‘भाई तारू सिंह’ एक वीर सिख जिसने अपनी खोपड़ी उतरवा ली पर धर्म नहीं त्यागा

“सिर जाए तां जाए, मेरा सिखी सिदक ना जाए”... गुरबानी का यह कथन सिख धर्म में अपने गुरु ‘केश’ (बालों) की रक्षा करने की सीख देता है। एक ऐसा धर्म जिसमें उसूल ही सब कुछ है। अपने गुरु की मर्यादाओं पर चलना, उन्हें प्रेम भाव से समझना और हर एक नियम का दिल से आदर एवं सम्मान करना सिख धर्म की पहचान है।

इन्हीं नियमों को मरकर भी मरने ना देने की कसम खाई थी ‘भाई तारू सिंह’ ने। एक ऐसा सिख जिनका नाम सिख धर्म के इतिहास में गर्व से लिया जाता है। उनकी शहीदी को कोई भी सिख भाई भूल नहीं सकता, यही कारण है कि उनके नाम तारू सिंह के सामने सिख उन्हें भाई लगाकर सम्मान देते हैं। अपने धर्म का निरादर ना होने देने का वचन उन्होंने आखिरी सांस तक निभाया।

भाई तारु सिंह जी का जन्म 6 अक्टूबर 1720 को गाँव पुहला अनृतसर मेँ हुआ ! इनके पिताजी का नाम भाई जोध सिंह था जो पहले लड़ाई मेँ शहीद हो गए थे ओर ओर माता जी का नाम धर्म कौर था ! भाई जी की एक बहन तार कौर थी ! 1745 ईस्वी का जो समय था उस समय पँजाब में जक्रिया खान का राज़ था। जक्रिया खान पँजाब में सिक्खों पर आतंक फ़ैला रहा था। जक्रिया खान की सैनिक टुकड़ियां द्वारा खोज- खोज कर सिक्खों की हत्यां की जा रही थी। कुछ सिख परिवार आपने घरों को छोड़कर जंगलों में जा छुपे थे।

भाई तारू सिंह जी उस समय बहुत जाने -माने थे। 25 वर्षीय भाई तरु सिंह के परिवार में उसकी बहन तथा माता जी थी। भाई तारू सिंह जी ने विवाह नहीं करवाया था। वह बहुत ही दयालु व्यक्ति थे। भाई तारू सिंह जी दुखी लोगों की सहायता करते थे। भाई तारू सिंह जी नम्र दिल इन्सान थे।

तारू सिंह सिख धर्म में सच्ची निष्ठा एवं विश्वास रखते थे। धर्म ही उनका सब कुछ था और उसके लिए वे कुछ भी करने को उतारू थे। भाई तारू सिंह जी को एक बार सूचना मिली के निकट के जंगलों में कुछ सिक्ख और उनके परिवारों ने शरण ली हुई है। तभी भाई तारू सिंह जी ने सिक्खों की सहायता करने की योजना बनाई। भाई तारू सिंह जी सिक्खों लिए लंगर तैयार करवाते और जंगलों में देने भी खुद जाते थे। इस तरह भाई तारू सिंह जी सिक्खों की हर प्रकार से सहायता करते थे। एक दिन तारू सिंह के यहां रात्रि में विश्राम के लिए जगह खोजते हुए रहीम बख्श नाम का एक मछुआरा आया। तारू सिंह ने ना केवल उसकी सहायता कि बल्कि उसे पेट भर भोजन भी कराया।

रात्रि के दौरान मित्र भावना से रहीम बख्श ने तारू सिंह से एक बात बांटना सही समझा। उसने बताया कि पट्टे जिले के कुछ मुगल उसकी बेटी को अग़वा कर ले गए हैं इसीलिए वह उनसे नज़र चुराता घूम रहा है। उसने इसकी शिकायत कई जगह की लेकिन उसकी पुकार सुनने वाला कोई नहीं है। तारू सिंह मुस्कुराया और कहा कि तुम चिंता मत करो, कोई और नहीं तो गुरु के दरबार में तुम्हारी पुकार पहुंच गई है। जल्द ही तुम्हें तुम्हारी बेटी मिल जाएगी। अगले दिन रहीम बख्श वहां से चला गया लेकिन तारू सिंह ने बिना किसी स्वार्थ से उसकी मदद करनी चाही। उसने सिखों के एक गुट को यह बात बताई जिसके बाद उन बहादुर सिखों ने पट्टी के उन मुगलों के यहां घुसकर उन्हें मार-पीटकर रहीम बख्श की बेटी को रिहा कराया। यह खबर मिलने पर तारू सिंह बेहद प्रसन्न हुए लेकिन कोई था जिसे यह बात बिल्कुल भी गवारा नहीं थी। किसी खबरी ने रहीम बख्श की बेटी के रिहा होने के पीछे तारू सिंह का हाथ है, इसकी खबर उस क्षेत्र के मुगलिया सरदार ‘ज़कारिया खान’ तक पहुंचा दी। ज़कारिया खान गुस्से से आग बबूला हो गया, उसने फ़ौरन अपने सैनिकों से कहकर तारू सिंह को गिरफ्तार कर पकड़कर लाने को कहा।

आज्ञा पाकर सैनिक जल्द से जल्द तारू सिंह के घर पहुंच गए। आश्चर्य की बात तो यह है कि अपनी गिरफ्तारी की खबर सुनकर भी तारू सिंह परेशान ना हुआ, बल्कि उसने भोजन के समय को देखते हुए सैनिकों से पहले कुछ खाने का आग्रह किया। तारू सिंह के कई बार कहने पर सैनिक मान गए और भोजन करने के बाद ही उसे गिरफ्तार करके ज़कारिया खान के दरबार में ले गए। अपने दरबार में एक सिख को कैदी देख ज़कारिया खान बहुत खुश हुआ। उसने कई बार सिख बहादुरों के किस्से सुने थे। सिख कभी किसी से डरते नहीं हैं यह बात वह अच्छी तरह से जानता था लेकिन यहां उसने अपने दिमाग को होशियारी से चलाना सही समझा। उसने सोचा यदि किसी तरह से वह तारू सिंह को इस्लाम कबूल करने के लिए राज़ी कर ले तो शायद उसकी तरह ही अन्य सिख धर्म को मानने वाले लोग भी इस्लाम की ओर अपना झुकाव बढ़ा दें। जिसके परिणामस्वरूप उसकी ताकत बढ़ती जाएगी, लेकिन उसकी यह सोच कोई रंग ना ला पाई।

ज़कारिया खान ने तारू सिंह से कहा, “तारू सिंह... तुमने जो किया वह माफी के लायक बिलकुल नहीं है, लेकिन मैं तुम्हे एक शर्त पर छोड़ सकता हूं। तुम इस्लाम कबूल कर लो, हमारे मित्र बन जाओ मैं तुम्हारी सभी गलतियों को नजरअंदाज कर दूंगा।“

ज़कारिया खान का प्रस्ताव पाते ही पहले तो तारू सिंह मुस्कुराया फिर बोला कि चाहे जान चली जाए लेकिन वह अपने गुरुओं के साथ गद्दारी कभी नहीं करेगा। तारू सिंह ज़कारिया खान की तरकीब को भली-भांति समझ चुका था इसलिए उसने बिना किसी भय के भरे दरबार में ज़कारिया खान को ललकारा। गुस्से में आकार ज़कारिया खान ने तारू सिंह को कैदखाने में बंद करवा दिया। रोज़ाना बहुत लोग आते और तारू सिंह को विभिन्न लालच देते हुए इस्लाम कबूल करने को कहते लेकिन वो सबके लिए एक अच्छा जवाब तैयार रखता था। अंतत: ज़कारिया खान ने तारू सिंह को सज़ा देने का फैसला किया।

उसे दो बड़े पहियों के बीच बांध दिया गया, कई तसीहे दिए गए लेकिन तारू सिंह ने उफ़ ना किया। आखिरकार ज़कारिया खान ने तारू सिंह के सिख धर्म से जुड़े कट्टर विश्वास को तोड़ने के लिए उसके बाल ही काट देने का फैसला किया। एक नाई भाई तारू सिंह जी के केस काटने लगा। भाई तारू सिंह जी को जंजीरों से बाँधा गया था। इस प्रकार भाई तारू सिंह जी ने प्रभु से प्राथना की मेरी सिक्खी हौसले के साथ निभ जाये। तभी भाई तारू सिंह जी की प्राथना प्रभु ने सुन ली। जैसे ही नाई केस काटने लगता केस कट ही नहीं रहे थे। इस प्रकार जक्रिया खान ने मोची को बुलाने का आदेश दिया। ऐसा ही किया गया ,मोची ने भाई तारू सिंह जी की खोपड़ी उतार दी गई। और भाई तारू सिंह जी को लाहौर के क़िले के बाहर बैठा दिया गया।

भाई तारू सिंह जी ने प्रभु का धन्याबाद किया उनका विश्वास था के उनकी सिक्खी केशो -शबासों के साथ निभ गई है। अगले दिन जब जक्रिया खान क़िले से बाहर निकला तो उसने भाई तारू सिंह जी को जीवित पाया। और कहने लगा अभी तुम्हे मौत नही आई और भाई तारू सिंह जी ने कहा जक्रिया खान तुम्हें जुतों के साथ लेकर जाना है। और फिर जक्रिया खान के पसीने छूट गए। और जक्रिया खान के पेट में दर्द शुरू हो गया और पेशाब बन्द हो गया,बहुत से हकीमों को बुलाया गया। परन्तु उसका दर्द बढ़ता ही चला गया। जक्रिया खान को भाई तारू सिंह जी के कहे शब्द याद आने लगे।

उसने जल्द से जल्द खालसा पंथ के अनुयायी के पास क्षमा पत्र भिजवाया और तकलीफ का उपाय भी पूछा। तो उन्होंने बताया कि उसकी समस्या का हल भी स्वयं तारू सिंह ही है। तारू सिंह द्वारा पहने गए जूते को यदि ज़कारिया खान अपने सिर पर मारेगा तो उसे पेशाब आ जाएगा, लेकिन फिर भी वह जल्द ही मर जाएगा। लेकिन उसकी मौत के बाद ही तारू सिंह इस दुनिया को अलविदा कहेंगे।

और हुआ भी यही... ज़कारिया खान ने तारू सिंह का जूता मंगवाया और जैसे ही उसे अपने सिर पर मारा तो उसे पेशाब आया और कुछ राहत मिली। कुल 21 दिनों तक उसने यही किया लेकिन 22वें दिन वह मर गया। दूसरी और 1जुलाई 1745 ई़को भाई तारू सिंह जी को पता चली तो उन्होने भी उसके बाद अपने शरीर को त्याग दिया ,और गुरु के चरणों जा पहुंचे। इस प्रकार भाई तारु सिंह जी ने आपने केशों संग धर्म की रक्षा करते अपने प्राणोँ की आहुति दे दी ।

तारू सिंह की इसी बहादुरी को सिख धर्म ने सिर झुकाकर अपनाया और उसे तारू सिंह से ‘भाई तरू सिंह’ का दर्जा दिया। इतना ही नहीं भाई तारू सिंह को सम्मान देते हुए सिख धर्म की ‘अरदास’ में भी उनकी शहीदी को जगह दी गई। अरदास के एक कथन में ‘खोपड़ियां लुहाईयां’ बोला जाता है जो शहीद भाई तारू सिंह जी की याद में ही शामिल किया गया है।

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