मर्यादा पुरुषोत्तम राम - एक जीवन दृष्टि - विशाल अग्रवाल


बचपन से राम के बारे बहुत कुछ सुना पढ़ा और अधिकांशतः उनकी चर्चा एक भगवान या अवतार के रूप में ही सुनी देखी, परन्तु थोड़ा समझ का स्तर बढ़ते ही मेरे मन ने उन्हें सदैव उस व्यक्ति के रूप में देखा समझा, जिसने व्यवहार के नए मानक गढ़े, जिसने मर्यादायों के नए प्रतिमान स्थापित किये और जिसने स्वयं के हित के आगे सदैव समाज हित रखा, परहित रखा|

किसी को अवतार या भगवान बताने के स्थान पर उसके सदगुणों को अपनाने, उसके संघर्षों से प्रेरणा लेने और उसके चरित्र को आत्मसात करने से मुक्ति प्राप्त कर लेना सबसे सरल काम है | किसी को भगवान बना देने से तो फिर ये तर्क काम करता है ना कि अब उनके जैसे हम कैसे हो सकते हैं, वो तो भगवान थे, अवतार थे|

पर मैंने राम को सदा एक ऐसे व्यक्ति के रूप में देखा जिन्होंने केवल और केवल अपने सद्कार्यों से स्वयं को महापुरुष और फिर देवत्व की ऊंचाइयों तक पहुँचाया और इस सीमा तक पहुँचाया कि उनका नाम लोगों का सम्बल हो गया, उनका आराधन लोगों का जीवन हो गया, उनका स्मरण लोगों का तर्पण हो गया|

लोगों के लिए राम जो भी रहें, मेरे लिए वो सदैव एक ऐसे व्यक्ति रहे, जिसने राजपरिवार में भी जन्म लेकर मात्र सुख सुविधाओं के भोग तक स्वयं को सीमित नहीं रखा; जो मानवता की रक्षा के लिए अपने कुलगुरु के विरोधी माने जाने वाले एक ऋषि के साथ पिता की अनिच्छा के विरुद्ध जाने के लिए तत्पर हुया; जिसने स्त्री सम्मान पर बड़ी बड़ी बातें नहीं की बल्कि उसे धरातल पर उतारा और किसी भी कारण से समाज से परित्यक्त एक स्त्री को उसका सम्मान वापिस दिलाया|

जो राजकुल का होकर भी एक अज्ञात कुलशीला को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकारने के लिए केवल इसलिए तत्पर हो गया कि आर्य संस्कृति के पुराधाओं को एक करने के गुरु के स्वप्न में इस कदम से सहायता मिलती है; जिसने विमाता से मिले चौदह वर्षों के वनवास को एक अवसर के रूप में लिया और एक बार भी इस वनवास को निरस्त कराने का प्रयास नहीं किया; जिसने वनवास के एक एक क्षण का उपयोग भुला और बिसरा दी गयी उन जातियों और समूहों को जोड़ने के लिए किया जिन तक आर्य संस्कृति ने इससे पहले अपने अहम् में कभी पहुँचने का प्रयास नहीं किया|

जिसने वंचित और वनवासी समाज के बीच एक ऐसा संगठन खड़ा करने की सामर्थ्य अपने अकेले के दम पर की जिसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता; जो उच्च राजकुल का होकर भी वनवासियों, दलितों, वंचितों के लिए उनके अपने बीच का ही कोई रहा; जो चरित्र के दृष्टिकोण से इतना दृढ था कि पूरा जीवन निष्कलंक रहा; जो पत्नी के प्रति इस तरह पूर्ण समर्पित था कि बहुविवाह वाले उस युग में भी एकपत्नी व्रत का अक्षरशः पालन किया; जिसमें प्रत्यक्षतः पत्नी के अपराधी को दंड देने और परोक्षतः आसुरी शक्तियों का विनाश करने के लिए अपने राज्य से हज़ारों मील दूर केवल वनवासियों और वंचितों की सहायता से ही अपने महाबलशाली विरोधी को धुल में मिला देने की सामर्थ्य थी|

जिसे अयोध्या-किष्किन्धा और लंका कहीं के भी राज्य का रंचमात्र भी लोभ छू तक नहीं गया था; जिसने भविष्य में स्वयं के आरोपित किये जाने की संभावनाओं के बावजूद अपनी प्रिया के चरित्र और शील को उस स्तर तक पंहुचा दिया कि हज़ारों साल बाद भी सीता का नाम चरित्र-शील-सतीत्व का पर्याय है भले ही राम पत्नी के अपराधी ठहराए जा रहे हों; जो पुत्र-शिष्य-आर्य राजकुमार-पति-और राजा के रूप में मर्यादायों की वो लकीर खींच गया कि जिन मानदंडों को हम आज भी अपने मर्यादित या अमर्यादित होने के लिए प्रयोग करते हैं और जो इन सबसे बढ़कर इस देश की आत्मा में एकाकार हो गया|

एक ऐसे व्यक्ति के रूप में राम की कल्पना ही मुझे पुलकित कर देती है और मुझे लगता है कि इस चरित्र का एक प्रतिशत भी मुझमें आ जाये तो इस धरा पर ये जीवन धन्य हो जाए| ये विजयदशमी बस यही प्रार्थना है कि राम का संघर्ष, उनकी मर्यादाएं, उनकी दृष्टि, उनका संवेदन मन हम सबके जीवन का भाग बने ताकि हम भी आधुनिक रावणों का समूल नाश कर सकें|
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