एक अजात शत्रु राजनेता - पंडित प्रेमनाथ डोंगरा - विशाल अग्रवाल



कश्मीर के भारत में विलय से लेकर आज तक कश्मीर में जो हालात हैं और जिस तरह से देशद्रोह भड़काने, कश्मीर की "आजादी" की बातें और पाकिस्तानी झण्डे लहराने की घटनाएं लगातार हो रही हैं, वे अत्यंत चिंताजनक हैं और ऐसे में याद आती है उस विभूति की जिसने डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ मिलकर कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग बनाए रखने के प्रश्न पर जबरदस्त आंदोलन किया था और शेख अब्दुल्ला की दुरभिसंधियों को देश के समक्ष रखा था। वे विभूति और कोई नहीं, प्रजा परिषद के अध्यक्ष और भारतीय जनसंघ के संस्थापक सदस्य और अध्यक्ष रहे पं. प्रेमनाथ डोगरा थे।

वृद्धावस्था में भी तरुणों को मात देने वाली तरुणायी वाले पंडित प्रेमनाथ डोगरा का जन्म 23 अक्तूबर 1894 को जम्मू नगर से 22 किमी. दूर जम्मू-पठानकोट मार्ग से उत्तर में स्थित एक प्रसिद्ध गांव समैलपुर में हुआ। उनके पिताजी पं.अनंत राय महाराजा रणवीर सिंह के समय में "रणवीर गवर्नमेंट प्रेस" के और फिर लाहौर में "कश्मीर प्रापर्टी" के अधीक्षक रहे। उनका महत्व इसी से समझा जा सकता है कि लाहौर में वे राजा ध्यान सिंह की हवेली में रहते थे और इसीलिए प्रेमनाथ जी की शिक्षा लाहौर में ही हुई।

पंडित प्रेमनाथ जी बचपन से ही पढ़ाई में अत्यंत योग्य और खेलों में अत्यंत चुस्त एवं निपुण थे। 1904 में उन्होंने मॉडल स्कूल, लाहौर से मैट्रिक की परीक्षा पास की और एफ.सी.कालेज में प्रवेश लिया। वहां उन्होंने पढ़ाई के साथ-साथ खेलों में विशेष रुचि दिखाई और 100 गज, 400 गज, आधा मील, एक मील की दौड़ में प्रथम स्थान प्राप्त किया। उस कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे पंजाब के तत्कालीन गवर्नर, से उन्हें एक जेब घड़ी पुरस्कार में मिली, जिसे उन्होंने बहुत दिनों तक संभाल कर रखा और आज भी वह उनके परिवार के पास सुरक्षित है। कालेज जीवन में पंडित जी फुटबाल के भी ऊंचे दर्जे के खिलाड़ी थे और कालेज की फुटबाल टीम में शामिल थे। जम्मू राज्य के तत्कालीन गवर्नर चेतराम चोपड़ा ने एक बार कहा था-"मैं समझता हूं कि पंडित जी की स्फूर्ति और तेज गति का कारण यही फुटबाल का खेल था, जिसका प्रभाव उनके जीवन में अंतिम दिन तक रहा था।"

शिक्षा समाप्त करने के बाद शासन में कई स्थानों और उच्च पदों पर काम करते हुए पं. डोगरा 1931 में मुजफ्फराबाद के वजीरे वजारत (मुजफ्फराबाद जिले के मंत्री) बने। 1931 में शेख अब्दुल्ला का कश्मीर छोड़ो आंदोलन जोरों पर था। मुजफ्फराबाद में भी शांति भंग होने की संभावना बहुत अधिक थी, परंतु पंडित जी ने उपद्रव करने वालों के प्रति सख्ती नहीं दिखाई और उस आंदोलन को बिना बल प्रयोग किये अपनी कूटनीति से शांत कर दिया; पर शासन बल प्रयोग चाहता था। अतः उन्हें नौकरी से अलग कर दिया गया। पंडित जी सरकारी नौकरी छोड़ने के बाद जनसेवा में जुट गए। 1940 में पंडित जी जम्मू में प्रजा सभा के पहली बार सदस्य चुने गये। उसके पश्चात वह लोगों के अधिक से अधिक निकट आते गए।

1947 में जब देश का साम्प्रदायिक बंटवारा हुआ तो परिस्थितियों तथा एक राष्ट्रवादी सोच के अंतर्गत इस वंश के महाराजा हरि सिंह ने अपने कानूनी अधिकारों का प्रयोग करते हुए भारत के साथ विलय का प्रस्ताव रखा। किन्तु देश के पहले प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू ने यह शर्त लगा दी कि विलय के साथ महाराजा को सत्ता उनके मित्र तथा नेशनल कान्फ्रेंस के नेता शेख मोहम्मद अब्दुल्ला को सौंपनी होगी। सत्ता संभालने से पूर्व एक राजनीतिक पग के रूप में शेख मोहम्मद अब्दुल्ला ने महाराजा को अपने लिखित पत्र में उनका राजभक्त रहने का आश्वासन दिया। किन्तु कुछ ही समय पश्चात् न केवल महाराजा को राज्य से बाहर निकालने के लिए चालें आरम्भ कर दीं, बल्कि कई डोगरा नेताओं को पकड़कर जेल में डाल दिया तथा कई राष्ट्रवादियों को राज्य से बाहर का रास्ता दिखा दिया।

उन्हीं दिनों भारत का संविधान बन रहा था, जिसमें जम्मू-कश्मीर से शेख मोहम्मद अब्दुल्ला के साथ उनके तीन बड़े साथी भारत के संविधान के निर्माण में भागीदार बने। जम्मू के विरुद्ध नेशनल कान्फ्रेंस की घृणा इसलिए भी थी कि महाराजा मूल रूप से जम्मू के थे तथा कश्मीर के नेता उन्हें डोगरा मानकर डोगरों कश्मीर छोड़ो के नारे उसी प्रकार लगाते थे जिस प्रकार शेष भारत में अंग्रेज भारत छोड़ो का आंदोलन चलता था। अत: संविधान निर्माण के समय चतुरता से भाग लेते हुए राज्य के इन प्रतिनिधियों ने जम्मू-कश्मीर, लद्दाख, गिलगित, तिब्बत हाई के स्थान पर अपने राज्य का नाम केवल कश्मीर दर्ज करा दिया।

किन्तु बंगाल तथा कुछ अन्य भागों के दूरदर्शी प्रतिनिधियों के हस्तक्षेप से संशोधन हुआ तथा इस राज्य को संविधान में जम्मू-कश्मीर का नाम मिला। लद्दाख और गिलगित का नाम समाप्त हो गया। इसी के साथ नेशनल कान्फ्रेंस तथा कांग्रेस ने संविधान की आठवीं सूची में केवल कश्मीरी भाषा को ही शामिल करवाया। भाषाओं की इस सूची में डोगरी को कोई सम्मान नहीं मिल सका। कई वर्षों के संघर्ष के पश्चात् डोगरी को उनकी भाषा की यह पहचान 2003 में एन.डी.ए. सरकार के शासनकाल में प्राप्त हुई।

जब महाराज हरिसिंह को रियासत से बाहर जाना पड़ा, तब जवाहर लाल नेहरू की शह पर शेख अब्दुल्ला ने अपने "नया कश्मीर" के एजेंडा के अनुसार "अलग प्रधान, अलग निशान व अलग विधान" का नारा छेड़ा। कश्मीर घाटी में मुसलमानों की संख्या अधिक थी, अतः वहां भारतीय तिरंगे के स्थान पर शेख के लाल रंग और हल निशान वाले झंडे फहराने लगे। स्वाभाविक रूप से ये तीनों बातें देशहित में नहीं थीं इसलिए इसका तीखा विरोध करते हुए पं. प्रेमनाथ डोगरा के नेतृत्व में प्रजा परिषद् का गठन हुआ और एक देश में एक प्रधान, एक निशान और एक विधान का आंदोलन छिड़ गया।

दरअसल पंडितजी बहुत पहले ही समझ गए थे कि शेख अब्दुल्ला प्रत्यक्ष रूप से भले ही इस लड़ाई को महाराज के विरुद्ध बता रहे हों, पर उनका अंतिम निशाना जम्मू के डोगरे और लद्दाख के बौद्ध ही हैं। उन्होंने ये भी समझ लिया कि नेहरू ने शेख को पूरी तरह से अपने कन्धों पर बैठा लिया है और ऐसे में राज्य का एकमात्र दल होने के चलते सत्ता तो शेख को दी ही जाएगी, उसकी सब बातें भी आँख मूँद कर मान ली जाएगी क्योंकि कोई संगठित आवाज उसका विरोध करने के लिए है ही नहीं। ऐसे में भविष्य की रणनीति बनाते हुए उन्होंने बलराज माधोक के साथ मिलकर प्रजा परिषद् का गठन किया और बाद में यही संगठन शेख अब्दुल्ला और नेहरू की दुरभिसंधियों की रफ़्तार पर ब्रेक लगाने का माध्यम बना।

इस आंदोलन में पंडित जी तीन बार जेल गये और काफी दिनों तक जेल में रहे जहां शेख अब्दुल्ला सरकार ने उन्हें बहुत कष्ट दिए। उन्हें मुक्त कराने के लिए जबरदस्त आन्दोलन हुआ। उस समय नारा था "जेल के दरवाजे खोल दो, पंडित जी को छोड़ दो।" उनकी सरकारी पेंशन भी बंद कर दी, पर पंडित जी झुके नहीं। पंडित जी जो लड़ाई लड़ रहे थे, वो केवल जम्मू की लड़ाई नहीं थी, बल्कि पूरे हिंदुस्तान की लड़ाई थी, उसकी पहचान की लड़ाई थी। इस बात की लड़ाई थी कि जब पूरे हिंदुस्तान में तिरंगा फहराया जा सकता है तो जम्मू के सचिवालय में क्यों नहीं।

आज की पीढी के लिए यक़ीन करना मुश्किल होगा कि इस मांग के लिए कितने ही लोगों ने अपने प्राणों का बलिदान किया, लेकिन अंत में प्रेमनाथ जी के नेतृत्व में जम्मू के लोगों ने यह लड़ाई पूरे हिदुस्तान के लिए जीती और आज जम्मू में सचिवालय पर फहरा रहा तिरंगा इसी संघर्ष का परिणाम है।

उसके बाद प्रेमनाथ जी ने पूरे देश में घूम घूम कर जम्मू कश्मीर की व्यथा को लोगों को बताया और इसी सिलसिले में वो श्यामाप्रसाद मुखर्जी से भी मिले। मुखर्जी जी उनकी व्यथा को ना सिर्फ समझे बल्कि उसे महसूस भी किया। आखिर उनसे अच्छे से नेहरू को कौन जानता था, जिन्होंने बंगाल के हिंदुओं को पाकिस्तानियों के भरोसे छोड़ दिया और कभी भी पलट कर उनका हाल नहीं पूछा। कभी नवम गुरु तेगबहादुर जी महाराज ने कश्मीर के हिंदुओं के लिए अपना बलिदान दिया था और इस बार ये बलिदान दिया बंगाल की धरती के सपूत श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने। उनके नेतृत्व में कश्मीर आंदोलन शुरू हुआ।

23 जून, 1953 को श्रीनगर की जेल में डा. मुखर्जी की संदेहास्पद हत्या कर दी गयी। उस समय पंडित जी भी श्रीनगर जेल में कैद थे। पंडित जी 1953 के प्रजा परिषद के आंदोलन के पश्चात देश भर में एक राष्ट्रनिष्ठ राजनेता के रूप में उभरकर सामने आये। कुछ समय बाद प्रजा परिषद का जनसंघ में विलय हो गया और इसके बाद वह एक वर्ष जनसंघ के अखिल भारतीय अध्यक्ष भी रहे। वह जम्मू कश्मीर के एकमात्र ऐसे नेता थे जो किसी राष्ट्रीय दल के अध्यक्ष रहे। उसके बाद से आज तक यह सौभाग्य किसी को भी नहीं प्राप्त हो सका है। 1957 में जम्मू नगर क्षेत्र से पंडित जी प्रदेश की विधानसभा के सदस्य चुने गए और 1972 तक हर चुनाव जीतते रहे।

जम्मू कश्मीर में जनमत संग्रह के संबंध में उनका साफ कहना था कि विलय पत्र में जनमत संग्रह का कोई जिक्र नहीं है। रियासत के सभी नेताओं और राजनीतिक दलों ने जिनमें नेशनल कांफ्रेंस भी शामिल थी, इस विलय को मान्यता दे दी थी। उसके पश्चात चुनाव होने पर शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली विधान सभा ने भी विलय को प्रामाणिक माना इसलिए जनमत की बात करना देशभक्त नागरिक का काम नहीं है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक पूज्य श्री गुरूजी 1972 तक जब भी कार्यक्रमों के निमित्त जम्मू जाते, वे केवल पंडित जी के निवास पर ही ठहरते थे। 21 मार्च, 1972 को अपने निवास स्थान कच्ची छावनी में ऐसे अजातशत्रु, श्रेष्ठ सामाजिक व राजनीतिक कार्यकर्ता, देश के प्रखर नेता एवं राष्ट्र की अखंडता को समर्पित जुझारू व्यक्तित्व पं. प्रेमनाथ डोगरा का निधन हो गया।

प्रेमनाथ डोगरा जी जम्मूवासियों के लिए आज भी श्रद्धेय हैं। जम्मू के लोग मानते हैं कि प्रेमनाथ जी ने ही जम्मू को संरक्षण प्रदान किया और उन्हें शेर-ए-डुग्गर के नाम से याद करते हैं। कुछ बड़े इतिहासकारों का कहना है कि अगर महाराजा गुलाब सिंह ने इस राज्य का निर्माण किया था तो प्रेमनाथ डोगरा ने देश की स्वतंत्रता के पश्चात् इसे भारत का अभिन्न अंग बनाए रखने तथा जम्मू की पहचान उसे दिलाने में अपना बहुत बड़ा योगदान दिया था। किन्तु भेदभाव का अध्याय अभी भी समाप्त नहीं हुआ है जिसके लिए राष्ट्रवादी शक्तियां अभी भी प्रयत्नशील हैं।

पं. प्रेमनाथ डोगरा के जीवन के सम्बंध में कुछ ऐसे पक्ष भी हैं जिनके बहुत ही कम उल्लेख हुए हैं। आज की वंशवाद की राजनीति तथा राजनेता बनकर सम्पत्ति जुटाने का क्रम पं. डोगरा के त्याग को और भी महान बना देता है। वह सरकारी प्रशासन के उच्च पदों पर रहे। महाराजा के काल में उनकी प्रजा सभा के सदस्य चुने गए और फिर 1957 से लेकर 1972 तक तीन बार राज्य विधानसभा के सदस्य भी रहे। किन्तु उन्होंने कोई सम्पत्ति नहीं जुटाई और अपने जीवन के अंतिम दिनों में उन्हें आर्थिक कठिनाइयां भी देखनी पड़ीं।

उन्होंने अपने निवास स्थान का एक बड़ा भाग अपने राजनीतिक संगठन को अर्पित कर दिया। यहां आज भी प्रदेश भाजपा का मुख्य कार्यालय बना है। पंडित प्रेमनाथ डोगरा आज हमारे बीच भले ही ना हों, परंतु राष्ट्रहित के लिए सब कुछ न्योछावर करने की जो परंपरा वो छोड़ गए, उसे डोगरों ने आज तक नहीं छोड़ा। उनके जन्मदिवस 23 अक्टूबर पर उनकी पावन स्मृति को शत शत नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि।
एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें