मोदी जी फिर मत कहना कि चेताया नहीं - राकेश कृष्णन सिन्हा


2011 में जब एफबीआई ने संयुक्त राज्य अमेरिका में एक आईएसआई फ्रंट का पर्दाफाश किया, उन्होंने पाया कि रैकेट चलाने वाले आदमी गुलाम नबी फई ने कश्मीर पर अमेरिकी राय को प्रभावित करने के नाम पर आईएसआई से 4 मिलियन डॉलर का फंड प्राप्त किया था। एफबीआई ने 4000 से अधिक ईमेल और फोन कॉल रिकोर्ड पर लिए, जिनके संचालक पाकिस्तानी थे ।

एफबीआई के मुताबिक, फई को इस राशि का 80% भाग आईएसआई के आदेशानुसार उपयोग करना था तथा शेष 20 प्रतिशत का स्वयं के अनुसार, किन्तु आईएसआई की पूर्व मंजूरी से । दूसरे शब्दों में, वह 100 प्रतिशत पाकिस्तानी जासूस था। और अब देखिये कि उसकी अतिथि सूची में कौन कौन शामिल था : सेवानिवृत्त जस्टिस राजिंदर सच्चर (जिन्होंने उस समिति का नेतृत्व किया था, जिसने झूठा दावा किया था कि भारतीय मुस्लिमों को जीवन के सभी पहलुओं में भेदभाव का सामना करना पड़ता है); गौतम नवलाखा (communist rag Economic and Political Weekly के संपादक); दिलिप पदगांवकर (टाइम्स ऑफ इंडिया के पूर्व संपादक); हरीश खरे (पूर्व प्रधान मंत्री के मीडिया सलाहकार); वेद भसीन (संपादक, कश्मीर टाइम्स); हरिंदर बावेजा (इंडिया टुडे के पूर्व पत्रकार) और प्रफुल्ल बिदवई (साम्यवादी झुकाव वाले अनुभवी स्तंभकार)। 

जब भारतीय उदारवादी और मीडिया के महारथी ऐसे सम्मेलनों में भाग लेते हैं, जिनका एजेंडा ही कश्मीर को भारत से अलग करना हैं, तो आपको क्या लगता है, वे इसे फ़ोकट में करते हैं? वैचारिक और पार्टी लाइनों से बाहर जाकर भी लुटियन क्लब के सदस्य एक-दूसरे का समर्थन करते हैं, क्योंकि ये सब एक ही थैली के चट्टेबट्टे हैं, एक ही थाली में खाने वाले लोग हैं । इसका सबसे अच्छा उदाहरण है एपिसोड थरूर | इन लोगों ने कांग्रेस के दिग्गज नेता शशि थरूर को बचाने की हर मुमकिन कोशिश की, जिन पर अपनी पत्नी सुनंदा पुष्कर की हत्या में शामिल होने का आरोप था | वे शामिल थे या नहीं, इसके परे हर कोई इस बात से सहमत है कि दिल्ली पुलिस ने किसी शक्तिशाली व्यक्ति के आदेश पर इस प्रकरण में जांच बंद कर दी । जबकि थरूरके खिलाफ बहुत सारे परिस्थितिजन्य सबूत थे । यदि एक सामान्य व्यक्ति के परिवार में विवाह के सात वर्षों के दरम्यान महिला की रहस्यमय मौत हो जाए तो दहेज़ ह्त्या मानकर जांच की जाती है | लेकिन सुनंदा पुष्कर और शशि थरूर प्रकरण में ऐसा कुछ नहीं हुआ । लुटियन गिरोह के लिए एक महिला की संभावित हत्या कोई मायने नहीं रखती, उनका एकसूत्री कार्यक्रम होता है क़ानून को लुटियन विरादरी के पक्ष में झुकाना । 

पिछले दिनों रिपब्लिक टीवी ने कुछ साक्ष्य प्रसारित किये, जिनसे प्रमाणित होता है कि वास्तव में किसी प्रभावशाली व्यक्ति ने पुलिस की जांच में हस्तक्षेप किया था। इसके बाद थरूर समर्थकों द्वारा रिपब्लिक टीवी पर हमला किया और तोड़फोड़ की | इस प्रदर्शन का नेतृत्व कर रही थीं, समय देखकर बीजेपी समर्थक बन गईं लेखिका तवलीन सिंह । अगर किसी मशहूर हस्ती से पूछताछ की जाती है, तो क़ानून को अपना कार्य करने देना चाहिए | मशहूर हस्ती के साथ आम अपराधियों जैसा ही व्यवहार होना चाहिए, ताकि अन्य कानून तोड़ने वालों के लिए नसीहत हो | यही अपराध मुक्त भारत की दिशा में उठाया गया सही कदम होगा | लेकिन शक्तिशाली लोग ऐसा होने देना नहीं चाहेंगे; प्रस्तुत उदाहरण इसी तथ्य की पुष्टि करता है ।

