मनु तो केवल बहाना है। असल उद्देश्य केवल सत्ता हथियाना है। - डॉ विवेक आर्य

2 महिलाओं ने जयपुर हाई कोर्ट परिसर में स्थापित मनु की मूर्ति पर रंग फेंक दिया। उक्त महिलाएं औरंगाबाद से चल कर जयपुर केवल मनु की मूर्ति पर रंग डालने के लिए आई थी। ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि इन महिलाओं से जब पूछा गया कि मनु कौन थे तो इनके पास एक ही उत्तर था ब्राह्मण थे। जब यह पूछा गया कि मनु की मूर्ति पर रंग क्यों डाला तो बोली मनुस्मृति पढ़ लो। इनके उत्तर सुनकर कोई भी आसानी से यह पता लगा सकता है कि ये केवल कठपुतलियां है जिन्होंने अपने जीवन में कभी मनुस्मृति पुस्तकरूप में देखी तक नहीं पढ़नी तो बहुत दूर की बात हैं। पर इनके मन में मनु के प्रति द्वेष भरा गया हैं। भरने वाले इस अनैतिक कार्य में अपना राजनीतिक हित देखते है। मनु तो केवल बहाना है। असल उद्देश्य केवल सत्ता हथियाना है। इस लेख के माध्यम से हम पाठकों को स्पष्ट करेंगे कि क्या मनु जातिवाद के पोषक थे? मनु के शूद्रों के विषय में क्या विचार थे? मनुस्मृति में मध्य काल में मिलावट हुई? निष्पक्ष होकर अगर इस तथ्य को समझा जाये तो यह विषय आसानी से समझ में आ जायेगा। 

मनुस्मृति में शूद्रों की स्थिति

मनुस्मृति के अन्तःसाक्ष्यों पर दृष्टिपात करने पर हमें कुछ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं आधारभूत तथ्य उपलब्ध होते हैं जो शूद्रों के विषय में मनु की भावनाओं का संकेत देते हैं। वे इस प्रकार हैं―

(1) दलितों-पिछड़ों को शूद्र नहीं कहा―

आजकल की दलित, पिछड़ी और जनजाति कही जाने वाली जातियों को मनुस्मृति में कहीं 'शूद्र' नहीं कहा गया है। मनु की वर्णव्यवस्था है, अतः सभी व्यक्तियों के वर्णों का निश्चय गुण-कर्म-योग्यता के आधार पर किया गया है, जाति के आधार पर नहीं। यही कारण है कि शूद्र वर्ण में किसी जाति की गणना करके ये नहीं कहा है कि अमुक-अमुक जातियां 'शूद्र' हैं। परवर्ती समाज और व्यवस्थाकारों ने समय-समय पर शूद्र संज्ञा देकर कुछ वर्णों को शूद्रवर्ग में सम्मिलित कर दिया। कुछ लोग भ्रान्तिवश इसकी जिम्मेदारी मनु पर थोंप रहे हैं। विकृत व्यवस्थाओं का दोषी तो है परवर्ती समाज, किन्तु उसका दण्ड मनु को दिया जा रहा है। न्याय की मांग करने वाले दलित प्रतिनिधियों का यह कैसा न्याय है?

(2) मनुकृत शूद्रों की परिभाषा वर्तमान शूद्रों पर लागू नहीं होती―

मनु द्वारा दी गई शूद्र की परिभाषा भी आज की दलित और पिछड़ी जातियों पर लागू नहीं होती। मनुकृत शूद्र की परिभाषा है―जिनका ब्रह्मजन्म=विद्याजन्म रुप दूसरा जन्म होता है, वे 'द्विजाति' ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य हैं। जिनका ब्रह्मजन्म नहीं होता वह 'एकजाति' रहने वाला शूद्र है। अर्थात् जो बालक निर्धारित समय पर गुरु के पास जाकर संस्कारपूर्वक वेदाध्ययन, विद्याध्ययन और अपने वर्ण की शिक्षा-दीक्षा प्राप्त करता है, वह उसका 'विद्याजन्म' नामक दूसरा जन्म है, जिसे शास्त्रों में 'ब्रह्मजन्म' कहा गया है। जो जानबूझकर, मन्दबुद्धि के कारण अथवा अयोग्य होने के कारण 'विद्याध्ययन' और उच्च तीन द्विज वर्णों में से किसी भी वर्ण की शिक्षा-दीक्षा नहीं प्राप्त करता, वह अशिक्षित व्यक्ति एकजाति=एक जन्म वाला' अर्थात् शूद्र कहलाता है। इसके अतिरिक्त उच्च वर्णों में दीक्षित होकर जो निर्धारित कर्मों को नहीं करता, वह भी शूद्र हो जाता है (मनु० २.१२६, १६९, १७०, १७२; १०.४ आदि। इस विषयक एक-दो प्रमाण द्रष्टव्य हैं―

