न्यायपालिका को मनमाफिक नचाने की आदी कांग्रेस भूल रही है कि अब उसका ज़माना लद गया |



यूं तो उप राष्ट्रपति श्री बैंकैय्या नायडू ने भारत के मुख न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग लाने की कांग्रेसी कोशिशों को पलीता लगा दिया है और उसे सदन के पटल पर रखने की अनुमति नहीं दी है | किन्तु कुछ तथ्य हैं जो जनता के सम्मुख आना चाहिए | 

कांग्रेस पार्टी का आज भी न्याय पालिका को लेकर वही द्रष्टिकोण है, जो इंदिरा गांधी का था । भारत के मुख न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग लाने की जो कोशिश कांग्रेस ने की है, उसमें और 2 मई, 1973 को संसद में तत्कालीन मंत्री एस मोहन कुमारमंगलम के बयान में अनोखी समानता है | 

स्मरणीय है कि उस समय तीन न्यायाधीशों - जेएम शेलाट, केएस हेगड़े और एएन ग्रोवर की वरिष्ठता को नजरअंदाज करते हुए, न्यायमूर्ति एएन रे को भारत का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया था | नियुक्ति को न्यायसंगत बताते हुए कुमारमंगलम ने कहा था, "निश्चित रूप से, एक सरकार के रूप में हम यह निष्कर्ष निकालने के लिए स्वतंत्र हैं कि कौन न्यायाधीश सुप्रीम कोर्ट का नेतृत्व करे (अर्थात कौन मुख्य न्यायाधीश बने)। 

यही कांग्रेस की अनुवांशिक इच्छा रहती आई है कि न्यायाधीशों को उनके 'पक्ष' के लिए हमेशा प्रतिबद्ध होना चाहिए । 

और इतिहास साक्षी है कि पुरष्कार के रूप में मुख्य न्यायाधीश का पद संभालने वाले न्यायमूर्ति “रे” ने एम एच बेग, वाई वी चन्द्रचूड और पी एन भगवती के साथ अपनी टीम बनाई और आपातकाल के दौरान “एडीएम जबलपुर केस” में जीवन के अधिकार सहित मौलिक अधिकारों की हत्या के लिए कठोर फैसले दिए। 

यह इकलौता प्रकरण नहीं था | कुमारमंगलम की कसौटी पर खरा न उतरने के कारण न्यायमूर्ति एच आर खन्ना को तो कांग्रेस सरकार ने मुख्य न्यायाधीश के पद से हटाकर उनके स्थान पर अपने बफादार न्यायमूर्ति बेग को मुख्य न्यायाधीश बना दिया था। 

बेग इंदिरा गांधी के पसंदीदा थे और वे कैसे थे इसका एक हैरतअंगेज उदाहरण है - जब टाईम्स ऑफ़ इंडिया ने “ए डी एम जबलपुर” के फैसले की आलोचना की और बेग को दोषी ठहराया, तो उन्होंने जनवरी 1978 में सीजेआई के रूप में अपनी सेवानिवृत्ति से एक महीने पहले तत्कालीन संपादक शामलाल के खिलाफ स्वतः अवमानना की कार्यवाही प्रारम्भ कर दी थी । 

बेग ने यह बताने की कोशिश की कि वह वास्तव में आपातकाल के पक्ष में नहीं थे और टाइम्स ऑफ़ इंडिया द्वारा की गई आलोचना गलत थी । किन्तु बेग को बेंच के दो अन्य सदस्यों - जस्टिस एन अन्तवालिया और पी कैलासम, का समर्थन नहीं मिला | इन न्यायाधीशों ने अपने संक्षिप्त अभिमत में लिखा - "हमारा यह मानना है कि यह अवमानना के लिए उपयुक्त मामला नहीं है ।" 

और बेशर्मी की इन्तहा देखिये कि 22 फरवरी, 1978 को सेवानिवृत्त होने के तत्काल बाद बेग नेशनल हेराल्ड समूह के निदेशक बन गए। 1980 में कांग्रेस जैसे ही सत्ता में लौटी, बेग सेवानिवृत्ति के बाद भी पुनः नियुक्त हो गए । 

बफादारी का यह अंतिम पुरष्कार नहीं था | 1988 में इन्हीं बेग साहब को राजीव गांधी सरकार ने भारत रत्न के बाद दूसरे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार पद्म विभूषण से भी सम्मानित किया | जबलपुर मामले में दिया गया उनका फैसला, उनके लिए “खुल जा सिमसिम” जैसा साबित हुआ, जिसने सफलता के दरवाजे खोल दिए । 

इन उदाहरणों के बाद तो कोई नादान भी समझ जाएगा कि कांग्रेस की नजर में न्यायाधीशों की औकात क्या है । इन्हें हमेशा बहारुल इस्लाम जैसे न्यायाधीश चाहिये, जो 1956 में कांग्रेस में शामिल हो गए और 1972 तक कई महत्वपूर्ण पदों पर रहे। अप्रैल 1962 में, कांग्रेस ने उन्हें राज्यसभा में भेजा । 

1967 के असम विधानसभा चुनावों में पराजित होने के बाद उन्हें 1968 में पुनः राज्य सभा के लिए निर्वाचित किया गया और पार्टी में विभाजन के बाद भी वे इंदिरा गांधी के साथ ही रहे । 

जनवरी 1972 में, उन्होंने ऊपरी सदन से इस्तीफा दे दिया और उन्हें गौहाटी हाईकोर्ट का जज बनाया गया। वह 1 मार्च, 1980 को सेवानिवृत्त हुए | किन्तु इंदिरा गांधी अपने भरोसे के इस सिपहसालार को सेवानिवृत्त कैसे देख सकती थीं ? हाई कोर्ट के न्यायाधीश पद से सेवानिवृत्त होने के नौ महीने बाद ही इस्लाम को दिसंबर 1980 में सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त कर दिया गया । 

अपनी सेवानिवृत्ति से छह हफ्ते पहले और बिहार कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष जगन्नाथ मिश्रा को एक धोखाधड़ी मामले में क्लीन चिट देने के एक माह बाद बहारुल इस्लाम साहब ने सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश पद से इस्तीफा दे दिया और बारपेटा लोकसभा सीट से कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में नामांकन दाखिल किया।चूंकि असम की उथल-पुथल के चलते चुनाव नहीं हो पाए, तो कांग्रेस ने उन्हें जून 1983 में तीसरी बार राज्यसभा में भेज दिया । 

इस्लाम जैसा ही मामला रंगनाथ मिश्रा का भी है, जिन्हें राजीव गांधी सरकार ने इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 1984 में हुए सिख हत्याकांड के मामलों में पूछताछ के लिए नियुक्त किया । यह सर्वज्ञात तथ्य था कि कथित तौर पर कांग्रेस के नेतृत्व में लोगों ने हजारों सिखों की हत्या कर दी थी। फिर भी, मिश्रा को कोई भी कांग्रेस नेता दोषी नहीं मिला। उन्होंने पुलिस को लापरवाही के लिए दोषी ठहराया। 

उन्हें तत्काल इसका पुरष्कार भी मिला और कांग्रेस सरकार ने उन्हें अक्टूबर 1993 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का पहला अध्यक्ष बना दिया। मानवाधिकारों की खुली ह्त्या करने वालों का बचाव करने का इनाम इससे बेहतर क्या हो सकता था | 

1998 में, पार्टी ने उन्हें राज्यसभा के लिए चुना। 2004 में, कांग्रेस ने उन्हें धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों के राष्ट्रीय आयोग और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के राष्ट्रीय आयोग की लगातार अध्यक्षता दी। 

मिश्रा ने सिख विरोधी दंगों की जांच का कार्य खुद होकर माँगा था और इसके लिए तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश वी एन खरे से संपर्क साधा था, जोकि इंदिरा गांधी की आँख का तारा माने जाते थे और यह जताने में सदा गर्व महसूस करते थे । 

