अंग्रेजों द्वारा किया गया वनवासी भीलों का नरसंहार - राजस्थान का जलियांवाला बाग़ "मानगढ़"

भारत की स्वतंत्रता में अनेकों वीर योद्धाओं ने अपने प्राणों का उत्सर्ग किया परन्तु इन वीर योद्धाओं को जानबूझकर इतिहास के पन्नों से गायब कर दिया एवं इनकी साहसिक गाथाओं को कहीं छुपा सा दिया | कहा जाता है कि यदि घर से गुम हुए बालक को अपने घर वापस पहुंचना हो तो उसे उसके माता-पिता का नाम, अपने शहर, गाँव, गली- मोहल्ले का पता होना बेहद आवश्यक है ठीक उसी प्रकार किसी भी देश को अपना इतिहास जब तक पता नही होगा वह उन्नति और प्रगति के अपने गंतव्य तक कैसे पहुँच सकता है | इसलिए भारत का प्राचीनतम गौरवशाली बलिदानी इतिहास वर्तमान की भारतीय युवा पीढ़ी को जानना बेहद आवश्यक है |

1857 ईस्वी के स्वतंत्रता आंदोलन की विपरीत परिस्थितियों के वातावरण में वागड़ क्षेत्र में गुलामी की मार झेल रहे आदिवासी समाज को ईश्वर भक्ति के मार्ग से जोड़कर सम्बल देने और नई भक्ति क्रांति का संचार करने वाले गोविन्द गुरु महाराज ( गोविन्द गिरी) ने राजस्थान के डूंगरपुर जिले के बांसिया गांव स्थित बंजारा परिवार के बेछड़गेर कमलादेवी के घर २० दिसंबर 1858 ई. को जन्म लिया | आदिवासी समाज में अपने बंधुओं की दुर्दशा को देखकर समाज वन्धुओं को संस्कारित कर स्वतंत्र कराने का दृढ संकल्प गोविन्द गिरी ने लिया | 

गोविन्द गिरी को राजस्थान में स्वतंत्रता आंदोलन का जनक भी कहा जाता है ! उन्होंने स्वाभिमान व स्वांतत्र्य हेतु विदेशी  वस्तुओं के बहिस्कार का निर्णय कर समाज को भी इस कार्य के लिए प्रेरित किया | गोविन्द गुरु स्वामी दयानन्द सरस्वती के उदयपुर प्रवास के दौरान उनके सानिध्य में रहे एवं उन्ही से प्रेरणा पाकर आपने अपना सम्पूर्ण जीवन सामाजिक कुरीतियों, दमन व शोषण से जूझ रहे जनजातीय समाज को उबारने में लगाया | इसी महत्वपूर्ण कार्य हेतु आदिवासियों को संगठित करने के उद्देध्य से 1883 में संप सभा की स्थापना की | संप का अर्थ है- एकजुटता, प्रेम और भाईचारा | इस संपसभा ने ईसाई मिशनरियों द्वारा भीलों का बड़े पैमाने पर किये जा रहे धर्मांतरण को रोकने में भी बड़ी भूमिका निभाई |

संप सभा का प्रथम अधिवेशन 1903 में हुआ | गोविन्द गुरु के अनुयायियों को भगत कहा जाने लगा, इसलिए इस आंदोलन को भगत आंदोलन कहा गया | संप सभा का मुख्य उद्देश्य समाज सुधार था | प्रतिदिन स्नानादि, नित्य यज्ञ एवं हवन, शराब-मांस पर प्रतिबंध, चोरी-लूटपाट से दूरी, खेती-मजदूरी से परिवार का पोषण, बच्चों को पढ़ना एवं इसके लिए विद्यालय खोलना, पंचायती राज के पक्षधर, अदालतों का विरोध, राजा-जागीरदार्य सरकारी अफसरों को बेगार न देना , अन्याय सहन न करना, अन्याय का विरोध करना, स्वदेशी का उपयोग करना, इसकी प्रमुख शिक्षाएं थी | 

धीरे धीरे यह संप सभा तत्कालीन राजपूताना के पूरे दक्षिणी भाग में फ़ैल गयी | रियासतों के राजा, सामंत व् जागीरदारों में इससे भय फ़ैल गया | उन्हें लगने लगा कि राजाओं को हराने के लिए इस संगठन का निर्माण किया गया है | जबकि यह आंदोलन समाज सुधार हेतु था | गोविन्द गुरु ने आदिवासियों को संगठित करने के उद्देश्य से वर्ष 1903 की मार्ग शीर्ष शुक्ल पूर्णिमा से गुजरात एवं मेवाड़ की सीमा पर स्थित मानगढ़ पहाड़ी पर धूणी में होम (यज्ञ व हवन) करना प्रारम्भ किया जो प्रतिवर्ष किया जाने लगा | 

