बहुत अलग था, और एक बार उसकी गिरफ्त में फंसने के बाद उससे छुटकारा पाना बहुत कठिन था |

बस उसके बाद त्रासदी शुरू हुई। जम्मू-कश्मीर पुलिस माधोपुर सीमा पर रावी नदी पर बने पुल के बीच में खडी थी | उन्होंने श्यामाप्रसाद जी को अपनी गिरफ्त में लेने के बाद जीप में बिठाया और गठरी सी बनाकर जम्मू शहर पार कर कश्मीर की ओर बढ़ गए | जम्मू शहर में हजारों लोग उनके स्वागत हेतु खड़े थे, किन्तु उन्हें पता ही नहीं चल सका कि उनकी आँखों के सामने उनके प्रिय नेता की तस्करी की जा रही थी |

उसके बाद रात को पहले तो उन्हें श्रीनगर सेंट्रल जेल में रखा गया, किन्तु फिर डल झील के किनारे एक छोटी सी झोपड़ी में पहुँचा दिया गया | उनके साथ दो साथी देहरादून के युवा शिक्षक टेकचंद और आयुर्वेदिक वैद्य गुरूदत्त भी थे | नेहरु ने बार-बार इसे 'पिकनिक बंगला' के रूप में संदर्भित किया जबकि यह वास्तव में ऐसा कुछ नहीं था | पहाड़ी पर बनी एक कुटिया, जिसके बाहर जंगल उग आया था, यहां टेलीफोन भी नहीं था। सबसे बड़ी समस्या यह थी कि वहां चलने फिरने की भी कोई जगह नहीं थी । चारों ओर पेड़ उगे हुए थे, या सब्जियों के खेत थे जहाँ दो से तीन मिनट घूमने में भी श्यामाप्रसाद जी को कठिनाई थी | श्यामा प्रसाद जी के पैर में तकलीफ थी | 

मैंने जब दो विशेषज्ञ डाक्टरों से इस विषय में जानना चाहा तो मुझे ज्ञात हुआ कि संभवतः श्यामाप्रसाद जी को “डीप वाइन थ्रोमोसिस' की शिकायत थी, जिसमें पैरों को लगातार गतिशील रखना आवश्यक होता है, और अगर ऐसा न किया जाए तो दिल की समस्यायें उत्पन्न हो सकती हैं | शायद इसी कारण श्यामाप्रसाद जी ने एक पैदल चलने योग्य स्थान के लिए आवेदन किया था, किन्तु शेख अब्दुल्ला ने उसे अस्वीकार कर दिया | जब श्यामाप्रसाद इस कुटीर में कैद थे, उसी दौरान नेहरू और उनके गृह मंत्री काटजू मनोरंजन के लिए श्रीनगर आए थे | श्यामाप्रसाद जी विपक्ष के बहुत योग्य व दक्ष नेता थे, किन्तु इन दोनों मंत्रियों ने इस महत्वपूर्ण बंदी नेता को अपनी शुभकामनाएं देना तो दूर उनसे मिलना भी गवारा नहीं किया |

श्यामाप्रसाद जी के परिवार के लोगों को भी उनसे नहीं मिलने दिया जा रहा था | उनके पत्राचार को भी सेंसर किया गया था, जिसके कारण उनके पत्र घर तक बहुत विलम्ब से पहुँचते थे । उन्हें कहा गया था कि वे बंगाली में पत्र नहीं लिखे, क्योंकि शेख अब्दुल्ला की पुलिस बांग्ला को नहीं पढ़ या समझ सकती थी। उनके लिए नियुक्त बैरिस्टर यूएम त्रिवेदी को भी एक मजिस्ट्रेट की उपस्थिति में एक तम्बू में उनसे बातचीत करनी होती थी --- यह शेख अब्दुल्ला के कड़े आदेश थे | त्रिवेदी उनसे 18 जून को मिले और पंडित प्रेमनाथ डोगरा 19 जून को । दोनों उनकी दुर्दशा देखकर बहुत चौंक गये । श्यामाप्रसाद ने उनसे भी कहा कि अगर उन्हें चलने को मिले तो बहुत अच्छा रहेगा |

क्या उन्हें जानबूझकर तकलीफ दी जा रही थी ? जिस दिन डोगरा उनसे मिले उन्हें बुखार भी था और रात को सीने में दर्द की भी शिकायत हुई | दूसरे दिन दोपहर बारह बजे अली मोहम्मद और डॉ. अमरनाथ राणा उन्हें देखने आये | डॉ. अली मोहम्मद ने उन्हें स्ट्रेप्टोमाइसिन लेने का निर्देश दिया | श्यामाप्रसाद जी ने इसका प्रतिवाद किया और कहा कि स्ट्रेप्टोमाइसिन उन्हें सहन नहीं होती, लेकिन डॉ. अली मोहम्मद ने उनकी बात अनसुनी कर दी | वैद्य गुरूदत्त ने जेल अधिकारियों से निवेदन किया कि श्यामाप्रसाद जी की हालत को देखते हुए, उनके परिजनों को उनकी बीमारी के विषय में सुचित कर दिया जाए | किन्तु उनकी प्रार्थना स्वीकार नहीं की गई | यहाँ तक कि उनकी मृत्यु के बाद भी कोई मेडिकल बुलेटिन जारी नहीं किया गया |

यह कैसा दुर्भाग्य था उस देशभक्त नेता का कि उसके अंतिम समय में उनका कोई अपना उनके पास नहीं था | 22 जून को जेल के नौसिखिया डाक्टरों ने उन्हें फिर से स्ट्रेप्टोमाइसिन दिया | हालत बिगड़ने पर उनका एक मंत्री आया और उसने वैद्य गुरुदत्त को बुलाया। वैद्य जब वहां पहुँचे तब श्यामाप्रसाद जी का शरीर ठंडा था, साथ ही वे पसीना पसीना हो रहे थे ।

यह समाचार सभी को दिया गया | सुबह 7:30 बजे डॉ अली मोहम्मद एलेन ने परीक्षण किया और कहा कि इन्हें तुरंत नर्सिंग होम में भर्ती करने की आवश्यकता है | अधीक्षक ने कहा कि इसके लिए जिला मजिस्ट्रेट की अनुमति चाहिये । अंत में ग्यारह बजे वह अनुमति प्राप्त हुई

– उन्हें स्ट्रेचर पर नहीं, पैदल कुटीर से बाहर लाया गया और एक सामान्य टैक्सी में – जीहाँ एम्बुलेंस में नहीं --- कहां ले जाया गया ?

किसी नर्सिंग होम में नहीं, एक सामान्य अस्पताल के एक कमरे में - एक कनिष्ठ डॉक्टर जगन्नाथ शूसी ने उनका उपचार किया |

एक बैरिस्टर जो अदालत में दूसरों की पैरवी करता था, वह बिना किसी सुनवाई के जेल में बंद था | भारतीय संसद के सबसे उज्ज्वल सितारों में से एक, और जिन्हें स्पष्ट रूप से दिल का दौरा पड़ा हो, क्या उनके साथ इस तरह के व्यवहार की कल्पना की जा सकती है? क्या उन्हें इससे बेहतर उपचार नहीं मिल सकता था ? क्या श्रीनगर में यह संभव नहीं था?

सब कुछ था, लेकिन शेख अब्दुल्ला का निजी आदेश नहीं था | उसका स्पष्ट कथन था कि उसके निर्देशों के बिना श्यामाप्रसाद जी के मामले में कुछ भी नहीं किया जाएगा। इतना ही नहीं, इस स्थिति में भी मरीज को बाथरूम जाने की इजाजत नहीं थी | यहाँ तक कि जिस बिस्तर पर वे थे, उस पर बैठने की भी इजाजत नहीं थी। यह सब बाद में स्वयं चिकित्सा अधीक्षक ने बताया ।

गिरिधर लाल ने उनसे कहा कि इस तरह न बैठें, जबकि अन्य अनेक लोग वहाँ बैठे हुए थे | इस अस्पताल में प्रवेश का रहस्य ही वास्तविक रहस्य है | शाम को 7:30 बजे त्रिवेदी श्यामाप्रसाद जी के साथ था । उन पर झल्लाने से पहले, उसने उन्हें देखे बिना यह समझने की कोशिश की कि उन्हें बुखार है या नहीं, और सुबह आठ बजे देखने आने को कहकर निकल गया । अंततः पुलिस अधीक्षक ने जाकर त्रिवेदी को बताया कि श्यामाप्रसाद जी की हालत ठीक नहीं है, जाकर देखिये । इसके बाद टेकचंद और वैद्य गुरुदत्त को भी अस्पताल बुला लिया गया । उस समय, उन्हें बताया गया कि श्यामाप्रसाद जी ने कल रात को अंतिम श्वास ली है |

यह सब वे वातें हैं, जो आधिकारिक तौर पर ज्ञात है, और जिनसे कम से कम यह स्पष्ट होता है कि उनका जो गंभीर उपचार उपेक्षित था, वह नहीं किया गया और यह लापरवाही अब्दुल्ला के निजी आदेश के बिना नहीं हो सकती थी | 1 9 45 के अंत में उन्हें पहले भी गंभीर हार्ट अटेक आ चुका था | इस बात को ध्यान में रखते हुए, कश्मीर सरकार को उनका बहुत ध्यान रखना चाहिए था।

किन्तु कु सनसनीखेज जानकारी ऐसी हैं, जिन्हें जानकर पाठक स्वयं समझ जायेंगे कि उनकी मृत्यु स्वाभाविक नहीं, वरन एक नृशंस ह्त्या थी ?

24 अप्रैल 2010 को मैं पुणे में उनकी पुत्री सबिता बंद्योपाध्याय से उनके कॉरस्पोन्डैंस पार्क में मिला | उनकी आयु 84 वर्ष थी, किन्तु वे पूर्णतः स्वस्थ थीं | साफ रंगत की सबिता अपने फ्लेट में अकेली रहती थीं | साथ के दूसरे फ्लेट में उनकी नौकरानी रहती थी | उन्होंने बताया कि श्यामाप्रसाद जी के निधन के बाद उनके पुत्र अपुरुशोष ने कश्मीर जाने हेतु परमिट के लिए आवेदन किया। किन्तु वह अस्वीकृत कर दिया गया, क्योंकि आवेदन में पिता का नाम भी लिखा हुआ था |

बाद में, सबिता और उनके पति निशिथ बंद्योपाध्याय ने परमिट लेकर कश्मीर की यात्रा की और श्रीनगर पहुंचे | उस समय श्यामाप्रसाद के एक दोस्त जतिन्द्रनाथ मजूमदार भी लन्दन से वहां घूमने आये हुए थे | एक हाउसबोट पर बंदोपाध्याय परिवार से सबिता और उनके पति की भेंट हुई । जिस समय उनके बीच श्यामाप्रसाद जी को लेकर बात हो रही थी, एक कश्मीरी लड़की उन्हें चाय दे रही थी | वे यह मानकर कि उसे बांग्ला नहीं समझती होगी, खुले तौर पर बात कर रहे थे।

जतिन्द्रनाथ के जाने के बाद अचानक उस कर्मचारी ने उनसे पूछा कि क्या वे श्यामाप्रसाद के बारे में बात कर रहे थे। वे तुरंत सतर्क हो गये | कर्मचारी ने कहा कि श्यामाप्रसाद जहाँ रहे, वह उस स्थान को जानती है और यदि वे चाहें, तो वह उन्हें वहां ले जा सकती है।"

सविता उस रात को ठीक से सो भी नहीं पाई | अगले दिन सुबह होते ही वह बेअर के साथ तिलारह पर स्थित उस झोपड़ी में गई और अनुभव किया कि इस पहाड़ी पर उसके पिता को कितने बुरे दिन बिताने पड़े थे । सबीता ने लड़की से उस डॉक्टर के बारे में पूछा, जिसने उनके पिता का इलाज किया था |

भायर ने कहा कि वह ऐसा करने में तो समर्थ नहीं है, किन्तु अगर सबिता चाहे तो वह उसे उस समय की नर्स से अवश्य मिलवा सकती है | उसके बाद वे उस नर्स के घर पहुँचे | नर्स का नाम राजदुलारी टिक्कू था और वह अपनी माँ के साथ रहती थी । जब सबिता ने अपना परिचय दिया, तो नर्स बहुत ही डर गई और कहा कि अब तुम जाओ, मैं कुछ नहीं कह सकती। सबिता ने राजदुलारी के पैर पकड़ लिए | उसकी आँखों से बहते आंसुओं ने राजदुलारी का दिल भी पिघला दिया और वह भी दुखी हो गई ।

राजदुलारी ने कहा कि डॉ अली मोहम्मद ने उसे एक काम दिया था कि अगर श्यामप्रसाद जाग जाएँ, तो वह उन्हें इंजेक्शन दे दे, और राजदुलारी ने ऐसा किया। श्यामप्रसाद जैसे ही होश में आये, वे चिल्लाने लगे | मैं घबरा गई और मैंने तुरंत डॉ. अली मोहम्मद को सूचित किया । किन्तु डॉ. ने कहा कि कोई ख़ास बात नहीं है, सब ठीक है | किन्तु हकीकत में कुछ भी ठीक नहीं था, सब समाप्त हो चुका था | रुंधे कंठ से भयभीत राजदुलारी बोली |

राजदुलारी ने आगे कहा - "मुझसे जो पाप हुआ है, वह मैं आपको नहीं बता सकती। आज के बाद आप कभी मुझसे मिल भी नहीं पाएंगी, मैं और मेरी माँ इस घर को छोड़कर कहीं अन्यत्र रहने लगेंगी, क्योंकि यह वह राज्य है, जहाँ अगर किसी को यह भनक भी लग गई कि मैंने आपको कुछ बताया है, तो मुझे मार दिया जाएगा।

डॉ. श्यामाप्रसाद का पार्थिव शरीर 23 जुलाई को रात 9 बजे कोलकाता लाया गया । विराट जनसमुदाय रात को भी अपने प्रिय नेता को अंतिम विदाई देने के लिए कोलकता विमान तल पर एकत्रित था | उनमें बड़ी संख्या में पूर्वी बंगाल के वे शरणार्थी भी थे, जिनके लिए डॉ. मुखर्जी ने अपना केंद्रीय मंत्रीपद भी छोड़ दिया था । कोलकता के डमडम हवाई अड्डे से भैनीपुर घर तक पहुंचने में पूरे सात घंटे लग गए --- बहुत से लोग पूरी रात घर के सामने खड़े रहे । चौबीस तारीख को उनकी अंतिम यात्रा प्रारम्भ हुई | भवानीपुर पुलिस स्टेशन से लेकर कालीघाट पोस्ट ऑफिस के सामने तक एक किलोमीटर से अधिक लंबा कारवां - अपार जनसमूह |

श्यामाप्रसाद जी की मौत के बाद डॉ. अली मोहम्मद और डॉ. रामनाथ पहर का संयुक्त बयान जारी हुआ कि उनकी मौत हार्ट फ़ैल हो जाने के कारण हुई । रात को ग्यारह बजे, उनका रक्तचाप कम हो गया था | उसके बाद उन्हें ऑक्सीजन और एमिनोफिलिन इंजेक्शन दिए गए । रात को एक समय तो ऐसा आया जब उनका रक्तचाप 90/70 तक नीचे चला गया, नब्ज डूबने लगी । तब उन्हें 1 सीसी पेथीडिन दिया गया । एट्रियम और श्वसन के प्रवाह में धीरे-धीरे कमी आई और उन्हें कोरम इंजेक्शन और ऑक्सीजन दिया जाना जारी रखा गया । किन्तु उसके बाद रात को 3 .40 पर उनकी धड़कन श्वांस बंद हो गई।

इसके बाद, शेख अब्दुल्ला के सामने एक विस्तृत बयान तैयार किया गया, जिसे कश्मीर के मंत्री पीएमएल सराफ के हस्ताक्षर से जारी किया गया । इस बयान में, सराफ ने कहा कि श्यामाप्रसाद का इलाज केवल उनकी देखरेख में हुआ | बयान के माध्यम से यह साबित करने की कोशिश की गई कि उनके इलाज में कोई कोताही नहीं हुई और वे अपनी कोटेज में 'बहुत ठीक' थे ।

उनकी मृत्यु की खबर के बाद, देश के कई प्रमुख डॉक्टरों ने उनके इलाज को लेकर गंभीर संदेह व्यक्त किये |

एमडी डॉ. एन बी खारी ने कहा कि जब भी डॉक्टरों को यह संदेह होता है कि मरीज को हृदय से सम्बंधित समस्याएं हैं, तब यह ध्यान रखा जाता है कि वह घायल न हो | इसके अलावा, जब उनका ब्लडप्रेशर कम हो गया था, तो उन्हें अमीनोफिलिन के बिना, इंटरवीनस डिकंट्रोल ड्रिप दी जानी चाहिये थी |

कोलकाता के दो प्रमुख डॉक्टर, नलिनी रंजन सेनगुप्ता एमडी और अमलकुमार राय चौधरी ने कहा कि जो गलत इलाज हुआ, उसकी जांच करना आवश्यक था | डॉ. अंबालाल शर्मा की अगुआई में गठित मेडिकल बोर्ड, जिसमें पटना मेडिकल कॉलेज के प्रिंसिपल डॉ टीएन बनर्जी और डॉ. अजमल सम्मिलित थे, उसका भी यही निष्कर्ष था कि डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी का इलाज गलत हुआ था।

हमें इस सभी मेडिकल साइंस से सम्बंधित वारीकियों में जाने की ज़रूरत नहीं है, लेकिन क्या उनकी चिकित्सा को लेकर उठे कई सवाल संदेहास्पद नहीं हैं ? उसके साथ ही पूर्व वर्णित वह प्रसंग, जिससे स्वयं पठानकोट जिले का डिप्टी कमिश्नर भी चौंक गया था।

और श्यामप्रसाद मुखर्जी कोई सामान्य व्यक्ति नहीं थे, वे न केवल सांसद थे, बल्कि विपक्ष के प्रतिभाशाली सितारों में से एक थे । क्या इसे देखते हुए, उनकी संदेहास्पद मृत्यु की कम से कम एक न्यायिक जांच नहीं होनी चाहिए थी ? और यही मांग उनकी मां जोगमाया देवी ने नेहरू जी से की थी । किन्तु दम्भी नेहरू ने उनकी मांग को खारिज कर दिया और कहा कि मैंने जो जानकारियाँ प्राप्त की हैं, उनके अनुसार डॉ. मुखर्जी का इलाज ठीक से किया गया था। मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है, अतः जांच की कोई ज़रूरत नहीं है ।

यहां ध्यान दीजिये कि नेताजी सुभाष चंद्र की गुमशुदगी को लेकर पांच-पांच जांच आयोग गठित किए गए – भारत में शाह नवाज, खोसला और मुखर्जी आयोग के अलावा, फीगेस की ब्रिटिश रिपोर्ट और एक जापानी जांच |

गांधी जी की मौत पर कपूर आयोग बनाया गया, जबकि उनकी हत्या कई लोगों के सामने हुई थी ।

लेकिन यह आदमी उत्पीड़कों के उत्पीड़न के कारण अपने प्रियजनों से सदा के लिए दूर चला गया, लेकिन कोई जांच नहीं हुई। लेकिन बलिदान कभी व्यर्थ नहीं जाता – पंडित दीनदयाल उपाध्याय और कई अन्य लोगों की आत्माहुति रंग लाई है, और आज उनका उत्तराधिकारी प्रधान मंत्री की सीट पर है।

प्रस्तुत आलेख त्रिपुरा के वर्तमान राज्यपाल श्री तथागत रॉय की पुस्तक 'The Life and Times of Dr. Syama Prasad Mukherjee” का सारांश है | पुस्तक का प्रकाशन “प्रकाश प्रकाशन” द्वारा किया गया है ।

एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें