किले के द्वार में लगे भालों से अपनी छाती विदीर्ण करवाने वाला कान्हा चौहान - राजस्थानी शौर्य की अमर गाथा !

मध्यकाल में अपनी सुरक्षा के लिए बड़े-बड़े किले बनाने और उन किलों की सुरक्षा पर भी विशेष ध्यान देने की परंपरा का तेजी से प्रचलन हुआ। क्योंकि युद्घ और एक दूसरे को समाप्त कर उसके धन व राज्य पर अपना अधिकार स्थापित करना इस काल की विशेषता बन गयी थी। इसलिए लोग किलों के दरवाजों को विशेष रूप से सुदृढ़ बनाते थे-उनके कपाटों (किवाड़ों) को लोहे की कीलों से या भालों की नोकों से इस प्रकार बनाया जाता था कि उनमें हाथी टक्कर मारते थे तो वे कील या भालों की नोंक उनके सिर में घुस जाती थीं। फलस्वरूप हाथी उन दरवाजों को तोडऩे से कई बार भाग खड़े होते थे।

अहमदनगर के किले को भी इसी प्रकार बनाया गया था। उसके द्वार के कपाटों पर सीधे भालों की नोकें लगी थीं, जिन्हें तोडऩा या जिनके तीव्र प्रहार को झेल पाना हाथियों के भी वश की बात नही थी।

महाराणा संग्रामसिंह ने अपने शासन काल में एक बार ईडर राज्य पर आक्रमण किया था। यह घटना 1520 ई. की है। उस समय यहां का हाकिम मलिक हुसैन था, जो निजामुल मुल्क कहलाता था। महाराणा संग्रामसिंह के भय से कांपकर हाकिम मलिक हुसैन अहमदनगर के दुर्ग में जा छिपा। महाराणा ने अहमदनगर के किले के बाहर जाकर घेरा डाल दिया।

महाराणा की सेना में यूं तो एक से बढक़र एक महायोद्घा थे, परंतु डूंगर सी चौहान का विशेष नाम था। वह इस युद्घ में महाराणा के साथ था। युद्घ में चौहान और उसके भाई व पुत्र सब साथ मिलकर लड़ रहे थे। चौहान युद्घ में गंभीर रूप से घायल हो गया था। जबकि उसके कई भाई व पुत्र युद्घ में वीरगति को प्राप्त हो गये थे।

इसी चौहान का पुत्र कान्हा चौहान भी सेना में राणा के साथ था। कितनी अनुपम वीरता से भरा इतिहास है हिंदू जाति का, जिसमें एक परिवार के सारे पुरूष एक साथ युद्घ मैदान में हैं, और सबको पता है कि युद्घ में सब मारे भी जा सकते हैं। परंतु किसी को मरने के बाद की यह चिंता नही थी कि तब हमारे परिवार का क्या होगा? यहां तो चिंता अपने सम्मान की है, अपनी स्वतंत्रता की है और अपने वैभव की है? कान्हा चौहान भी वीरता के इस उत्कृष्ट भाव से ही ओतप्रोत था। उसने युद्घ में देख लिया था कि उसका पिता किस प्रकार गंभीर रूप से घायल हो चुका है, और उसके भाई, चाचा आदि परिजन किस प्रकार वीरगति को प्राप्त हो चुके हैं? परंतु भारत माता के वीरों को वीरगति ही तो सर्वाधिक प्रिय होती है, इसलिए कान्हा चौहान ने वीरगति प्राप्त किये अपने परिजनों को परम सौभाग्यशाली मानकर स्वयं भी उसी मार्ग का अनुकरण करना उचित समझा।

कान्हा चौहान ने देखा कि अहमदनगर के दुर्ग के कपाटों पर नुकीले भाले लगे हैं, और किवाड़ों को भी गर्म कर दिया गया है, जिससे हाथी उन किवाड़ों को तोड़ नही पा रहे हैं। तब ये द्वार कैसे तोड़ा जाए, यही प्रश्न सबके मन मस्तिष्क में कौंध रहा था, और तभी वीर कान्हा चौहान को एक अत्यंत रोमांचकारी उपाय उन द्वारों को तोडऩे का सूझ गया। उसने सभी के हृदयों में कोंधते प्रश्न का उत्तर स्वयं बनना स्वीकार कर लिया।

बस, फिर क्या था? कान्हा देव ने अपने आपको उन नुकीले भालों के सामने खड़ा कर लिया और महावत से कहा कि हाथी को मेरे शरीर पर टक्कर मारने के लिए वह संकेत करे। हाथी ने अपने महावत के संकेत पर जब कान्हा के शरीर में आकर टक्कर मारी तो द्वार में लगे भाले उसके शरीर में घुस गये। परंतु संसार से विदा लेने से पहले देश और धर्म के लिए अपनी अस्थियों का बलिदान करने वाले उस महावीर ने देख लिया कि उसका बलिदान व्यर्थ नही गया है, अपितु दुर्ग का द्वार खुल गया है। यह दधीचि का देश है, और यह 'दाधीच राष्ट्र' अपना अस्तित्व इसीलिए बचा सका कि यहां 'दाधीच परंपरा' का निर्वाह हर काल में किया गया।

दुर्ग का द्वार टूटने पर राजपूत किले में प्रविष्ट हो गये। यह अलग बात है कि राजपूतों के भय से निजामुल मुल्क पुन: (किले के पिछले द्वार से) भागने में सफल हो गया। परंतु राजपूती सेना ने अपनी वीरता का जिस प्रकार परिचय दिया और उस वीरता को रोमांच की पराकाष्ठा तक वीर कान्हा ने जिस प्रकार पहुंचाया, वह तो विश्व इतिहास का एक रोमांचकारी उदाहरण बन ही गया | सही ही तो है-'मेरी मां शेरों वाली है।'

(संदर्भ : नैणसी री-ख्यात)

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