7 दिसम्बर 1908 मार्गशीर्ष शुक्ल पूर्णिमा को सम्प सभा का वार्षिक अधिवेशन बांसवाड़ा जिला मुख्यालय से 70 किलोमीटर दूर आनन्दपुरी के समीप स्थित मानगढ़ धाम में आयोजित हुआ, जिसमें हजारों भील, मीणा आदि आदिवासी रंगबिरंगी पोशाकों में मानगढ़ पहाड़ी पर हवन करने लगे। अक्टूबर, 1913 में गोविन्द गिरि मानगढ़ पहाड़ी पहुंचे तथा भीलों को पहाड़ी पर एकत्रित होने के लिए संदेशवाहक भेजे गए। धीरे-धीरे भारी संख्या में भील मानगढ़ में एकत्रित होने लगे। वे अपने साथ राशन पानी भी लाने लगे। इसके विरोधियों ने अफवाह फैलाई कि भील सूँथ राज्य पर हमला करने वाले हैं।


10 नवम्बर, 1913 को अंग्रेजी सेना ने पहाड़ी को घेर लिया। बम्बई सरकार का एक आयुक्त अंग्रेजी सेना की एक टुकड़ी लेकर पहाड़ी पर गया लेकिन सशस्त् भीलों ने उसे वापस लौटा दिया। 12 नवम्बर, 1913 को भीलों का एक प्रतिनिधि मण्डल पहाड़ी से नीचे आया जिसने अपनी शिकायतों का एक पत्र अंग्रेजों को सौंपा , किन्तु समझौता नहीं हो सका। इससे डूंगरपुर, बांसवाड़ा और कुशलगढ़ के राजा चिंतित हो उठे। उन्होंने अहमदाबाद में अंग्रेज कमिश्नर ए. जी. जी. को सूचना दे कर बताया कि आदिवासी इनका खजाना लूट कर यहां भील राज्य स्थापित करना चाहते हैं। 

कर्नल शैटर्न के नेतृत्व में 17 नवम्बर 1913 को मेवाड़ भील कौर के सैनिकों की फौजी पलटन मानगढ़ पहाड़ी पर आ पहुँची तथा पहाड़ी पर अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी। पहाड़ी पर एक के बाद एक लाशें गिरने लगी। करीब 1500 आदिवासी मारे गए। पांव में गोली लगने से गोविन्द गुरू भी घायल हो गये। अंग्रेजो ने गोविंद गुरु, पूँजिया व अन्य कई भीलों को गिरफ्तार कर लिया। उन्हें गिरफ्तार कर अहमदाबाद तथा संतरामपुर की जेल में रखा गया और गंभीर आरोप लगाते हुये फांसी की सजा सुनाई गई। हालांकि बाद में सजा को आजीवन कारावास में बदला गया व अंत में सजा को और कम करते हुये, उन्हें 1923 में रिहा कर दिया। 

रिहा होने के बाद गुरू फिर समाज- सुधार के कार्य में लग गये। गुरू गोविंद गिरी ने अपना अंतिम समय कम्बोई (गुजरात) में व्यतीत किया। अक्टूबर 1931 में गुजरात के पंचमहल जिले के कम्बोई गांव में ही इनका निधन हो गया, लेकिन उनकी बनाई सम्प सभाएं अब भी कायम हैं तथा धूंणियां अब भी मौजूद हैं। कम्बोई में उनकी समाधि बनी हुई है जहाँ प्रतिवर्ष आखातीज व भादवी ग्यारस को मेला लगता है। जिसमें पाठ पूजन होता है। मानगढ़ का यह भीषण नरसंहार इतिहास में दूसरा जलियावाला बाग हत्याकांड के नाम से जाना जाता है। 

भीलों में स्वाधीनता की अलख जगाने वाले गोविन्द गुरू की धूणी मानगढ़ नरसंहार के बाद बंद कर दी गई थी तथा उस क्षेत्र को प्रतिबंधित कर दिया गया था। लेकिन उनके शिष्य जोरजी भगत ने आजादी के बाद 1952 में वहां फिर से यज्ञ कर धूणी पुनः प्रज्वलित की, जो आज भी चालू है। मानगढ़ की धूणी पर प्रतिवर्ष मार्गशीर्ष पूर्णिमा पर गोविन्द गुरू के जन्म दिन पर मेला लगता है, जिसमें हजारों आदिवासी आते हैं।

“भूरटिया तथा अंग्रेजां नी मानू रे नी मानू” गुरू गोविंद गिरि का गीत है, जो आज भी भील क्षेत्र में प्रचलित है।

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