दूसरा उदाहरण मार्च 2002 का है, जब तत्कालीन विदेश मंत्री नटवर सिंह की बहू नताशा सिंह ने आत्महत्या की | उसके मात्र दो महीने बाद ही नटवर की बेटी रितु सिंह ने भी आत्महत्या कर ली। दोनों मौतें बेहद संदिग्ध थी और दिल्ली के मीडिया द्वारा उसे पर्याप्त महत्व भी दिया गया । केवल महानगर के सबसे बड़े दैनिक समाचार पत्र “हिंदुस्तान टाइम्स” ने इस विषय को स्पर्श भी नहीं किया । कारण साफ़ है – हिंदुस्तान टाईम्स एक कांग्रेस समर्थक समाचार पत्र है और नटवर सिंह एक गांधी-परिवार के वफादार । 

अब बात सुपारी जर्नलिज्म की | मुझे एक अखबार के वरिष्ठ संपादक ने अन्दर की बात बताई | उसने कहा कि धर्मनिरपेक्ष, वामपंथी, ईसाई, मुस्लिम और कुछ अवसरवादी पत्रकारों ने एक नेटवर्क और व्हाट्सएप समूहों का निर्माण किया है, जिसमें वे तय करते हैं कि किसी समाचार विशेष या घटना को कैसे घुमाया जाए कि उससे मोदी की छवि धूमिल हो । एक समय था जब पत्रकार अपने समाचारों और अपने सूत्रों को किसी से साझा नहीं करते थे, किन्तु आजकल वे लगातार एक-दूसरे के साथ सूचनाओं का आदान प्रदान कर रहे हैं, इस उम्मीद में कि शायद मोदी विरोधी कोई सूत्र हाथ लग जाए । 

जैसा कि सोनीपत ट्रेन में हुई हत्या का मामला है, जहां शुरूआत में यह माना गया कि यह दो समूहों के बीच झड़प का परिणाम था। किन्तु जैसे ही अधिक विवरण सामने आया, सुर्खियों और समाचार रिपोर्टों को तुरंत बदल दिया गया | फिर मुख्य बात यह हो गई, कि मरने वाला एक मुसलमान था और दूसरे पक्ष के लोग हिंदू थे । कुछ घंटों के भीतर एक कहानी रच दी गई कि एक मुसलमान को इसलिए मार दिया गया, क्योंकि वह कथित रूप से गोमांस ले जा रहा था । यह एक आदर्श हथियार है, सबसे कम जोखिम वाला। यह समाचार व्यवसाय में ही संभव है कि आप जोर जोर से कुछ बभी आरोप लगा सकते हैं, अपने लक्ष्य (मोदी सरकार) को दोषी ठहरा सकते हैं, और अगर आरोप झूठ सिद्ध हो जाएँ, तो फिर चुपचाप वापस लौट सकते हैं । बला से भारत विरोधी अंतरराष्ट्रीय मीडिया इन गलत प्रसारणों को आधार बनाकर पूरे विश्व के सम्मुख भारत को खलनायक के रूप में प्रस्तुत कर दे | जैसे द इकोनोमिस्ट, वाशिंगटन पोस्ट और न्यूयॉर्क टाइम्स ने लिख भी मारा - भारत में भरता फासीवाद। इसमें भारतीय धर्मनिरपेक्ष मीडिया का सर्वाधिक योगदान था, जिसने पश्चिमी मीडिया को झूठ परोसा, उन्हें अवसर दिया यह घोषित करने का कि भारत वास्तव में एक असहिष्णु देश है। भारत का नाम बदनाम हो गया है और भारतीय पुरुषों को अब बलात्कारी और हत्यारा माना जाने लगा है, किन्तु भारतीय मीडिया के लिए यह कोई चिंता की बात नहीं है। 

मीडिया के अंदरूनी सूत्र कहते हैं: कि अपने आप को धर्मनिरपेक्ष कहने वाले पत्रकारों का धर्मनिरपेक्षता में रत्ती भर भी भरोसा नहीं है, और ना ही वे मुसलमानों के कल्याण के बारे में परेशान हैं, उनकी दिलचस्पी केवल खान मार्केट में कबाब खाने और व्हिस्की पीने में है । वे केवल अपनी सुविधाएं जारी रखना चाहते हैं, ताकि वे अपने कार्यालयों में आराम से उनकी अपठनीय कहानियां गढ़ सकें, जिनका कोई पाठक ही नहीं होता । वेबस्टैट्स झूठ नहीं बोलते - इन पत्रकारों में से कई ऐसे हैं जिनके आलेख पर कोई भी क्लिक नहीं करता । लेकिन इससे इन धर्मनिरपेक्ष पत्रकारों को कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि उनके खैरख्वाह एनजीओ और विदेशी पत्रकार तो हैही, जो इनके लेखों को पढ़े बिना ही भुगतान करते हैं, वे अपठनीय लिखें चाहे झूठ | लेकिन जनता इन्हें जान गई है, उनकी नजर में सेक्यूलर पत्रकारों की विश्वसनीयता शून्य है | 