(अ) ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः, त्रयो वर्णाः द्विजातयः ।
चतुर्थः एकजातिस्तु शूद्रः नास्ति तु पंचमः ।। ―(मनु० १०.४)

अर्थात्–ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, इन तीन वर्णों को द्विजाति कहते हैं, क्योंकि इनका दूसरा विद्याजन्म होता है। चौथा वर्ण एकजाति=केवल माता-पिता से ही जन्म प्राप्त करने वाला और विद्याजन्म न प्राप्त करने वाला, शूद्र है। इन चारों वर्णों के अतिरिक्त कोई वर्ण नहीं है।

(आ) शूद्रेण हि समस्तावद् यावद् वेदे न जायते । ―(२.१७२)
अर्थात्―जब तक व्यक्ति का ब्रह्मजन्म=वेदाध्ययन रुप जन्म नहीं होता, तब तक वह शूद्र के समान ही होता है।

(इ) न वेत्ति अभिवादस्य.....यथा शूद्रस्तथैव सः । ―(२.१२६)

अर्थात्–जो अभिवादन विधि का ज्ञान नहीं रखता, वह शूद्र ही है।

(ई) "प्रत्यवायेन शूद्रताम्"―(४.२४५)

अर्थात्–ब्राह्मण, हीन लोगों के संग और आचरण से शूद्र हो जाता है।

बाद तक भी शूद्र की यही परिभाषा रही है―

(उ) जन्मना जायते शूद्रः, संस्काराद् द्विज उच्यते । ―(स्कन्दपुराण)

अर्थात्―प्रत्येक व्यक्ति जन्म से शूद्र होता है, उपनयन संस्कार में दीक्षित होकर ही द्विज बनता है।

मनु की यह यह व्यवस्था अब भी बालिद्वीप में प्रचलित है। वहाँ 'द्विजाति' और 'एकजाति' संज्ञाओं का ही प्रयोग होता है। शूद्र को अस्पृश्य नहीं माना जाता।

(3) शूद्र अस्पृश्य नहीं―

अनेक श्लोकों से ज्ञात होता है कि शूद्रों के प्रति मनु की मानवीय सद्भावना थी और वे उन्हें अस्पृश्य, निन्दित अथवा घृणित नहीं मानते थे। मनु ने शूद्रों के लिए उत्तम, उत्कृष्ट, शुचि जैसे विशेषणों का प्रयोग किया है, ऐसा विशेष्य व्यक्ति कभी अस्पृश्य या घृणित नहीं माना जा सकता (९.३३५)। शूद्रों को द्विजाति वर्णों के घरों में पाचन, सेवा आदि श्रमकार्य करने का निर्देश दिया है (१.९१; ९.३३४-३३५)। किसी द्विज के यहाँ यदि कोई शूद्र अतिथिरुप में आ जाये तो उसे भोजन कराने का आदेश है (३.११२)। द्विजों को आदेश है कि अपने भृत्यों को, जो कि शूद्र होते थे, पहले भोजन कराने के बाद, भोजन करें (३.११६)। क्या आज के वर्णरहित सभ्य समाज में भृत्यों को पहले भोजन कराया जाता है? और उनका इतना ध्यान रखा जाता है? कितना मानवीय, सम्मान और कृपापूर्ण दृष्टिकोण था मनु का।

वैदिक वर्णव्यवस्था में परमात्मापुरुष अथवा ब्रह्मा के मुख, बाहु, जंघा, पैर से क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र की आलंकारिक उत्पत्ति बतलायी है (१.३१)। इससे तीन निष्कर्ष निकलते हैं। एक, चारों वर्णों के व्यक्ति परमात्मा की एक जैसी सन्तानें हैं। दूसरा, एक जैसी सन्तानों में कोई अस्पृश्य और घृणित नहीं होता। तीसरा, एक ही शरीर का अंग 'पैर' अस्पृश्य या घृणित नहीं होता है। ऐसे श्लोकों के रहते कोई तटस्थ व्यक्ति क्या यह कह सकता है कि मनु शूद्रों को अस्पृश्य और घृणित मानते थे?

