भारत के निर्भीक और क्रांतिकारी पत्रकार जिनसे आज के पत्रकारों को लेनी चाहिए प्रेरणा - दिवाकर शर्मा

सामान्य तौर पर यदि चर्चा करें तो सामाजिक सरोकारों तथा सार्वजनिक हित से जुड़कर ही पत्रकारिता सार्थक बनती है। सामाजिक सरोकारों को व्यवस्था की दहलीज तक पहुँचाने और प्रशासन की जनहितकारी नीतियों तथा योजनाओं को समाज के सबसे निचले तबके तक ले जाने के दायित्व का निर्वाह ही सार्थक पत्रकारिता है ! पत्रकारिता के इतिहास पर नजर डाले तो स्वतंत्रता के पूर्व पत्रकारिता का मुख्य उद्देश्य स्वतंत्रता प्राप्ति में सहयोग का था ! स्वतंत्रता के लिए चले आंदोलन और स्वाधीनता संग्राम में पत्रकारिता ने अहम और सार्थक भूमिका निभाई ! उस दौर में पत्रकारिता ने पूरे देश को एकता के सूत्र में पिरोने के साथ-साथ पूरे समाज को स्वाधीनता की प्राप्ति के लक्ष्य से जोड़े रखा !

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में पत्रकारों के योगदान की आज चर्चा करनी पड़ रही है, परंतु जिस समय स्वतंत्रता संग्राम चल रहा था, उस समय इसकी आवश्यकता नहीं थी ! संचार क्रांति तथा सूचना के आधिकार के अलावा आर्थिक उदारीकरण ने पत्रकारिता के चेहरे को पूरी तरह बदलकर रख दिया है ! विज्ञापनों से होने वाली अथाह कमाई ने पत्रकारिता को काफी हद्द तक व्यावसायिक बना दिया है ! मीडिया का लक्ष्य आज अधिक से अधिक कमाई का हो चला है ! मीडिया के इसी व्यावसायिक दृष्टिकोण का नतीजा है कि उसका ध्यान सामाजिक सरोकारों से कहीं भटक गया है ! मुद्दों पर आधारित पत्रकारिता के बजाय आज इंफोटेनमेंट (मनोरंजन अधिक समाचार कम) ही मीडिया की सुर्खियों में रहता है !

यह कहना अनुचित नहीं होगा कि स्वतंत्रता संग्राम के समय की पत्रकारिता के मुकाबले वर्तमान पत्रकारिता अब बिलकुल बदल चुकी है ! तब यानी स्वतंत्रता के पूर्व पत्रकारिता "मिशन" थी ! किंतु स्वतंत्रता के बाद यानी अब "कमीशन" हो गई है ! तब पत्रकारों के "मूल्य" होते थे, अब उनकी "कीमत" हो गई है ! तब पाखंड का पर्दाफाश करने के लिए अखबार निकाले जाते थे, अब पाखंड पर पर्दा डालने के लिए भी अखबार निकाले जाते हैं ! तब पत्रकारिता "कांटों का ताज" थी, अब पत्रकारिता "सुविधाओं का साज" है ! तब पत्रकारिता "संस्कार की साधना" थी, अब "व्यापार की कामना" है ! 

ऐसा नहीं है कि मूल्यनिष्ठ पत्रकारिता वाले कुछ अखबार नहीं है, परन्तु उन्हें समय समय पर "सरकार" और समाजकंटकों का कोपभाजन बनना पड़ता है ! आज के पत्रकार जगत में ईमानदार पत्रकार ठीक उसी प्रकार पाए जाते है जैसे रेगिस्तान में नखलिस्तान ! ऐसे ईमानदार पत्रकारों को सच को उजागर करने में न जाने कितनी कठनाइयों का सामना करना पड़ता है ! आज जरूरत इस बात की है कि ईमानदार पत्रकारों का सम्मान हो और "बिकाऊ" पत्रकारों को बाहर की राह दिखाई जाए ! आज इस लेख के माध्यम से हम आपको ऐसे पत्रकारों की जानकारी उपलब्ध कराने जा रहे है जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में न सिर्फ बढ़ चढ़ कर भाग लिया बल्कि अपनी बेलाग लेखनी के माध्यम से जनता में एक अद्भुत जन चेतना का संचार किया जिससे गोरे अंग्रेजों की दुश्वारियां बढ़ गईं थी !

सूफी पत्रकार क्रन्तिकारी "अम्बाप्रसाद" 

वर्ष १८५८ में उ.प्र. के मुरादाबाद नगर में यानि सत्तावनी क्रांति के अगले ही वर्ष एक बालक ने जन्म लिया ! यह बालक जन्म से ही लुंज था, उसका दाहिना हाथ नहीं था ! बड़े होकर वह उसी हाथ की और ईशारा करते हुए कहा करते थे - "क्या करें भाई, बात यह है कि 57 की लड़ाई (क्रांति) में अंग्रेजों से लड़ते समय मेरा हाथ कट गया था ! फिर मृत्यु हो गयी, दूसरा जन्म भी शीघ्र ही मिल गया परन्तु मेरा दाहिना हाथ कटा का कटा ही रहा !
यह व्यक्ति थे पंजाब के महान क्रांतिकारी सूफी अम्बाप्रसाद ! इन अम्बाप्रसाद की समाधि आज ईरान में मौजूद है ! जहाँ ईरानी औरतें उस समाधि पर चादरें चढ़ाती है, मनौती मांगती है ! प्रतिवर्ष उस पर ईरानी जनता 'उर्स' करती है जिसमे भारी संख्या में लोग शिरकत करते है ! ईरान में सूफी जी का नाम 'आका सूफी' के रूप में सर्व विख्यात है ! आखिर क्या किया था उस भारतीय क्रांतिकारी ने, जिसे भारत के लोग तो भूल गए है लेकिन ईरान में उनकी 'मजार' को भी इतना प्यार-समादर प्राप्त है ? आज भी ईरान में उनका नाम बड़ी श्रद्धा से लिया जाता है पर अफ़सोस……….. हम अपनी क्रांति के इस महत्वपूर्ण स्तम्भ के बारे में जानते भी नही !

सूफी अम्बा प्रसाद के बारे में जानने के लिये कृपया यहाँ क्लिक करें 

गरम राष्ट्रवादी विचारों के पक्षधर लाल-बाल-पाल  

लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक और बिपिन चंद्र पाल को सम्मिलित रूप से लाल-बाल-पाल के नाम से जाना जाता था ! भारतीय स्वतंत्रता के संघर्ष में १९०५ से १९१८ तक की अवधि में वे गरम राष्ट्रवादी विचारों के पक्षधर और प्रतीक बने रहे ! वे स्वदेशी के पक्षधर थे और सभी आयातित वस्तुओं के बहिष्कार के समर्थक थे ! १९०५ के बंग भंग आन्दोलन में उन्होने जमकर भाग लिया ! लाल-बाल-पाल की त्रिमूर्ति ने पूरे भारत में बंगाल के विभाजन के विरुद्ध लोगों को आन्दोलित किया ! बंगाल में शुरू हुआ धरना, प्रदर्शन, हड़ताल, और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार देश के अन्य भागों में भी फैल गया !

लाला लाजपत राय जी पंजाब केसरी के नाम से प्रसिद्द हुए ! १९२० में जब जालियाबाला काण्ड हुआ तो इसके विरुद्ध अंग्रेजों के खिलाफ आन्दोलन छेड़ा ! एक आन्दोलन के दौरान अंग्रेजों के लाठीचार्ज से वे बुरी तरह घायल हुए जिसके पश्चात उनकी मृत्यु हुई !

“स्वराज हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है और हम इसे लेकर रहेंगे” सर्वप्रथम यह नारा बाल गंगाधर तिलक ने ही दिया ! डेकन एज्युकेशन सोसाइटी की स्थापना इन्होने ही की थी जहाँ भारतीय संस्कृति के विषय में पढाया जाता था ! तिलक स्वदेशी कार्यों से जुड़े रहे ! इन्होने पूरे भारत में घूम घूम कर लोगों में आजादी के प्रति चेतना जगाने का कार्य किया ! इनकी अंतिम यात्रा में महात्मा गांधी के साथ लगभग 20 हजार लोग शामिल हुए ! इनके क्रांतिकारी बौद्धिक के आगे गांधी भी नतमस्‍तक हुए, नेहरू ने इनके विचारों का लोहा माना, और वर्तमान प्रधानमंत्री मोदी भी इनके दीवाने है ! तिलक की पत्रकारिता राष्ट्रीयता से ओतप्रोत थी। राष्ट्रहित के सिवा उनकी पत्रकारिता का कोई उद्देश्य नहीं था ! स्वराज, स्वाधीनता, बहिष्कार, स्वदेशी' ये शब्द तिलक जी के राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत मुखर पत्रकारिता की देन है ! लोकमान्य तिलक की पत्रकारिता ने ही स्वतंत्रता आन्दोलन को व्यापक बनाया ! आज की मौजूदा पत्रकारिता को देखकर महसूस होता है कि तिलक की 'लोकमान्य' पत्रकारिता से कोसों दूर है, आज की भारतीय पत्रकारिता ! अगर हमें आज भी पत्रकारिता को उतना ही प्रासंगिक और जीवन्त बनाए रखना है, तो हमे लोकमान्य तिलक के उन्हीं सिद्धांतों और आदर्शों को शामिल करना होगा ! भारत माता के इस अमर सपूत और ओजस्वी पत्रकार पर समूचे देश को गर्व है ! भारतीय पत्रकारिता लोकमान्य तिलक की 'ओजस्वी पत्रकारिता' का हमेशा ऋणी रहेगा !

बिपिन चंद्र पाल एक भारतीय क्रांतिकारी, शिक्षक, पत्रकार व लेखक थे ! पाल उन महान विभूतियों में शामिल हैं जिन्होंने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की बुनियाद तैयार करने में प्रमुख भूमिका निभाई ! उन्हें भारत में क्रांतिकारी विचारों का जनक भी माना जाता है ! अपने ‘गरम’ विचारों के लिए मशहूर पाल ने स्वदेशी आन्दोलन को बढ़ावा दिया और ब्रिटेन में तैयार उत्पादों का बहिष्कार, मैनचेस्टर की मिलों में बने कपड़ों से परहेज तथा औद्योगिक तथा व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में हड़ताल आदि हथिआरों से ब्रिटिश हुकुमत की नीद उड़ा दी ! बिपिन चन्द्र पाल ने राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान आम जनता में जागरुकता पैदा करने में अहम भूमिका निभाई ! उनका मानना था कि ‘नरम दल’ के हथियार ‘प्रेयर-पीटिशन’ से स्वराज नहीं मिलने वाला है बल्कि स्वराज के लिए विदेशी हुकुमत पर करारा प्रहार करना पड़ेगा ! इसी कारण उन्हें स्वाधीनता आन्दोलन में ‘क्रांतिकारी विचारों का पिता कहा जाता है’ ! बहुत छोटी आयु में ही बिपिन ब्रह्म समाज में शामिल हो गए थे और समाज के अन्य सदस्यों की भांति वे भी सामाजिक बुराइयों और रुढ़िवादी परंपराओं का विरोध करने लगे ! उन्होंने बड़ी छोटी उम्र में ही जाति के आधार पर होने वाले भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाया और अपने से ऊंची जाति वाली विधवा से विवाह किया, जिसके पश्चात उन्हें अपने परिवार से नाता तोड़ना पड़ा ! पाल धुन के पक्के थे इसलिए पारिवारिक और सामाजिक दबाओं के बावजूद कोई समझौता नहीं किया ! उन्होंने लेखक और पत्रकार के रूप में बहुत समय तक कार्य किया ! परिदर्शक (1880), बंगाल पब्लिक ओपिनियन ( 1882), लाहौर ट्रिब्यून (1887), द न्यू इंडिया (1892), द इंडिपेंडेंट, इंडिया (1901), बन्देमातरम (1906, 1907), स्वराज (1908 -1911), द हिन्दू रिव्यु (1913), द डैमोक्रैट (1919, 1920),बंगाली (1924, 1925) ! 20 मई 1932 को इस महान क्रन्तिकारी का कोलकाता में निधन हो गया ! वे लगभग 1922 के आस-पास राजनीति से अलग हो गए थे और अपनी मृत्यु तक अलग ही रहे !

गणेश शंकर विद्यार्थी 

अपनी बेबाकी और अलग अंदाज से दूसरों के मुंह पर ताला लगाना एक बेहद मुश्किल काम होता है ! कलम की ताकत हमेशा से ही तलवार से अधिक रही है और ऐसे कई पत्रकार हैं, जिन्होंने अपनी कलम से सत्ता तक की राह बदल दी ! गणेशशंकर विद्यार्थी भी ऐसे ही पत्रकार थे, जिन्होंने अपनी कलम की ताकत से अंग्रेजी शासन की नींव हिला दी थी ! गणेशशंकर विद्यार्थी एक ऐसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, जो कलम और वाणी के साथ-साथ महात्मा गांधी के अहिंसक समर्थकों और क्रांतिकारियों को समान रूप से देश की आजादी में सक्रिय सहयोग प्रदान करते रहे ! 

वे लोकमान्य तिलक के राष्ट्रीय दर्शन से बेहद प्रभावित थे ! महात्मा गांधी ने उन दिनों अंग्रेजों के खिलाफ अहिंसात्मक आंदोलन की शुरूआत की थी, जिससे विद्यार्थी जी सहमत नहीं थे, क्योंकि वे स्वभाव से उग्रवादी विचारों के थे ! विद्यार्थी जी ने मात्र 16 वर्ष की अल्प आयु में ‘हमारी आत्मोत्सर्गता’ नामक एक किताब लिख डाली थी ! वर्ष 1911 में भारत के चर्चित समाचार पत्र सरस्वती में उनका पहला लेख आत्मोत्सर्ग शीर्षक से प्रकाशित हुआ था, जिसका संपादन हिंदी के उद्भट विद्धान, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा किया जाता था ! वे द्विवेदी के व्यक्तित्व एवं विचारों से प्रभावित होकर पत्रकारिता के क्षेत्र में आए ! श्री द्विवेदी के सानिध्य में सरस्वती में काम करते हुए उन्होंने साहित्यिक, सांस्कृतिक सरोकारों के प्रति अपना रुझान बढ़ाया ! इसके साथ ही वे महामना पंडित मदन मोहन मालवीय के पत्र ‘अभ्युदय’ से भी जुड़ गए ! इन समाचार पत्रों से जुड़े और स्वाधीनता के लिए समर्पित पंडित मदन मोहन मालवीय जी की राष्ट्रवादी विचारधारा का जन-जन में प्रसार कर सके !

गणेश शंकर विद्यार्थी की मृत्यु, कानपुर के हिंदू-मुस्लिम दंगे में असहायों को बचाते हुए 25 मार्च सन् 1931 ई. में हो गई ! विद्यार्थी जी सांप्रदायिकता की भेंट चढ़ गए थे ! उनका शव अस्पताल की लाशों के मध्य पड़ा मिला ! वह इतना फूल गया था कि, उसे पहचानना तक मुश्किल था ! नम आंखों से 29 मार्च को विद्यार्थी जी का अंतिम संस्कार कर दिया गया !

बाबूराव विष्णु पराडकर 

बाबूराव विष्णु पराड़कर (16 नवम्बर 1883 - 12 जनवरी 1955) हिन्दी के जाने-माने पत्रकार, साहित्यकार एवं हिन्दी सेवी थे ! उन्होने हिन्दी दैनिक 'आज' का सम्पादन किया ! भारत की आजादी के आंदोलन में अखबार को बाबूराव विष्णु पराड़कर ने एक तलवार की तरह उपयोग किया ! उनकी पत्रकारिता ही क्रांतिकारिता थी ! उनके युग में पत्रकारिता एक मिशन हुआ करता था !

एक जेब में पिस्तौल, दूसरी में गुप्त पत्र 'रणभेरी' | 'आज' और 'संसार' जैसे पत्रों को संवारने वाले, जुझारू तेवर की लेखनी के धनी पराडकरजी ने जेल जाने, अखबार की बंदी, अर्थदंड जैसे दमन की परवाह किए बगैर पत्रकारिता का वरण किया ! मुफलिसी में सारा जीवन बिताने वाले पराडकर जी ने आजादी के बाद देश की आर्थिक गुलामी के खिलाफ भी धारदार लेखनी चलाई ! मराठीभाषी होते हुए भी हिंदी के इस सेवक की जीवनयात्रा अविस्मरणीय है !

सन्‌ 1920 में नजरबंदी से छूटने पर वाराणसी आने के पश्चात 5 सितंबर को दैनिक 'आज' का प्रकाशन हुआ, जिससे वे उसकी रूपरेखा की तैयारी के समय से ही संबद्ध रहे ! पहले चार वर्ष तक संयुक्त संपादक और संपादक तथा बाद में मृत्यु पर्यंत प्रधान संपादक  रहे ! बीच में 1943 से 1947 तक 'आज' से हटकर वहीं के दैनिक 'संसार' के संपादक रहे ! वाराणसी में भी अपने पत्रकार जीवन के समय वर्षों तक उनका क्रांतिकारी गतिविधियों से सक्रिय संपर्क रहा !

सन्‌ 1931 में हिंदी साहित्य सम्मेलन के शिमला अधिवेशन के सभापति चुने गए ! सम्मेलन ने उन्हें 'साहित्य वाचस्पति' की उपाधि से विभूषित किया ! गीता की हिंदी टीका और प्रख्यात बँगला पुस्तक 'देशेर कथा' का हिंदी में अनुवाद आपने किया ('देश की बात' नाम से) ! हिंदी भाषा को सैकड़ों नए शब्द आपने दिए ! लिखने की विशिष्ट शैली थी जिसमें छोटे छोटे वाक्यों द्वारा गूढ़ से गूढ़ विषय की स्पष्ट और सुबोध अभिव्यक्ति होती थी ! मृत्यु वराणसी में 12 जनवरी 1955 को हुई !

करतारसिंह सराभा 

सरदार करतार सिंह सराभा क्रांतिकारी ही नहीं बल्कि वे एक पत्रकार भी थे तथा उन्होंने समाज को जगाने के लिए जो कदम उठाए वे आज भी देश सेवा के पथ पर चलने वालों के लिए आदर्श हैं ! कर्तार सिंह सराभा (जन्म: २४ मई १८९६ - फांसी: १६ नवम्बर १९१५) भारत को अंग्रेजों की दासता से मुक्त करने के लिये अमेरिका में बनी गदर पार्टी के अध्यक्ष थे ! भारत में एक बड़ी क्रान्ति की योजना के सिलसिले में उन्हें अंग्रेजी सरकार ने कई अन्य लोगों के साथ फांसी दे दी ! १६ नवम्बर १९१५ को कर्तार को जब फांसी पर चढ़ाया गया, तब वे मात्र साढ़े उन्नीस वर्ष के थे ! प्रसिद्ध क्रांतिकारी भगत सिंह उन्हें अपना आदर्श मानते थे !

करतार सिंह सराभा की यह गज़ल भगत सिंह को बेहद प्रिय थी वे इसे अपने पास हमेशा रखते थे और अकेले में अक्सर गुनगुनाया करते थे:

"यहीं पाओगे महशर में जबां मेरी बयाँ मेरा,

मैं बन्दा हिन्द वालों का हूँ है हिन्दोस्तां मेरा;
मैं हिन्दी ठेठ हिन्दी जात हिन्दी नाम हिन्दी है,
यही मजहब यही फिरका यही है खानदां मेरा;
मैं इस उजड़े हुए भारत का यक मामूली जर्रा हूँ,
यही बस इक पता मेरा यही नामो-निशाँ मेरा;
मैं उठते-बैठते तेरे कदम लूँ चूम ऐ भारत!
कहाँ किस्मत मेरी ऐसी नसीबा ये कहाँ मेरा;
तेरी खिदमत में अय भारत! ये सर जाये ये जाँ जाये,
तो समझूँगा कि मरना है हयाते-जादवां मेरा."

भारतीय पत्रकारिता का मुख्य कार्य जन भावना में "राष्ट्रहित सर्वोपरि" की भावना जगाना होना चाहिए ! साथ ही जन-जीवन से जुड़े विभिन्न पक्षों को सत्यता तथा निष्पक्षता से रखना अनिवार्य आवश्यकता है और आज मौजूदा समय में ऐसी ही पत्रकारिता की आवश्यकता है ! मिशन से शुरू हुई पत्रकारिता आज उद्योग में बदल चुकी है ! कभी क्रांति में अहम भूमिका निभाने वाली पत्रकारिता आज चाटुकारिता में बदल चुकी है ! आज पत्रकारिता की लड़ाई खुद से है ना कि किसी सरकार से ! आज पत्रकारिता टी.आर.पी. से लड़ रही है, आज वो चाटुकारिता से लड़ रही है !

दिवाकर शर्मा
सम्पादक
क्रांतिदूत डॉट इन
krantidooot@gmail.com
8109449187

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