आपातकाल और वर्तमान – एक यथार्थपरक आंकलन – प्रफुल्ल केतकर


"जवाहरलाल नेहरू द्वारा स्थापित नेशनल हेराल्ड ने आपातकाल का लगातार समर्थन किया, और यहाँ तक कि उन दिनों सावधानीपूर्वक अपना वह घोष वाक्य भी हटा दिया, जिसमें उद्धृत किया गया था - 'स्वतंत्रता खतरे में हो तो उसे अपनी पूरी सामर्थ्य से बचाओ।' - कूमी कपूर, द इमरजेंसी: ए पर्सनल हिस्ट्री, पेंगुइन , 2016

तत्कालीन प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा 25 जून, 1 9 75 को राष्ट्रपति के एक अध्यादेश द्वारा राष्ट्रीय आपातकाल घोषित कर दिया गया, जिसे 'भारत के लोकतंत्रीय इतिहास की सबसे काली अवधि' कहा जाता है। कल जबकि भारतीय लोकतंत्र पर हुए उस सबसे भयावह आक्रमण की वर्षगांठ है, उन घटनाओं के पुनर्स्मरण का यह सही समय है।

यह इसलिए भी आवश्यक है, क्योंकि हाल ही में, कई राजनेताओं और कुछ मीडिया घरानों ने 'वर्तमान परिस्थिति की तुलना आपातकाल से करते हुए आरोप लगाया है कि आपातकाल जैसी स्थिति पैदा की जा रही है और लोकतंत्र को नष्ट किया जा रहा है । वंशवादी राजनीति के उत्तराधिकारी, राहुल गांधी ने नेशनल हेराल्ड के स्मरणीय संस्करण का शुभारंभ करते हुए कहा कि 'यह सरकार सभी को चुप रहने को मजबूर कर रही है, लेकिन नेशनल हेराल्ड में एक भावना है- एक बहुत मजबूत भावना है और यह चुप नहीं होगा'। जबकि तथ्य यह है कि केवल और केवल नेशनल हेराल्ड ने ही चुपचाप आपातकाल का समर्थन किया था और अब जबकि वित्तीय अनियमितताओं के आरोपों में पकड़ा गया है, परिवार की रुदाली प्रशंसा योग्य है ।

मीडिया और जो लोग, विशेष रूप से युवा सोशल मीडिया जैसे डिजिटल प्लेटफॉर्म पर सक्रिय हैं, साथ ही जिन्होंने वह काला आतंकी समय नहीं अनुभव किया, उन्हें आपातकाल की वास्तविक भयावहता का स्मरण कराना आवश्यक है । अन्यथा इस धारणा को बल मिलेगा कि सरकारी एजेंसियों द्वारा किसी मीडिया हाउस या वित्तीय अनियमितता से संबंधित कंपनी के खिलाफ कोई भी जांच, विरोध का मुंह बंद करने के लिए की जा रही है |

जो लोग आतंकवाद और आतंकवादियों के पक्ष में खड़े होते हैं, उनके समर्थन में और देश के विरोध में नारे लगाते है, असलियत में तो वे ही राष्ट्रीय विपत्ति है |

आईये अब बात करते हैं, 25 जून, 1 9 75 के आखिरी घंटों की, जब तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत राष्ट्रीय आपातकाल की इस आधार पर घोषणा की कि - " आंतरिक अशांति से भारत की सुरक्षा को खतरा है" । जबकि वास्तविक कारण यह था कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 12 जून, 1 9 75 को चुनावी भ्रष्टाचार से जुड़े मामले में श्रीमती गांधी को दण्डित किया था । मजाक तो देखिये कि आपातकाल की औपचारिक घोषणा से पूर्व कानून के मुताबिक अध्यादेश को कैबिनेट द्वारा स्वीकार भी नहीं किया गया था और -जून 25-26, 1 9 75 की रात-पुलिस ने जयप्रकाश नारायण समेत सभी प्रमुख विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया। नागरिक अधिकारों को निलंबित कर दिया गया और संविधान के मूल चरित्र को बदलकर मीसा जैसे कठोर कानूनों को मजबूत कर दिया गया । गैर-कांग्रेस पार्टियों के नेतृत्व में आठ से ज्यादा लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई राज्य सरकारों को एक दिन में ही गिरा दिया गया था।

मीडिया के साथ जो हुआ, वह बहुत ही भयानक था। प्रेस पर सख्त सेंसरशिप लगाई गई थी और समाचार पत्रों (संपादकों) द्वारा आपातकाल के खिलाफ किसी भी प्रकार के विरोध को वित्तीय प्रतिबंधों या क्रूर दमनात्मक कार्यवाही के माध्यम से रोक दिया गया था। ओर्गेनाईजर साप्ताहिक सहित अधिकांश समाचार पत्र, प्रकाशित नहीं हो पाए, क्योंकि सरकार ने उन्हें "लाइन से बाहर" मानकर उनकी बिजली आपूर्ति काट दी । कई विदेशी संवाददाताओं को हटा दिया गया था और 40 से अधिक पत्रकारों की मान्यता वापस ले ली गई थी । राज्य के पूर्ण एकाधिकार वाले रेडियो और दूरदर्शन का इस्तेमाल प्रचार मशीनरी के रूप में किया जाता था। इतना ही नहीं तो चार निजी समाचार एजेंसियों को एक इकाई में विलय करने के लिए मजबूर किया गया, ताकि समाचारों पर निगरानी आसान हो सके।

आरएसएस जैसे सामाजिक और देशभक्त संगठनों पर प्रतिबंध लगा दिया गया था और हजारों स्वयंसेवकों को गिरफ्तार किया गया था। यद्यपि कई स्वयंसेवक भूमिगत हो गए तथा उन्होंने सत्याग्रह जैसी गतिविधियों का संहालन किया | इस त्रासदी के दौरान अनेक लोग सदा के लिए अपने परिवारों से दूर हो गए, जिनका कभी कोई पता नहीं मिला | अनेक परिवार लोकतंत्र पर हुए इस भीषण हमले के आघात से कभी बाहर नहीं आ पाए ।

यह था वास्तविक आपातकाल, क्या आज हम वैसा ही अनुभव कर रहे हैं? वास्तविकता यह है कि 21 महीने के उस असभ्य शासन काल के समाप्त हो जाने के बाद भी आपातकाल लगाने वाले लोगों के मन में वही मानसिकता कायम रही है । बाद में जब वे ही लोग सत्तारूढ़ हुए, पुनः विज्ञापन नीतियों के माध्यम से मीडिया को नियंत्रित करना तथा व्यक्तिगत हितों के लिए सरकारी संसाधनों को लूटना, उनका ध्येय बन गया | भारत और भारतीयता की हमारी राष्ट्रीय पहचान को नष्ट करने के प्रयत्न हुए । 'धर्मनिरपेक्षता' और 'मानवाधिकार' जैसे शब्दों की गलत व्याख्या की गई, ताकि वोट बैंक की राजनीति के तहत किये जा रहे घनघोर सांप्रदायिक कृत्यों को सही ठहराया जा सके और हिंसक, राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों का संरक्षण किया जा सके। सोशल मीडिया के आगमन के साथ, यह सब अब समझ में आने लगा है । अब सरकार या उसकी एजेंसियां ही सर्वेसर्वा नहीं हैं, जानकारियाँ अब डिजिटल प्लेटफार्मों सक्रिय आम लोगों के माध्यम से ज्यादा प्रभावी ढंग से साझा हो रही हैं | लोग सवाल उठाते हैं, प्रश्न –प्रति प्रश्न करते हैं । केंद्र में जो राजनीतिक बदलाव हुआ है, उसमें इस परिवर्तनकारी कथा की भी बड़ी भूमिका है, जिससे कई लोगों के पेट में मरोड़ उठ रही है, उन्हें यह स्थिति स्वीकार्य नहीं है।

यह सच है कि 'स्वतंत्रता की कीमत अनन्त सतर्कता' है, उसी तरह हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि रस्सी का हर टुकड़ा सांप नहीं हैं। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि किसी मतिभ्रम से असली सांप नज़रों से ओझल हो सकता है, इसलिए सतत सिंहावलोकन आवश्यक है, आपातकाल की वर्षगाँठ को उसकी बरसी बनाएं, उस मानसिकता की अर्थी उठायें |

साभार आधार – ओर्गेनाईजर



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