कहानी - बहुचर्चित कालवी परिवार की !


राजस्थान में माँ दुर्गा का अवतार मानकर व्यापक रूप से करनी माता की पूजा होती है | माना जाता है कि देवी का जन्म एक साधारण घर में हुआ था और उनका विवाह एक चारण के साथ हुआ था | चारण अर्थात राजा की विरुदावली गाने वाले । माना जाता है कि देवी ने अपने वैवाहिक जीवन जीने के स्थान पर अपना घर छोड़ दिया और 150 वर्षों तक राजाओं और आम जनों को समान रूप से आशीर्वाद दिया। देवी विशेष रूप से राजपूत समुदाय और जोधपुर व बीकानेर राज परिवारों की कुल देवी हैं, जिनका राजपूतों में विशेष प्रभाव है । 

इन विशुद्ध, संन्यासिनी को अपना आराध्य मानने वाली राजपूत परंपरा के लोगों का अमूमन आधुनिक, उदारवादियों के साथ बैचारिक संघर्ष होता रहा है – फिर चाहे वह 1987 में सती हुई 18 वर्षीय रूप कंवर का मामला हो, अथवा वर्तमान में महारानी पद्मिनी का विवाद | इन विवादों से और कुछ हुआ हो अथवा नहीं, राजस्थान के थार रेगिस्तान में स्थित नागौर जिले के कलवी गांव के जमींदार अवश्य सुर्ख़ियों में आते रहे |

राजस्थान के जागीरदार राजपूत, यूं तो परंपरागत रूप से कांग्रेस विरोधी रहे हैं, क्योंकि वे मानते हैं कि कांग्रेस ने ही पूर्व राजघरानों को शक्तिहीन बनाया, उनके अधिकार छीने । यही कारण रहा कि कालवी के जमींदार कल्याण सिंह काल्वी ने 1970 और 1980 के दशक में अपना राजनीतिक जीवन कांग्रेस विरोध से प्रारम्भ किया । किन्तु मजे की बात यह कि राजस्थान के तत्कालीन मुख्यमंत्री और राजपूत समुदाय का प्रतिनिधित्व करने वाले भैरों सिंह शेखावत के साथ भी उनका सत्ता संघर्ष रहा । क्योंकि स्वयं जागीरदार होने के बाद भी भैरोसिंह शेखावत ने अपनी पार्टी जनसंघ के अनुशासन का पालन करते हुए जमींदारी उन्मूलन का समर्थन किया था |

शायद हम विषय से दूर जा रहे हैं, अतः वापस मूल विषय पर आते हैं | वर्ष 1987 में एक ऐसी घटना घटी, जिसने भारतीय लोकतंत्र को एक नए राजनीतिक और वैचारिक द्वन्द में धकेल दिया । सितंबर 1 9 87 के दूसरे सप्ताह से समाचार माध्यमों का ध्यान उत्तरी राजस्थान के एक दूरदराज गांव में रहने वाली एक 18 वर्षीय राजपूत तरुणी ने अपनी ओर आकर्षित किया, जिसने अपने पति की मृत्यु के बाद, सती होने की इच्छा जाहिर की । सती अर्थात वह प्रक्रिया, जिसमें विधवा महिला, अपने मृत पति के अंतिम संस्कार के समय उसके साथ स्वयं भी जल जाया करती थी ।

उस समय राजपूतों ने माना कि चूंकि वह तरुणी, यह कार्य स्वेच्छा से और समुदाय के प्राचीन रीति-रिवाजों के अनुसार करने जा रही है, अतः यह उसका अधिकार है तथा न्यायपालिका और प्रशासन को इसमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए । राजपूत समुदाय के संगठित समर्थन के चलते “रूप कंवर” यह कार्य कर गुजरीं और उसके बाद सती माता के रूप में स्थापित होकर पूजा योग्य देवी भी मान ली गईं | उनकी तुलना जौहर करने वाली चित्तोर के महारानी पद्मिनी से की जाने लगी । 

स्वाभाविक ही इस घटना ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय का ध्यान भी आकर्षित किया | यहां तक ​​कि न्यूयॉर्क टाइम्स ने भी इसे अपने मुखपृष्ठ पर प्रकाशित किया | कैंब्रिज शिक्षित राजीव गांधी की सरकार के लिए यह घटना एक बड़ी शर्मिंदगी का विषय बन गई। उसके बाद तो राजपूत समुदाय नाराज शासन प्रशासन और आहत न्यायपालिका के निशाने पर आ गया - 100 से अधिक राजपूत पुरुषों और महिलाओं पर रूप कंवर को आत्महत्या के लिए प्रेरित करने का आरोप लगाया गया। जिन लोगों ने इस बर्बर मध्ययुगीन क्रियाकलाप की कटु निंदा की उनमें भी अग्रणी थे स्व. भैरों सिंह शेखावत, जिन्हें 'राजस्थान का शेर' कहा जाता था और तब तक वे सम्पूर्ण राजपूत समुदाय के सर्व स्वीकृत नेता थे।

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चले इस निंदा अभियान के कारण राजपूत समुदाय को बहुत नीचा देखना पड़ा | उनके शौर्य और पराक्रम की गाथाओं के स्थान पर, उनमें व्याप्त कुरीतियों, जमींदारों और राजाओं के रनिवासों में महिलाओं की स्थिति को लेकर चर्चा होने लगी | प्रख्यात साहित्यकार आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने भी “गोली” नामक अपना वह प्रसिद्ध उपन्यास लिखा, जिसमें विवाह के समय एक राजा अपनी बेटी के साथ कई दासियाँ भी दहेज़ में देता था, बाद में जिनका जीवन किसी नरक से कम नहीं होता था | 

जहाँ मीडिया राजपूतों को बर्बर समाज के रूप में चित्रित कर रहा था, बहीं राजपूत मन में यह भाव था कि भारतीय गणराज्य ने जन भावनाओं का अपमान करते हुए समुदाय के धार्मिक और सांस्कृतिक अधिकारों पर कुठाराघात किया है | यहाँ तक कि राजपूत समाज अपने नेता भैरों सिंह शेखावत से भी दूर हो गया, जिन्होंने इस घटनाचक्र में समुदाय से प्रथक स्वर मुखरित किया ।

इसी दौर में कल्याण सिंह काल्वी सामने आये और निराशा में डूबे हुए राजपूतों में उत्साह का संचार किया और फिर तो देखते ही देखते वे राजपूत समुदाय का चेहरा बन गये। प्रमुख राष्ट्रीय समाचार पत्रों में उनके साक्षात्कार छपने लगे, पूरे प्रदेश में उन्होंने रैलियों को संबोधित किया और आहत राजपूत समुदाय के जख्मों पर मरहम लगाया | यह अलग बात है कि आधुनिक लोकतंत्र कभी कलवी के उस तर्क को नहीं मान सकता कि अठारहवीं सदी के सामजिक अधिकार, इतिहास और संस्कृति के नाम पर यथावत चलने दिए जाने चाहिए | राष्ट्र के सामूहिक विवेक ने इसे एक प्रतिगामी व्यवहार के रूप में देखा, जिसका आज की स्थिति परिस्थिति में कोई स्थान नहीं, और भारतीय न्याय तंत्र, जिसे कभी स्वीकार नहीं कर सकता |

जो भी ही इस घटना चक्र ने कल्याण सिंह काल्वी का नाम अवश्य जन जन तक पहुंचा दिया और उनकी अगुवाई में कई कई राजपूत नेता, अपने समुदाय के बचाव में मैदान में आ डटे | सती माता रुप कुंवर के नाम पर अतिवादी आन्दोलन ने सम्पूर्ण राजस्थान और समीपवर्ती राज्यों को अपनी चपेट में ले लिया | राजपूत नेता और एक पूर्व आईएएस अधिकारी ओंकार सिंह ने तो सार्वजनिक रूप से यहाँ तक धमकी दे डाली कि अगर सरकार उन्हें इसी प्रकार सताती रही, तो राजपूत हिंदू धर्म से अलग हों जायेंगे, ठीक बैसे ही जैसे सिख पंजाब में हुए ।

मीडिया तो हर समय एक सी ही रही है – नकारात्मकता का पोषण करने वाली | उसने कलवी को भी हाथों हाथ लिया और देखते ही देखते युवा कल्याण सिंह को भारतीय गणराज्य के प्रगतिशील-उदारवादी मानदंडों को खारिज करने का पुरष्कार ,मिलने लगा । कल तक के अनजाने कल्याण सिंह कालवी, राजपूतों के प्रमुख नेता भैरों सिंह शेखावत के स्थान पर राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित हो गए । उनकी बढ़ती लोकप्रियता से प्रभावित होकर उन्हें तुरंत जनता दल की राजस्थान इकाई का अध्यक्ष बना दिया गया ।

कलवी की ताकत बढती गई, यहाँ तक कि 1990 में अल्पकालीन प्रधान मंत्री चंद्रशेखर ने तो उन्हें अपनी केबिनेट में ऊर्जा मंत्री भी बना डाला | राजस्थान के राजपूत उनमें देश का भावी प्रधान मंत्री देखने लगे । लेकिन यह स्वप्न – स्वप्न ही रह गया और 58 वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया । सही भी है – अपने मन कछु और है, बिधना के कछु और ।

उनके जाने के बाद उनकी विरासत संभाली उनके युवा पुत्र लोकेंद्र सिंह काल्वी ने | किन्तु किसी राजनीतिक संरक्षक के अभाव में उनका मार्ग इतना आसान भी नहीं था | लोकेंद्र सिंह कलवी ने कई बार भाजपा टिकट पर सीटें बदल बदल कर चुनाव लड़ा, पर हर बार हार गए । उसके बाद उन्होंने पहले कांग्रेस और बाद में बसपा में जाकर भी अपनी किस्मत आजमाई, किन्तु असफलता ने उनका दामन नहीं छोड़ा । अब उन्हें जरूरत थी एक ऐसे मुद्दे की, जिसके आधार पर समाज उनके साथ ध्रुवीकृत हो जायें जैसे कि उनके पिता के साथ हुआ था । संयोग से उन्हें यह मौक़ा अब मिल गया है | 

राजस्थान में जातिवाद उफानने की उनकी कोशिश कितना रंग लाएगी, यह समय ही बताएगा | 

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