मोदी के जाल में फंसते मोदी विरोधी ? - अमिताभ तिवारी (अनुवाद – हरिहर शर्मा)



उत्तर-पूर्व राज्यों में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की जीत और उसके बाद उपचुनाव में हुई पराजय ने विपक्षी दलों को 2019 में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ गठबंधन बनाने के प्रयासों को तेज करने को प्रेरित किया है। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) अध्यक्ष सोनिया गांधी द्वारा 20 क्षेत्रीय दलों के प्रतिनिधियों को दिया गया रात्रिभोज हो, या तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी और तेलंगाना राष्ट्र समिति के प्रमुख के. चंद्रशेखर राव की परस्पर बढ़ती नजदीकियां, एक संघीय मोर्चे को आकार देने की दिशा में हो रहे प्रयत्नों का ही प्रमाण है | कभी एक दूसरे के जानी दुश्मन रहे बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी ने उत्तर प्रदेश के उपचुनाव में बीजेपी को हराने के लिए एक दूसरे से हाथ मिला ही लिए हैं । अपने राजनीतिक आधार को तेजी से खिसकता देख महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के अध्यक्ष राज ठाकरे 'मोदी-मुक्त भारत' के सपने बन रहे हैं । 

दूसरी ओर 2014 के लोकसभा चुनाव में अपने ऐतिहासिक प्रदर्शन के बाद से बीजेपी राज्य के बाद राज्य जीतती जा ही रही है। वह उन राज्यों में भी मजबूत हो रहा है, जहां वह सत्ता में नहीं है | उन राज्यों में भले ही वह सत्ता में न भी पहुँच पाए किन्तु कांग्रेस को हासिये पर धकेल, स्वयं मुख्य विपक्षी दल के रूप में तेजी से उभर रही है। हिंदू वोटों को एकजुट करने की भाजपा की राजनीति ने कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों को भी अपनी धर्मनिरपेक्ष राजनीति पर पुनर्विचार के लिए विवश कर दिया है । कांग्रेस हो चाहे अन्य क्षेत्रीय दल, सभी अपने अस्तित्व के संकट को भांपकर भयभीत है और यही कारण है कि वे एक साथ आ रही हैं। 

विपक्ष का प्रयत्न है कि 1977 जैसा गठबंधन बने ! 

जिस प्रकार आपातकाल के बाद इंदिरा गांधी के खिलाफ 1977 में कांग्रेस विरोधी राजनैतिक दलों का गठजोड़ हुआ था, उसी प्रकार अब समस्त मोदी विरोधी दल एकजुट होने का प्रयत्न कर रहे हैं । 1977 में जनसंघ के अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी, कांग्रेस (ओ) के मोरारजी देसाई, लोक दल के चौधरी चरण सिंह, कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी के बाबू जगजीवन राम जैसे प्रमुख नेताओं की अगुआई में सभी प्रमुख पार्टियां एक साथ आई थीं और एक साथ मिलकर जनता पार्टी के बैनर तले चुनाव लड़ा था | तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल के विरोध में बनी जनता पार्टी को वामपंथियों के साथ, अकाली दल, द्रविड़ मुनेत्र कज़गम, पीजेंट एंड वर्कर्स पार्टी आदि का भी समर्थन प्राप्त था । 

और सबसे बड़ी बात, आपातकाल के खिलाफ आम जन में आक्रोश भी था, जिससे इन पार्टियों को जबरदस्त जन समर्थन मिला। जय प्रकाश नारायण का वह प्रेरक नारा – “डरो मत मैं अभी ज़िंदा हूँ” हर सामाजिक कार्यकर्ता के मन में आत्मविश्वास और जूझने के संकल्प का प्रतीक बन गया था । क्या आज जय प्रकाश नारायण जैसा कोई नैतिक नेतृत्व है ? केवल मोदी विरोध के नाम पर निहित स्वार्थी तत्वों का जमावड़ा क्या सफल हो पायेगा ? केवल मोदी विरोध ही तो वह कच्चा धागा है, जिसने ये बैचारिक रूप से बेमेल दल एक साथ बंधने को विवश हुए है | 

गठबंधन पर भ्रम 

अभी तक तो यही स्पष्ट नहीं है कि यह गठबंधन का स्वरुप क्या होगा। इसका नेतृत्व कौन करेगा ? कांग्रेस के नेतृत्व में बनेगा या फिर यह क्षेत्रीय पार्टियों के एक संघीय मोर्चा होगा, जिनके पीछे पीछे कांग्रेस चलेगी ? अगर लोकसभा सीटों के गणित पर ध्यान दें तो इनमें से 46 प्रतिशत पर कांग्रेस और उसके सहयोगियों के साथ भाजपा और उसके सहयोगियों का सीधा मुकाबला होता है । ये राज्य हैं - 19 फीसदी सीटों पर भाजपा, क्षेत्रीय पार्टियों के साथ सीधे चुनावी संघर्ष में है। 16 प्रतिशत सीटों पर त्रिकोणीय मुकाबला है, जिन पर कांग्रेस अपना दावा छोड़े, तो ही बात बन सकती है | अगर वह इन सीटों पर अपना दावा छोड़ती है, तो उसका अखिल भारतीय स्वरुप ही ध्वस्त हो जाएगा और वह महज एक क्षेत्रीय पार्टी बनकर रह जायेगी | 