पिछली सरकारों के समय बेचारे प्रति वर्ष कुछ मुफ्त विदेशी यात्राएं कर लेते थे, भत्ते भी कबाड़ लेते थे, किन्तु वर्तमान मोदी सरकार ने इन पत्रकारों के पेट पर लात मार दी | आखिर लुटियन मीडिया इसे कैसे बर्दास्त करे । वे पैदा भले ही साधारण मध्यवर्गीय घरों में हुए हों, लेकिन पत्रकारों के रूप में, उन्हें बड़ी हस्तीयों, उद्योगपतियों और राजनेताओं की महमाननवाजी का चस्का लग चुका है | मोदी ने इस पूरी प्रक्रिया को ही बाधित कर दिया है । यही मुख्य कारण है कि पत्रकारों की एक जमात ने प्रतिपक्ष से उनकी सुपारी ली हुई है. सामान्य और निष्पक्ष रिपोर्टिंग की जगह इकतरफा और दुर्भावनापूर्ण पत्रकारिता ने ले ली है । 

अब मोदी की कार्यपद्धति देखिये | प्रधान मंत्री कार्यालय में पहुँचने के कुछ समय बाद ही उन्होंने कैबिनेट मंत्रियों के आचरण और व्यवहार को संतुलित किया । एक उदाहरण देखिये - एक मंत्री महोदय, एक उद्योगपति से मिल रहे थे, कि तभी उनके मोवाईल पर मोदी का फोन आया | मोदी का सवाल था - वे पांच सितारा होटल में उद्योगपति के साथ चर्चा क्यों कर रहे हैं। मंत्री जी ने तोबा की और फिर सारी भेंट और चर्चा कार्यालय में ही करना प्रारम्भ की । इंटेलिजेंस ब्यूरो के स्कैनर ने मंत्रियों और नौकरशाहों के साथ- साथ मीडिया फिक्सर के हाथ भी बांध दिये हैं और उनकी भूमिका काफी कम हो गई है। 

2010 के राडिया टेप घोटाले ने देश को दिखाया कि कैसे बरखा दत्त (एनडीटीवी), वीर संघवी हिंदुस्तान टाइम्स) और शंकर अय्यर (इंडिया टुडे) फिक्सर की भूमिका में समृद्ध और शक्तिशाली हुए । बरखा दत्त और संघवी ने द्रमुक पार्टी के राजनेता ए. राजा को टेलिकॉम मंत्री नियुक्त करवाया। सरकारी ऑडिटर के अनुसार, राजा ने अपने अवैध स्पेक्ट्रम बिक्री के माध्यम से $ 40 बिलियन का घोटाला किया था। कल्पना कीजिए कि अगर मीडिया फिक्सर को 1 प्रतिशत की प्रचलित रिश्वत भी मिली होगी, तो कितनी होगी ? लुटियंस 'दिल्ली का खेल ख़तम हो गया है | ये वे सांप हैं जो देश के राजनैतिक शरीर में जहर का इंजेक्शन लगा रहे है। मोदी की उपलब्धियों को दरकिनार कर उनके खिलाफ मिथ्या निंदा अभियान चलाने के पीछे इनका उद्देश्य केवल यह है कि सरकार का ध्यान महत्वपूर्ण विषयों से हटे और सरकार सदा रक्षात्मक मुद्रा में रहे । 

किसी भी सरकार को यह सहन नहीं करना चाहिए । इनका उपाय आक्रामक होना ही है। शठे साठ्यम समाचरेत | जैसे के साथ तैसा | स्वर्गीय प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी एक प्रतिशोधी शख्सियत थीं । मोदी को उनका प्रतिकृति होना चाहिए और उनके विरोधियों के दिलों में कुछ डर तो पैदा करना चाहिए। आखिर चोर के पाँव कितने ? उनमें से हर एक की तिजोरी में कंकाल मिलेंगे । उनके बेनामी खातों में अकूत संपत्ति रखी मिलेगी । उनमें से कुछ के सम्बन्ध पाकिस्तानी आतंकवादियों से भी हो सकते हैं | आपको उनके पीछे जाने के लिए आईबी की जरूरत नहीं है। एक निजी जासूसी एजेंसी ही उनकी सारी गंदगी आपके समक्ष उजागर कर देगी | अपने दुश्मनों को बेअसर करने के लिए मोदी को कुटिल रणनीति का इस्तेमाल करना चाहिए। लातों के देव बातों से नहीं मानते । जो लोग भारत को मजबूत और समृद्ध देखना चाहते हैं, वे 2019 या 2024 में गांधी की वापसी की कल्पना भी नहीं कर सकते। भारत को भारत बनाने के लिए मोदी की लंबी पारी आवश्यक है । अगर लुटियन अवरोध बनते हैं, तो उन्हें रोकना होगा। माननीय प्रधान मंत्री जी, फिर मत कहना कि आपको चेतावनी नहीं दी गई थी। 

राकेश कृष्णन सिन्हा न्यूजीलैंड के पत्रकार हैं। रूस के सबसे बड़े मीडिया समूह मॉस्को स्थित रोसियांकाया गाज़ेटा समूह की एक परियोजना, “Beyond the Headlines” में रूस के लिए विदेशी मामलों और रक्षा विषयों पर लिखते हैं। वह यूरोप की आधुनिक कूटनीति के सलाहकार बोर्ड के सदस्य हैं।

साभार आधार : indiafacts.org

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