(4) शूद्र को सम्मान व्यवस्था में छूट―

मनु ने सम्मान के विषय में शूद्रों को विशेष छूट दी है। मनुविहित सम्मान-व्यवस्था में प्रथम तीन वर्णों में अधिक गुणों के आधार पर अधिक सम्मान देने का कथन है जिनमें विद्यावान् सबसे अधिक सम्मान्य है (२.१११, ११२, १३०)। किन्तु शूद्र के प्रति अधिक सद्भाव प्रदर्शित करते हुए उन्होंने विशेष विधान किया है कि द्विज वर्ण के व्यक्ति वृद्ध शूद्र को पहले सम्मान दें, जबकि शूद्र अशिक्षित होता है। यह सम्मान पहले तीन वर्णों में किसी को नहीं दिया गया है―

"मानार्हः शूद्रो ऽपि दशमीं गतः"-(२.१३७)

अर्थात्–वृद्ध शूद्र को सभी द्विज पहले सम्मान दें। शेष तीन वर्णों में अधिक गुणी पहले सम्मान का पात्र है।

(5) शूद्र को धर्मपालन की स्वतन्त्रता―

"न धर्मात् प्रतिषेधनम्"(१०.१२६) अर्थात्–'शूद्रों को धार्मिक कार्य करने का निषेध नहीं है' यह कहकर मनु ने शूद्र को धर्मपालन की स्वतन्त्रता दी है। इस तथ्य का ज्ञान उस श्लोक से भी होता है जिसमें मनु ने कहा है कि 'शूद्र से भी उत्तम धर्म को ग्रहण कर लेना चाहिए' (२.२१३)। वेदों में शूद्रों को स्पष्टतः यज्ञ आदि करने और वेदशास्त्र पढ़ने का अधिकार दिया है―

यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः ।
ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय ।। ―(यजुर्वेद २६.२)

अर्थात्–मैंने इस कल्यणकारिणी वेद वाणी का उपदेश सभी मनुष्यों–ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र, वैश्य, स्वाश्रित स्त्री-भृत्य आदि और अतिशूद्र आदि के लिए किया है।

मनु की प्रतिज्ञा है कि उनकी मनुस्मृति वेदानुकूल है, अतः वेदाधारित होने के कारण मनु की भी वही मान्यताएं हैं। यही कारण है कि उपनयन प्रसंग में कहीं भी शूद्र के उपनयन का निषेध नहीं किया है, क्योंकि शूद्र तो तब कहाता है, जब कोई उपनयन नहीं कराता।

(6) दण्डव्यवस्था में शूद्र को सबसे कम दण्ड―

आइये, अब मनुविहित दण्डव्यवस्था पर दृष्टिपात करते हैं। यह कहना नितान्त अनुचित है कि मनु ने शूद्रों के लिए कठोर दण्डों का विधान किया है और ब्राह्मणों को विशेषाधिकार एवं विशेष सुविधाएं प्रदान की हैं। मनु की दण्डव्यवस्था के मानदण्ड हैं―गुण-दोष, और आधारभूत तत्व हैं―बौद्धिक स्तर, सामाजिक स्तर, पद, अपराध का प्रभाव। मनु की दण्डव्यवस्था यथायोग्य दण्डव्यवस्था है, जो मनोवैज्ञानिक है। यदि मनु वर्णों में गुण-कर्म-योग्यता के आधार पर उच्च वर्णों को अधिक सम्मान और सामाजिक स्तर प्रदान करते हैं तो अपराध करने पर उतना ही अधिक दण्ड भी देते हैं। इस प्रकार मनु की यथायोग्य दण्ड व्यवस्था में शूद्र को सबसे कम दण्ड है, और ब्राह्मण को सबसे अधिक, राजा को उससे भी अधिक। मनु की यह सर्वमान्य दण्डव्यवस्था है, जो सभी दण्डस्थानों पर लागू होती है―

अष्टापाद्यं तु शूद्रस्य स्तेये भवति किल्विषम्
षोडशैव तु वैश्यस्य द्वात्रिंशत् क्षत्रियस्य च ।।
ब्राह्मणस्य चतुःषष्टिः पूर्णं वाऽपि शतं भवेत् ।
द्विगुणा वा चतुःषष्टिः, तद्दोषगुणविद्धि सः ।। ―(८.३३७-३३८)

अर्थात्–किसी चोरी आदि के अपराध में शूद्र को आठ गुणा दण्ड दिया जाता है तो वैश्य को सोलहगुणा, क्षत्रिय को बत्तीस गुणा, ब्राह्मण को चौंसठगुणा, अपितु उसे सौगुणा अथवा एक सौ अट्ठाईसगुणा दण्ड करना चाहिए क्योंकि उत्तरोत्तर वर्ण के व्यक्ति अपराध के गुण-दोषों और उनके परिणामों, प्रभावों आदि को भलीभांति समझने वाले हैं।

इसके साथ ही मनु ने राजा को आदेश दिया है कि उक्त दण्ड से किसी को छूट नहीं दी जानी है, चाहे वह आचार्य, पुरोहित और राजा के पिता-माता ही क्यों न हों। राजा दण्ड दिये बिना मित्र को भी न छोड़े और कोई समृद्ध व्यक्ति शारीरिक अपराधदण्ड के बदले में विशाल धनराशि देकर छूटना चाहे तो उसे भी न छोड़े (८.३३५, ३४७)

देखिए, मनु की दण्डव्यवस्था कितनी मनोवैज्ञानिक, न्यायपूर्ण, व्यावहारिक और श्रेष्ठप्रभावी है। इसकी तुलना आज की दण्डव्यवस्था से करके देखिए, दोनों का अन्तर स्पष्ट हो जायेगा।

मनु की दण्डव्यवस्था अपराध की प्रकृति पर निर्भर है। वे गम्भीर अपराध में यदि कठोर दण्ड का विधान करते हैं तो चारों वर्णों को ही, और यदि सामान्य अपराध में सामान्य दण्ड का विधान करते हैं, तो वह भी चारों वर्णों के लिए सामान्य होता है। शूद्रों के लिए जो कठोर दण्डों का विधान मिलता है वह प्रक्षिप्त (मिलावटी) श्लोकों में है। उक्त दण्डनीति के विरुद्ध जो श्लोक मिलते हैं, वे मनुरचित नहीं हैं।

(7) शूद्र दास नहीं है–

शूद्र से दासता कराने अथवा जीविका न देने का कथन मनु के निर्देशों के विरुद्ध है। मनु ने सेवकों, भृत्यों का वेतन, स्थान और पद के अनुसार नियत करने का आदेश राजा को दिया है और यह सुनिश्चित किया है कि उनका वेतन अनावश्यक रुप से न काटा जाये (७.१२५-१२६;८.२१६)

(8) शूद्र सवर्ण हैं―

वर्तमान मनुस्मृति को उठाकर देख लीजिए, उनकी ऐसी कितनी ही व्यवस्थाएं हैं, जिन्हें परवर्ती समाज ने अपने ढंग से बदल लिया है। मनु ने शूद्र सहित चारों वर्णों को सवर्ण माना है, चारों से भिन्न को असवर्ण (१०.४,४५), किन्तु परवर्ती समाज शूद्र को असवर्ण कहने लग गया। मनु ने शिल्प, कारीगरी आदि कार्य करने वाले लोगों को वैश्य वर्ण के अन्तर्गत माना है (३.६४;९.३२९;१०.९९;१०.१२०), किन्तु परवर्ती समाज ने उन्हें भी शूद्रकोटि में ला खड़ा कर दिया। दूसरी ओर, मनु ने कृषि, पशुपालन को वैश्यों का कार्य माना है (१.९०), किन्तु सदियों से ब्राह्मण और क्षत्रिय भी कृषि-पशुपालन कर रहे हैं, उन्हें वैश्य घोषित नहीं किया। इसको मनु की व्यवस्था कैसे माना जा सकता है?

इस प्रकार मनु की व्यवस्थाएं न्यायपूर्ण हैं। उन्होंने न शूद्र और न किसी अन्य वर्ण के साथ अन्याय या पक्षपात किया है।

[साभार–"मनु का विरोध क्यों?" पुस्तक से,लेखक-डॉ० सुरेन्द्र कुमार]

सत्य और असत्य के त्याग के लिए सर्वदा उद्यत रहना चाहिए-स्वामी दयानन्द सरस्वती

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