यूपीए -1 में खरे को पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया और इसके पीछे की बजह भी साफ़ थी | खरे ने 2002 में गोधरा काण्ड के बाद हुए सांप्रदायिक दंगों से कड़ाई से निपटने को लेकर गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को "राज धर्म" निर्वहन करने और दंगाईयों को दंडित करने की सलाह दी थी। 

1990 के दशक में, कांग्रेस के कानून मंत्री एच आर भारद्वाज ने न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए कुमारमंगलम के तरीके को ही जारी रखा और सुनिश्चित किया कि ज्यादातर नियुक्तियां वफादार लोगों की हों, व्यक्तिगत निष्ठा सबसे पहले और उसके बाद पार्टी के प्रति बफादारी । इसीलिए भारद्वाज न्यायपालिका के माध्यम से राजनीतिक उलझनों को प्रभावी ढंग से सुलझाने में महारथी माने जाने लगे । 

मिश्रा और खरे के प्रयत्नों का ही नतीजा था कि भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश वीरसवामी रामास्वामी को हटाये जाने हेतु लोकसभा में प्रस्तुत प्रस्ताव पर कांग्रेस रामास्वामी के बचाव में ढाल बनकर खडी हो गई । 

कहा गया कि रामास्वामी आतंकवाद से संबंधित मामलों से निपटने के लिए उस समय पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश बनने पर सहमत हुए थे, जब कोई भी यह जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं था । 

किन्तु अध्यक्ष रबी रे ने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और जांच समिति ने उन्हें 14 आरोपों में से 11 में दोषी पाया। प्रस्ताव पर बहस हुई । कपिल सिब्बल ने रामास्वामी के बचाव में लगातार छः घंटे भाषण दिया, जिसका सारांश 4 जून, 1993 को 'फ्रंटलाइन' पत्रिका में प्रकाशित हुआ | लेखक प्रशांत भूषण ने मजाकिए लहजे में लिखा, "सिब्बल ने सदन पर सवारी गांठी – एक जज को हटाने का प्रस्ताव, महज कुछ कार्पेट या कुछ सूटकेस खरीदने का प्रस्ताव बनकर रह गया" । 

बाद में वोटिंग से प्रथक रहकर कांग्रेस ने प्रस्ताव को गिरवा दिया, इसके पीछे एक ही कारण था कि राजीव गांधी सरकार ने ही रामास्वामी को नियुक्त किया था, और उनके निष्कासन की आंच राजीव तक भी पहुँचती । 

कांग्रेस को दशकों से आदत पड़ चुकी है, न्यायाधीशों से मनमाफिक काम लेने की | वह भूल जाते हैं कि अब वे सत्ता में नहीं हैं | न्यायाधीशों की नियुक्ति अथवा निष्कासन में, अब उनकी मनमर्जी नहीं चल सकती | इसीलिए वे न्यायपालिका के साथ पूरी तरह असहज है । 

अब, जबकि मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, जस्टिस लोया केस हो या अयोध्या प्रकरण, उनके इशारों पर नाचने को कतई तैयार नहीं हैं, तो कांग्रेसी मिर्ची चबा रहे हैं | कांग्रेस को बहाना मिल गया है, उन असंतुष्ट, महत्वाकांक्षी और राजनीतिज्ञों से मैत्री सम्बन्ध रखने वाले न्यायाधीशों का जिन्होंने हो सकता है उनके इशारे पर ही प्रेस कॉन्फ्रेंस कर चीफ जस्टिस पर आरोप लगा दिए हों और यह भी संभव है कि चीफ जस्टिस को हटाने का प्रस्ताव भी उसी सौदे का एक भाग हो । 

शीर्ष टिप्पणी 

खांग्रेस पार्टी पैथोलॉजिकल झूठों की पार्टी है.. भ्रष्टाचार और झूठे आरोपों के माध्यम से सत्ता पर काबिज होने की लालसा ही उनकी पहचान है, ना कोई विचारधारा ना कोई विचार .. रागा और उनकी कांग्रेस ...  

साभार आधार टाईम्स ऑफ़ इंडिया - 

Removal motion against CJI a remarkable piece of skullduggery


एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें