शेरे पंजाब महाराजा रंजीत सिंह -


महाराजा रंजीत सिंह का जन्म गुजरांवाला में हुआ | उस समय पंजाब अनेक मिसलों में बंटा हुआ था | इनके पिताजी सुकर किया मिसल के राजा थे | पिताजी की मृत्यु के बाद 12 वर्ष की आयु में विषम परिस्थितियों में इन्होने राज्य संभाला | अपने पराक्रम से पूरे पंजाब को एक राज्य के रूप में संगठित किया | पहली आधुनिक सिख सेना का गठन भी इन्होने ही किया | उनकी ताकत और हैसियत का अंदाजा इस बात से लगा सकते है कि उन्होंने जहां एक ओर अफगानी आक्रांताओं को न केवल खदेड़ा बल्कि उनसे कोहिनूर सरीखा बेशकीमती हीरा तक हासिल किया | कश्मीर से लेकर पेशावर और मुल्तान तक उनके साम्राज्य में शामिल थे। इन इलाकों को जीतने के बाद उन्होंने अपने तीन बेटों के नाम कश्मीरा, पेशुरा और मुल्तान सिंह रखे । जब वे महज 10 साल के थे तब चेचक के कारण अपनी एक आंख गंवा बैठे थे मगर उनकी शख्सियत का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि जब एक बार अंग्रेज शासकों ने उनके एक सिपहसालार को मोटी बख्शीश देकर यह जानना चाहा कि उन्हें कौन-सी आंख से नहीं दिखता है तो उसने छूटते ही जवाब दिया कि महाराजा के चेहरे पर इतना तेज है कि मैंने कभी उनसे नजरे मिलाने की हिम्मत ही नहीं की।

उनकी 20 रानियां व 26 रखैलें थीं । एक प्रसंग बड़ा अनोखा है | उन्होंने दो मुसलमान नाचने गाने वालियों बीबी मेहरान और गिलबहार बेगम से शादी की। इससे सिख खासतौर से निंहग काफी नाराज हो गए। उस समय निहगों के जत्थेदार बाबा फूलसिंह अकाल तख्त के भी जत्थेदार थे। उन्होंने उन्हें इस गलती की सजा देने के लिए अकाल तख्त पर हाजिर होने का निर्देश दिया | महाराज रंजीतसिंह अकाल तख़्त के सम्मुख हाजिर हुए | जब वे वहां पहुंचे तो उन्हें 100 कोड़े मारे जाने की सजा सुनाई गई। इतने बड़े राज का स्वामी होते हुए भी उन्होंने तुरंत झुक कर अपनी पीठ आगे कर दी। यह देखकर बाबा फुलसिंह ने वहां मौजूद सिख संगत से पूछा कि क्या इन्हें माफ कर दिया जाए ? संगत ने जो बोले सो निहाल का जयकारा लगाया और उन्हें माफ कर दिया। अमृतसर के गुरुद्वारे में संगमरमर लगवाने वाले तथा सोना मढ़वाने बाले महाराज रंजीत सिंह ही थे |

वे शराब का सेवन करते थे मगर धूम्रपान और गोमांस नहीं खाते थे। उनके राज्य में कोई भी गोमांस नहीं खा सकता था। उनकी सेना में मुसलमान व यूरेपीयन भी थे पर उन्हें यह कसम खानी पड़ती थी कि वे लोग न तो धूम्रपान करेंगे और न ही गोमांस खाएंगे, न ही बाल कटवाएंगे।

उनकी आख़िरी शादी 1835 में एक राजकुमारी जिंदन कौर से हुई | वे उस समय 58 साल के थे व जिंदन कौर 18 साल की थी। चार साल बाद उससे सिख साम्राज्य का अंतिम वारिस दिलीप सिंह पैदा हुआ। अपने जीवन के अंतिम दिनों में उनका लिवर खराब हो गया व 27 जून 1830 को नींद में ही उनका निधन हो गया।

उनके अंतिम संस्कार के समय उनकी चार पत्नियां व सात रखैले उनके साथ सती हो गई। उनकी मौत के साथ ही सिख साम्राज्य का बिखराब शुरू हुआ। सत्ता के आपसी संघर्ष में उनके तीन बेटे मारे गए। उनकी सबसे छोटी रानी जिंदन कौर बहुत तेज थी। अंग्रेज भी उससे घबराते थे। ब्रिटिश शासकों ने उसके बेटे दिलीप सिंह को शासक तो मान लिया जोकि उस समय महज चार साल के थे मगर वे जिंदन कौर द्वारा किए जाने वाले प्रशासनिक मामले में हस्तक्षेप से खुश नहीं थे। इसलिए उन्होंने दिलीप सिंह को दूसरे एंग्लो-सिख युद्ध के बाद उनकी कुर्सी से हटा दिया। उनकी मां को जेल में डाल दिया व इस बालक को महज 10 साल की आयु में अप्रैल 1849 में डा जान लागिन को सौंप दिया जिनकी जिम्मेदारी थी कि उन्हें पूरी तरह से अंग्रेजी परिवेश में पाला जाए व उन्हें ईसाई धर्म में दीक्षित किया जाए। उन्होंने दिलीप सिंह को काफी अरसे तक पूर्वी उत्तर प्रदेश में रखा। उन्हें अंग्रेजों की तरह पाला।

इस किशोर को बाहरी लोगों से मिलने-जुलने की अनुमति नहीं थी। बाद में उन्हें इंग्लैंड भेज दिया गया। वे साढ़े 13 साल तक अपनी मां से दूर रहे। इंग्लैंड में क्वीन विक्टोरिया उन्हें अपने बच्चे की तरह मानती थी। उन्हें वहां अच्छे इलाके में मकान खरीद कर दिया। बाद में वे स्काटलैंड बस गए और वहां के एल्वेडान इलाके में उन्होंने 17,000 एकड़ जमीन खरीद कर वहां अपना महल, स्कूल व चर्च बनवाए। बड़ी मुश्किल से डालमिया की मदद से उन्हें अपनी बीमार मां से मिलने की इजाजत मिली और वे 1861 में उनसे मिलने के लिए कलकत्ता आए औ मां को अपने साथ ही इंग्लैंड ले गए।

उनकी मां काफी बूढी हो चुकी है व उन्हें बहुत कम दिखाई देता था। उन्होंने दिलीप सिंह को अपने अतीत व सिख परंपराओं के बारे में बताया, जिसे सुनते ही अंग्रेजों की सारी मेहनत पर पानी फिर गया और वे पुनः सिख बन गए। उन्होंने नेपाल से लेकर रूस तक से पंजाब को ब्रिटिश शासन से मुक्त करवाने के लिए मदद मांगी पर उनके हाथ निराशा ही रही। उन्होंने एक विदेशी महिला से शादी की जिसकी मां अफ्रीकी व पिता जर्मन थे। उससे उनके 6 बच्चे हुए। वे भारत आने के लिए बेताब थे अतः जहाज से पूरे परिवार के साथ वहां के लिए रवाना हो गए व उन्हें अदन में पकड़ लिया गया।

उनका परिवार तो वापस ब्रिटेन लौट गया मगर वे वहां से पेरिस चले गए। जहां 1893 में 55 साल की आयु में उनका निधन हो गया। वे चाहते थे कि उनका शव भारत ले जाया जाए। जहां हिंदू रीति-रिवाज से उनका अंतिम संस्कार किया जाए मगर ब्रिटिश सरकार ने ऐसा नहीं होने दिया। उसे खतरा था कि अगर ऐसा किया गया तो हिंदुस्तान में पंजाब के लोग बगावत पर उतर आएंगे। जिस महाराज ने महज 5 साल की उम्र में सिंहासन हासिल किया था व लाहौर संधि के तहत किए गए छल के कारण कोहिनूर हीरा महारानी को दिया था उसके अंतिम दिन बहुत मुफलिसी में बीते। उन्होंने पेरिस के एक होटल में अंतिम सांसें ली।

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