विश्वसंवाद केंद्र योजना के सूत्रधार - स्व. अधीश जी



तपपुतः अग्निज्वाल,
देह बन समिधा...
निर्बाध निरंतर यज्ञ ...
राष्ट्रसाधना, राष्ट्र आराधना...

एक नहीं अनेक | लगभग हर संघ प्रचारक की यही कहानी है | पूज्य सुदर्शन जी कहा करते थे, देश के लिए मरने से, देश के लिए जीना कहीं अधिक कठिन और दुष्कर है | देश के लिए जीने का वृत लेने वाले को मोमबत्ती के समान तिल तिल कर जलना, जलजल कर गलना और फिर गलगल कर मिटना होता है | ऐसे ही एक जीवन व्रती अधीश जी की आज पुण्य तिथि है | अधीश जी को विश्वसंवाद केंद्र योजना को मूर्त रूप देने वाला कहा जाता है |

अधीश जी का जन्म 17 अगस्त, 1955 को आगरा के एक अध्यापक जगदीश भटनागर तथा उषा देवी के घर में हुआ. बालपन से ही उन्हें पढ़ने और भाषण देने का शौक था. वर्ष 1968 में विद्याभारती द्वारा संचालित एक इंटर कॉलेज के प्राचार्य लज्जाराम तोमर ने उन्हें स्वयंसेवक बनाया. धीरे-धीरे संघ के प्रति प्रेम बढ़ता गया और बीएससी, एलएलबी करने के बाद 1973 में उन्होंने संघ कार्य हेतु घर छोड़ दिया. अधीश जी ने सर्वोदय के सम्पर्क में आकर खादी पहनने का व्रत लिया और उसे आजीवन निभाया. वर्ष 1975 में आपातकाल लगने पर वे जेल गये और भीषण अत्याचार सहे. आपातकाल के बाद उन्हें विद्यार्थी परिषद में और वर्ष 1981 में संघ कार्य हेतु मेरठ भेजा गया. मेरठ महानगर, सहारनपुर जिला, विभाग, मेरठ प्रान्त बौद्धिक प्रमुख, प्रचार प्रमुख आदि दायित्वों के बाद उन्हें वर्ष 1996 में लखनऊ भेजकर उत्तर प्रदेश के प्रचार प्रमुख का काम दिया गया.

प्रचार प्रमुख के नाते लखनऊ के ‘विश्व संवाद केन्द्र’ के काम में नये आयाम जोड़े. अत्यधिक परिश्रमी, मिलनसार और वक्तृत्व कला के धनी अधीश जी से जो भी एक बार मिलता, वह उनका होकर रह जाता. बहुमुखी प्रतिभा को देखकर संघ नेतृत्व ने उन्हें अखिल भारतीय सह प्रचार प्रमुख और फिर प्रचार प्रमुख का काम दिया और पूरे देश में उनका प्रवास होने लगा. अधीश जी अपने शरीर के प्रति प्रायः उदासीन रहते थे. दिन भर में अनेक लोग उनसे मिलने आते थे, अतः बार-बार चाय पीनी पड़ती थी. इससे उन्हें कभी-कभी शौचमार्ग से रक्त आने लगा. उन्होंने इस ओर ध्यान नहीं दिया. जब यह बहुत बढ़ गया, तो दिल्ली में इसकी जांच करायी गयी. चिकित्सकों ने बताया कि यह कैंसर है और काफी बढ़ गया है.

यह जानकारी मिलते ही सब चिन्तित हो गये. अंग्रेजी, पंचगव्य और योग चिकित्सा जैसे उपायों का सहारा लिया गया, पर रोग बढ़ता ही गया. मार्च 2007 में दिल्ली में जब फिर जांच हुई, तो चिकित्सकों ने अन्तिम घण्टी बजा दी. उन्होंने साफ कह दिया कि अब दो-तीन महीने से अधिक का जीवन शेष नहीं है. अधीश जी ने इसे हंसकर सुना और स्वीकार कर लिया. इसके बाद उन्होंने एक विरक्त योगी की भांति अपने मन को शरीर से अलग कर लिया. अब उन्हें जो कष्ट होता, वे कहते यह शरीर को है, मुझे नहीं. कोई पूछता कैसा दर्द है, तो कहते, बहुत मजे का है. इस प्रकार वे हंसते-हंसते हर दिन मृत्यु की ओर बढ़ते रहे. जून के अन्तिम सप्ताह में ठोस पदार्थ और फिर तरल पदार्थ भी बन्द हो गये.

चार जुलाई, 2007 को वे बेहोश हो गये. इससे पूर्व उन्होंने अपना सब सामान दिल्ली संघ कार्यालय में कार्यकर्ताओं को दे दिया. बेहोशी में भी वे संघ की ही बात बोल रहे थे. घर के सब लोग वहां उपस्थित थे. उनका कष्ट देखकर पांच जुलाई शाम को माता जी ने उनके सिर पर हाथ रखकर कहा – बेटा अधीश, निश्चिन्त होकर जाओ. जल्दी आना और बाकी बचा संघ का काम करना. इसके कुछ देर बाद ही अधीश जी ने देह त्याग दी.

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