वामपंथियों की नई फुंकार, सार्वजनिक स्तनपान का अधिकार – गीतिका वेदिका



पिछले दिनों केरल से प्रकाशित होने वाली पत्रिका “गृहलक्ष्मी” के मुखपृष्ठ पर मॉडल गिलु जोसफ़ का चित्र प्रकाशित हुआ, जिसमें वे एक बच्चे को स्तनपान कराते हुए कैमरे की ओर देख रही हैं | 

इस तस्वीर के साथ लिखा गया था - " केरल की माएं कह रही हैं - घूरो मत, हम स्तनपान कराना चाहती हैं |" 

लेकिन विशेष बात यह है कि उक्त मॉडल स्वयं मां नहीं है | साथ ही स्वयं ईसाई होते हुए उन्होंने मांग में सिन्दूर और गले में मंगल सूत्र धारण कर स्वयं को हिन्दू दर्शाया है | अतः स्वाभाविक ही सोशल मीडिया पर इस विषय को लेकर एक बड़ी बहस छिड़ गई | 

"गृहलक्ष्मी" के संपादक ने कहा कि पत्रिका माओं की सार्वजनिक जगहों पर स्तनपान कराने की ज़रूरत के प्रति लोगों को जागरूक करना चाहती थी | 

जानी मानी साहित्यकार व अभिनेत्री गीतिका वेदिका ने इस विषय पर कुछ यूं अपने उद्गार व्यक्त किये - 

ये कैसी माएँ हैं जो कि माँ न होते हुए भी स्तनपान का खुलापन चाहती हैं। जो गृहलक्ष्मी जैसे भारतीय सनातनी शब्दों के पन्नों पर टँकी हैं। जो प्रकृतिप्रदत्त है, स्व-अधिकृत है, स्तनपान के अधिकार चाह रही हैं। ये वही है जो कुछ ही दिनों पूर्व बच्चे को पालने-पोसने के दायित्वों से आज़ादी चाहती थीं। वे पुरुषों से तथाकथित बराबरी कर उन्हें ये जिम्मेदारी सौंपना चाहती थीं और चाहती थीं अपने बदन के कसाव। किन्तु आज अचानक याद आने लगे खुले में स्तनपान के अधिकार। 

अरे! ऐसे सहृदयी वात्सल्य आयामों से तो सनातनी साहित्य समृद्ध है। माँ यशोदा को पुत्र कृष्ण को दुग्धपान कराने के उद्धरण, माता अनुसूया से ब्रह्मा, विष्णु, महेश का बालहठ और रामभक्त बजरंगबली को माता अंजनी के दुग्धपान की तस्वीर तो ज्ञातव्य हो कि इससे अधिक क्या खुलापन होगा कि माता अंजनी ने पर्वत से दूध की धार छोड़ी तो पर्वत चकनाचूर हो गया था। यह है माँ के दूध का वर्चस्व। 

लेकिन हैरत की बात तो यह है कि जिन पौराणिक मान्यताओं का सहारा इस बदन-प्रदर्शन के लिये लिया जा रहा है, उनके ही होने को काल्पनिकता कह उनके अस्तित्व को नकार दिया जाता है तो उनके आड़ में ये कैसे कुतर्कशील हो उठते हैं आश्चर्य है। तब इन बातों पर जितना क्रोध आता है उतनी ही व्यंगमय हँसी आ जाती है। अरे! पहले स्वयं तय कर इन सनातन सत्य के अस्तित्वों पर स्वीकारोक्ति तो दीजिये फिर आइये बात करते हैं आपके द्वारा छेड़ दिए गए खुलेपन पर भी। बहरहाल इन पौराणिक सन्दर्भों को छोड़कर वर्तमान संदर्भ देखें तो; 1980 में जारी हुए भारत के डाक टिकिट पर अंकित माँ की सौम्य छबि पर ध्यान दें, जिसमें वह स्तनपान करते शिशु पर मातृत्व छलका रही है। प्रस्तरहृदय भी न कैसे हर्षविभोर हो जाये? ज्ञातव्य हो; भारतीय डाक टिकिट पर अंकित माता ने तो जोसेफ़ गिलु की तस्वीर से भी अधिक खुलापन दर्शाया है किंतु वे ममता की आग्रही हैं न कि देह-प्रदर्शन की। 




आइये नवीनतम नवाचारों पर भी दो टूक बोल लिया जाए- 

अर्जेंटीना मई २०१७, सांसद विक्टोरिया डोंडा पेरेज ने अर्जेंटाइन नेशनल कांग्रेस की बैठक के दौरान अपने आठ महीने की बच्ची को स्तनपान करवा के सोशल मीडिया पर स्तनपान के सार्वजनिक होने की जंग छेड़ी। इस घटना से महिलाओं के रोल मॉडल बन जाने वाली, बच्चे को पूरा वक्त देने वाली महिला के रूप को भी दिखाया है, जो अपने काम और बच्चे की देखभाल के बीच संतुलन बना रही थीं न कि वह तथाकथित उन्मुक्तता की पैरोकारी करती दिखीं। 

ऑस्ट्रेलिया की सांसद (२०१७) वाटर्सन ने भाषण रोक कर पुत्री आलिया को खुला स्तनपान कराया; वह व्यापार नहीं था। तस्वीर पर उनके कंधो पर रखे श्वेत वस्त्र को भी देखना आवश्यक होगा जो उनके असीम और आश्वस्त मातृत्व की घोषणा करता है। 

स्तनपान एक प्राकृतिक एवं गरिमामय प्रक्रिया है। यह जच्चा-बच्चा दोनों के लिये समान रूप से अनिवार्य है। शिशुओं के संदर्भ में स्तनपान जीवन के पहले वर्ष में बीमार पड़ने की संभावना को कम करता है, उसे जठरान्त्रशोथ (गैस्ट्रोएन्टराइटिस) निमोनिया और ब्रोंकियोलाइटिस कान में इनफेक्शन जैसी बीमारियों से बचाता है | वहीं माताओं को भी तात्कालिक परिप्रेक्ष्य में वजन कम करने और दीर्घकालीन परिपेक्ष्य में स्तन कैंसर के जोखिम को कम करने में सहायक होता है | रजोनिवृत्ति पर पहुंचने से पहले डिम्बग्रंथि के कैंसर से सुरक्षा प्रदान करता है और मधुमेह की संभावना के खतरे को कम करता है। 

किंतु स्तनपान के नाम पर खुलेपन की आकांक्षा, यह बेहयाई, क्या सामाजिक मूल्यों के ह्रास का द्योतक नहीं? कुछ ही दिनों पूर्व अन्तःवस्त्रों से मुक्ति के आंदोलन चलाये गए। कितने आश्चर्य की बात है कि जिन्होंने साड़ी के साथ ब्लाउज पहनने छोड़ दिये वे अब पुनः ब्लाउज धारण करके उन्मुक्त स्तनपान के नारे लगाएंगी ? कितनी पर्तों वाली नीति अपनाएंगे आखिर ये कुतर्की ??? 

यहाँ तो बात सनातनी परपंरा के सम्मान अपमान की भी नहीं है। यहाँ तो सब धर्मों के सम्मुख यह यक्ष प्रश्न सर उठा रहा है कि क्या किसी भी धर्म में इस तरह के खुलेपन जाइज़ हैं? लेकिन ये कुतर्की नहीं देंगे इसका उत्तर! क्योंकि उत्तर इनके पास है ही नहीं। यातो बगलें झांकते नज़र आएंगे, या फिर कुतर्क पर उतर आएंगे। एक और हास्यास्पद मुद्दा है कि इन्हें पहले सिंदूर, मंगलसूत्र और चूड़ियों से मुक्ति चाहिये थी। उनके लिये संघर्ष किये गए तो अगले चरण में उन्मुक्त स्तनपान ने इन बेड़ियों को पुनः धारण कर लिया? 

वाह रे बाज़ारवाद! माँ के मातृत्व से trp कमाने वाले उन्मुक्तो! इस धरती पर तो गाय और बकरी के थनों को दूध भरते ही आवरण में कर दिया जाता है। इसलिये नहीं खुला स्तनपान वर्जित है, बल्कि इसलिये कि वह शिशु का अधिकार है। स्तनपान सदियों से शिशु का अधिकार है। स्वयं पिता/ ससुर शिशुओं को अपनी पुत्री/ वधुओं को यह आवाज़ लगाते हुए शिशु सौंप देते हैं कि इसे भूख लग आयी दूध पिला दो। भाई अपनी बहनों को रोते हुए बच्चे को यही कह के गोद में देते हैं इसे दूध पिला दो। यह है स्तनपान के मर्मशील प्रकृतिप्रदत्त अधिकार। इसमें खुलेपन के संघर्ष कहाँ? 

जो खुलेपन के अधिकार की दुहाई जोसेफ गिलु के मुखड़े पर दिख रही हैं वे स्वयं माँ नहीं हैं। यदि उनकी तुलना 'राम तेरी गंगा मैली' की 'मन्दाकिनी' से भी की जाए तो भी ज़मीन आसमान का अंतर है। गृहलक्ष्मी के आवरण की सेल्सगर्ल जोसेफ़ गिलु के हाव भाव मुखमुद्रा से कामोत्तेजक आमन्त्रण क्या शिशु के अधिकार की दुहाई देते नजर आ रहे हैं? 

नहीं! क्योंकि सारा मामला व्यर्थ के बखेड़े का है बात न नारीवाद की है ना महिलादिवस की। यह बाज़ारवाद है जो हर कीमत पर अपनी उपलब्धता बेचना चाहता है, जिन्हें वामी नींव पोषित कर रही है। इसने क्या नहीं बेचा? इसने सेनेटरी पैड बेचे तो, माहवारी का रक्त भी बेचा। इसने कोख बेची तो वीर्य भी बेचा। पहले अन्तःवस्त्र बेचे फिर अनावृत माँस के लोथड़े भी बेचे। इसने स्वाद के लिये आस्थाएँ (गौ व गौवंश) बेच खाईं। ममता से निपटे नहीं कि मातृभमि के टुकड़े-टुकड़े कर बेच खाने के मंसूबे बना रहे हैं। वास्तव में यह प्रजाति भ्रम के खोल में रह कर छद्म पांसों से स्वघोषित जीत के खेल खेल रही है जो अगले पाँसे पड़ते ही चाल बदल देती है। और नए चलताऊ कथानक में प्रवेश कर एक नए विरोधाभास को जन्म दे कर उलझाव बनाने की कोशिश करती है। इनमें कोई स्थायित्व नहीं। ये बिजली के उन कीड़ों की तरह है जो रात में पैदा हो सुबह मर जाते हैं और छोड़ जाते हैं बजबजाती, बसान्द मारती हुई तीव्र विषैली गन्ध। वह गन्ध जिसका माँ और ममत्व से मीलों का वास्ता नहीं। किन्तु स्तनपान के अधिकार शिशु के आदिकाल से हैं और रहेंगे जब तक शिशु हैं, उनके शैशव हैं व उनके दूध के दांत से अन्नप्राशन के संस्कार से सनातन संस्कारों तक... मातृत्व सावधानी नहीं विश्रांति है। दीप ज्योति नमोस्तुते 
लेखिका गीतिका वेदिका टीकमगढ़ (म. प्र.) की जानी मानी साहित्यकार व अभिनेत्री  हैं 
मोवाईल - 9826079324 



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1 टिप्पणियाँ

  1. ये कोई मुद्दा नही है ,
    नौटँकी के लिए जबरी क्रिएट किया गया इवेंट है ,
    हम तो बचपन से देखे कि सार्वजनिक स्थानों पर मां बच्चे के रोने पर आँचल से ढककर दूध पिलाती और आसपास उपस्थित पुरुष वर्ग खुद ही मुहँ दूसरी ओर घुमा लेता ,,
    इसमे अधिकार के लिए संघर्ष की कोई बात-कोई कारण ही नही - ये तो पहले से ही है,,,
    उंन्हे उघाड़कर पिलाना तो पिलाये - कोई रोकेगा तो है नही ,,,
    वास्तव में स्तनपान के बहाने वामियो को पब्लिक प्लेस पर नँगे होकर घूमने का अधिकार चहिये ताकि वो किशोर से युवा होती पीढ़ी के मनस को जकड़ कर अपनी वांछित दिशा में भटका सके ,,, सभी को मालूम भलीभांति कि कहाँ कब नग्न होने का विधान है !

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