गुरु गोविंद सिंह जयंती (5 जनवरी) पर विशेष - साधना व शौर्य की अनुपम मिसाल : दशम गुरु

सिख समाज के दशम गुरु गोबिंद सिंह का समूचा जीवन साधना, त्याग व शौर्य की अनुपम मिसाल है। उनका बलिदान और आध्यात्मिक दर्शन भारतीय इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय है। छह-सात साल की छोटी सी आयु में हजारों कश्मीरी पंडितों की रक्षा के लिए खुद अनाथ होना स्वीकार कर पिता को आत्मबलिदान के लिए प्रेरित करने वाले इस महान बालक ने अपने युग की आतंकवादी शक्तियों के विनाश और धर्म व न्याय की प्रतिष्ठा के लिए शस्त्र उठाया और एक नये पंथ का सृजनकर सिख समाज को सैनिक परिवेश में ढाला। भारतीय धर्म, संस्कृति व राष्ट्रहित के लिए अपना समूचा वंश न्यौछावर कर देने वाले सिख धर्म के अंतिम गुरु की ख्याति अप्रतिम योद्धा, अनुपम संगठनकर्ता व सैन्य नीतिकार के साथ महान आध्यात्मिक चिंतक, मौलिक विचारक व उत्कृष्ट लेखक की भी है। वे बहुभाषाविद थे। उन्होंने सिक्ख कानून को सूत्रबद्ध किया था। "दसम ग्रंथ" (दसवां खंड) लिखकर "गुरु ग्रन्थ साहिब" को "गुरु" रूप में स्थापित करने का श्रेय भी गुरु गोबिंद सिंह को ही जाता है। इस महापुरुष की जयंती पर इन से जुड़े प्रमुख तीर्थस्थलों और जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं पर एक दृष्टि-

जन्मस्थली : श्री पटना साहिब

बिहार के पटना शहर में स्थापित अकाल तख्त श्री पटना साहिब गुरु गोबिंद सिंह जी की पावन जन्मस्थली के रूप में समूची दुनिया में विख्यात है। आज से साढे तीन सौ साल पहले सन् 1664 ई. में पौष सुदी की सातवीं तिथि को यहीं पर नवें गुरु तेगबहादुर जी के पुत्र के रूप में उनका जन्म हुआ था। देश के पांच शीर्ष अकाल तख्तों में शामिल इस गुरुद्वारे में गोबिंद सिंह जी द्वारा हस्ताक्षर की हुई गुरु ग्रंथ साहिब, उनके बालपन का पालना (झूला), बचपन की तलवार, लोहे के तीर, चकरी, कंघा और पादुका आदि वस्तुएं रखी हैं। इस विख्यात तीर्थ की एक अन्य विशिष्टता यह है कि इस गुरुद्वारे की दीवारें पटना की नगर देवी पाटन के सुप्रसिद्ध मंदिर के साथ, काली मंदिर, दिगम्बर जैन मंदिर तथा साइस्ता खां व मीर जाफर की मस्जिद से सटी हुई हैं। इस दृष्टि से अकाल तख्त श्री पटना साहिब को साम्प्रदायिक सद्भाव की मिसाल कहा जाए तो कोई अयुक्ति नहीं होगी। लगभग 108 फीट ऊंचा यह भव्य सतमंजिला गुरुद्वारा सिख धर्मावलम्बियों की आस्था का प्रमुख केन्द्र है। 

खालसा पंथ की बुनियाद : श्री केशगढ़ साहिब (आन्नदपुर साहिब) 

पंजाब में जिला मुख्यालय रूपनगर से लगभग 40 किलोमीटर की दूर शिवालिक पहाड़ियों की गोद में सतलज नदी के पूर्वी किनारे पर बसा आनन्दपुर साहिब सुप्रसिद्ध सिख धर्मस्थल है। देश के पांच उच्चतम सिख संस्थानों में शुमार इस गुरुद्वारे का निर्माण 1665 में गुरु गोबिंद सिंह जी के पिता गुरु तेग बहादुर से कराया था। यहां गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने मामा कृपालचंद के संरक्षण में शुरुआती शिक्षा-दीक्षा के साथ न सिर्फ स्वयं अस्त्र-शस्त्र चलाने में प्रवीणता हासिल की वरन आनन्दपुर को एक अजेय सैन्य केन्द्र के रूप में विकसित किया। उन्होंने सन् 1699 में बैसाखी के दिन यहां खालसा पंथ की बुनियाद रखी और इस स्थान को केशगढ़ साहिब का नाम दिया। इस स्थान पर गुरु जी से जुड़़े कई ऐतिहासिक अवशेष सुरक्षित हैं। इनमें उनकी दुधारी तलवार, अमृत तैयार करने के लिए इस्तेमाल किया गया लोहे का कटोरा और अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह द्वारा गुरु को भेंट की गयी एक बंदूक व कई अन्य वस्तुएं शामिल हैं। 

शिक्षा केन्द्र की स्थापना : दमदमा साहिब 

बठिंडा (पंजाब) से 28 किलोमीटर दूर दक्षिण-पूर्व में तलवंडी साबो में स्थित दमदमा साहिब तख्त भी सिखों के प्रमुख तीर्थ में शामिल है। यह स्थान गुरु गोबिंद सिंह की काशी के रूप में जाना जाता है। मुगलों से युद्ध के बाद वे यहां नौ महीने रुके थे। गुरु गोबिंद सिंह नहीं चाहते थे कि सिख समाज में कोई भी व्यक्ति अनपढ़ रहे ; इसलिए उन्होंने इस स्थान को एक शिक्षा केन्द्र के रूप में विकसित किया और अक्षर ज्ञान के साथ विभिन्न शैक्षिक गतिविधियों के संचालन का केन्द्र बनाया। गुरु जी के आदेश व मार्गदर्शन में उनके एक सहयोगी भाई मीणा सिंह ने सिख समाज को "गुरुमुखी" सिखाने के उद्देश्य से इस स्थान पर "पवित्र मात्रा" नामक एक ग्रन्थ की भी रचना की थी। कहा जाता है कि गुरु जी के जीवनकाल में यहां देश भर के सिख समाज के लोग शिक्षा ग्रहण करने आते थे। इस गुरुद्वारे में गुरु के कई पवित्र लेख व शैक्षिक वस्तुएं आज भी संग्रहीत हैं। पंजाब सरकार द्वारा यहां स्थापित किये गये एक स्तम्भ में इस स्थल से जुड़ी गुरु गोबिंद सिंह की विभिन्न गतिविधियां व उपलब्धियां अंकित हैं।

साहित्य सृजन : श्री पांवटा साहिब

हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जिले में दक्षिणी ओर की तरफ यमुना नदी के तट पर स्थित गुरुद्वारा पांवटा साहिब गुरु गोबिंद सिंह और उनके एक प्रमुख शिष्य बंदा बहादुर की स्मृतियों से जुड़ा है। पांवटा का शाब्दिक अर्थ है "पैर जमाने की जगह"। लोग इसे पौंटा साहिब भी बुलाते हैं जो पावंटा का ही अपभ्रंश है। गुरु गोबिंद सिंह जी पांवटा साहिब में करीब चार साल रहे थे और यहीं उन्होंने "दसम ग्रंथ" समेत की कई रचनाएं की थीं। इस गुरुद्वारे को उनके ऐतिहासिक कवि दरबार का दर्जा हासिल है। कहते हैं कि उस समय के प्रसिद्ध सूफी संत बुद्धूशाह को गुरु साहिब ने यहां पवित्र कंघा और सिरोपा बख्शीश दी थी। कलगीधर पातशाह यहां खुद वाणी की सृजना किया करते थे। उन्होंने "जाप साहिब, "चण्डी दी वार", नाममाला, बछित्तर नाटक आदि अनेक रचनाएं इस स्थान पर कीं। उनके इस दरबार में 52 कवि भी काव्य रचनाएं किया करते थे। कहते हैं कि यहां कवियों की विनती पर गुरुजी ने यमुना को शान्त होकर बहने को कहा था। तब से यमुना जी आज भी गुरुजी का हुक्म मान यहां शान्ति से बह रही हैं। इस धार्मिक स्थल पर सोने से बनी एक पालकी है जो कि एक भक्त द्वारा गुरु जी को भेंट दी गई थी। साथ गुरुद्वारा परिसर में बने एक संग्रहालय में गुरु जी की कलम व उनके हथियार संरक्षित हैं।

देहावसान : तख़्त सचखंड श्री हजूर साहिब 

दक्षिण की गंगा कही जाने वाली पावन गोदावरी के तट पर बसे महाराष्ट्र के नांदेड शहर में स्थित तख़्त सचखंड श्री हजूर साहिब विश्वभर में प्रसिद्ध है। सन 1708 में सिखों के अंतिम गुरु गोविन्द सिंह जी ने अपने प्रिय घोड़े दिलबाग के साथ यहीं पर अंतिम सांस ली थी। यहीं से उन्होंने औरंगजेब को फारसी भाषा में एक पत्र लिखा था जो इतिहास में "जफरनामा" के नाम से विख्यात है। गुरु जी का यह पत्र सिख इतिहास की अमर निधि मानी जाती है। इस पत्र को पढ़कर औरंगजेब पश्चाताप से भर गया था और कुछ ही समय बाद उसने शरीर छोड़ दिया। कहते हैं कि गुरु गोविन्द सिंह ने अपनी मृत्यु से पूर्व उत्तराधिकारी चुनने के बजाय "पवित्र ग्रन्थ साहिब" को गुरु मानने का आदेश दिया। तभी से पवित्र ग्रन्थ को गुरु माना जाने लगा। पांच पवित्र तख्तों (पवित्र सिंहासन) में से एक इस गुरुद्वारे को सचखंड (सत्य का क्षेत्र) नाम से भी जाना जाता है। गुरुद्वारे का आतंरिक कक्ष "अंगीठा साहिब" ठीक उसी स्थान पर बनाया गया है जहां सन 1708 में गुरु जी का दाह संस्कार किया गया था।

पूनम नेगी
16 ए, अशोक मार्ग पटियाला कम्पाउण्ड
हजरतगंज, लखनऊ
मो. 9984489909


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