90 सीट ऐसी हैं, जहाँ भाजपा कमजोर है तथा कांग्रेस की सीधी टक्कर अन्य क्षेत्रीय पार्टियों के साथ होती है, वहां क्या होगा ? ये राज्य हैं - तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, केरल आदि | दिल्ली में कांग्रेस क्या “आप” पार्टी के साथ दोस्ती करेगी ? उपरोक्त पाँचों राज्यों में क्षेत्रीय दलों के साथ अगर कांग्रेस का गठबंधन होता है, तो इससे इन राज्यों में भी भाजपा को पैर जमाने की जगह मिलेगी । क्षेत्रीय दल भी विवश हैं कि वे भाजपा और कांग्रेस से समान दूरी बनाकर रखें, अन्यथा उनका स्वयं का बजूद खतरे में पड़ सकता है । और अगर कहीं कांग्रेस को कर्नाटक चुनाव में मुंह की खानी पडी, तब फिर मोदी विरोधी गठबंधन में उसे नेतृत्व कौन सोंपेगा ? उसका नैतिक बल और आत्मविश्वास पेंदे में ही चला जाएगा । 

गठबंधन की कमजोरियों 

मोदी विरोध के नाम पर एक छाते के नीचे आना, कहने में जितना आसान है, हकीकत में उतना ही मुश्किल । समान विचारधारा की कमी तो है ही, साथ ही इस तरह के गठबंधन का पूर्व इतिहास भी बहुत कुछ बयान करता है । कांग्रेस द्वारा समर्थित जितने भी प्रधान मंत्री हुए, फिर वे चाहे चौधरी चरण सिंह हों, या चंद्रशेखर या एच डी देवेगौड़ा या इंद्र कुमार गुजराल, इनमें से कोई भी अपने कार्यकाल का एक वर्ष पूरा नहीं कर सका । क्या अब इतिहास बदलेगा ? क्या राहुल जी अपनी महत्वाकांक्षा को दरकिनार कर किसी अन्य नेता को प्रधान मंत्री पद पर हजम कर पायेंगे ? याद कीजिए उनकी अपनी ही पार्टी के, मनमोहन सिंह जी जैसे सहनशील प्रधानमंत्री के साथ उनका अपमानजनक व्यवहार | क्या अन्य दल का कोई नेता उनकी उद्दंडता और काफी हद तक मूर्खता को लम्बे समय तक झेल पायेगा ? अब दो टूक सवाल – 

पहला क्या क्षेत्रीय दल प्रधानमंत्री के रूप में राहुल गांधी को स्वीकार करेंगे ? या एक बार फिर कांग्रेस के कोई मनमोहन सिंह देश के मत्थे मढ़े जायेंगे ? 

भारत अपने ऐतिहासिक मोड़ पर है और ऐसे समय में दुविधापूर्ण स्थिति हमारे भविष्य को प्रभावित करेगी । इस प्रस्तावित गठबंधन में अधिकाँश दल एक नेता आधारित हैं, स्वाभाविक ही उन नेताओं में महत्वाकांक्षा के साथ अदम्य अहंकार भी है । ऐसी स्थिति में यह गठबंधन कितना टिकाऊ होगा, यह आसानी से समझा जा सकता है । 

जितना मोदी विरोध – उतना भाजपा को लाभ 

कोई माने ना माने, देश तेजी से राष्ट्रपति प्रणाली की चुनाव प्रक्रिया की ओर बढ़ रहा है | मोदी विरोध इसे और अधिक व्यक्तिकेन्द्रित बनाता जा रहा है । यह विपक्ष के लिए खतरनाक है, क्योंकि उनके पास मोदी को चुनौती देने वाला कोई विश्वसनीय चेहरा नहीं है। विपक्ष केवल तब बेहतर प्रदर्शन कर सकता है, यदि वह स्थानीय स्तर पर स्थानीय मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित करे । वह जितना मोदी मोदी का शोर करेंगे, उतना ही 2019 में मोदी सबल होकर उभरेंगे । 

2014 में, मुख्य मुद्दा 'भ्रष्टाचार' था। आज तो मोदी को यह कहने का मौका मिल ही रहा है कि भ्रष्ट नेताओं और व्यवसायियों के खिलाफ उनके द्वारा उठाये गए कदमों के कारण पूरे विपक्ष ने उनके खिलाफ गठजोड़ किया है। वह लालू प्रसाद यादव और पी चिदंबरम के उदाहरण देंगे, जो इस गठबंधन के प्रमुख सूत्रधार हैं। इस तरह लोगों का ध्यान मोदी सरकार की कमियों से दूर हो जाएगा। यही उनकी रणनीति है, जिसमें जाने अनजाने विपक्ष फंसता जा रहा है | मोदी विरोधी नारा लगाकर तो वह वास्तव में मोदी के हाथों में खेल रहा है और उसे मजबूत बना रहा है। 1977 जैसे परिणाम की उम्मीद में बैठा विपक्ष, 1971 जैसे परिणाम भुगतने को तैयार रहे । 

अमिताभ तिवारी एक पूर्व कॉर्पोरेट और निवेश बैंकर हैं, जो आजकल राजनीति और चुनावों को लेकर आंकलन कर्ता के रूप में प्रसिद्धि पा रहे हैं । लेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं | 

He tweets at @politicalbaaba. 

एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें