युगों से अनुत्तरित सवाल? ईश्वर है भी या नहीं ? ईश्वर की वैज्ञानिक और आध्यात्मिक व्याख्या !



वेदों ने जिसे नेति नेति अर्थात अंत हीन कहा क्या उसे हम जैसे सामान्य लोग जानने का प्रयत्न भी न करें ? पुराणों ने कहा कि उसे अर्थात ईश्वर को केवल उसकी कृपा से ही जाना जा सकता है | और जहाँ तक ईश्वरीय कृपा की बात है तो उसके विषय में हम केवल मात्र इतना ही जानते हैं कि, वह कुछ को मिली है, और कुछ को नहीं ! जिन्हें मिली है, उन्हें क्यों मिली है, अथवा जिन पर उस कृपा की वर्षा नहीं हुई, वह क्यों नहीं हुई, इसका कोई जबाब हमारे पास नहीं होता ! 

ईश्वर कैसा है, इसके अलावा भी कई सवाल युगों से अनुत्तरित हैं | यह दुनिया क्या है और क्यों है ? यह दुनिया कहाँ से आई ? ईश्वर ने यह दुनिया क्यों बनाई ? जन्म के पहले मैं कहाँ था ? मरने के बाद लोग कहाँ जाते हैं ? हम इस दुनिया में आये हैं, या इस दुनिया में से आये हैं ! जैसे वृक्ष में पत्तियां, या समुद्र में लहर आती हैं ! विचार के कई विषय हैं | 

इन प्रश्नों का दुनिया के लगभग सभी मान्य धर्म सतत उत्तर खोजते रहे हैं, पर अभी तक कोई संतोष जनक समाधान देने में समर्थ दिखाई नहीं देते ! तो क्या किया जाए ? 

अनेक दार्शनिकों ने तो यह कहना ही शुरू कर दिया कि यह प्रश्न ही बेमानी हैं और इन पर विचार ही नहीं किया जाना चाहिए ! इससे छुटकारा मिलते ही अनेकों दर्शन संबंधी समस्याएं समाप्त हो जायेंगी ! पाश्चात्य प्रसिद्ध दार्शनिक वैज्ञानिकों ने ऐसी ही नास्तिकता सम्बन्धी मान्यताओं का विश्वभर में प्रचार-प्रसार किया है ! आजकल न केवल पाश्चात्य भौतिकता प्रधान देशों में अपितु भारत के शिक्षित वर्ग और बुद्धिजीवियों में भी यही मानसिकता बनती जा रही है कि वास्तव में ईश्वर नाम की कोई वस्तु नहीं है, यह मात्र कल्पना है, उसकी उपासना, ध्यान, पूजा, स्तुति के लिए समय लगाना, धन लगाना, शक्ति लगाना व्यर्थ है ! इन काल्पनिक निराधार मान्यताओं में कुछ भी नहीं रखा है, जीवन बहुत छोटा है, समय बहुत कम है और काम बहुत अधिक है अतः कुछ करने – कराने की बात करनी चाहिए ! इन व्यर्थ की बातों में समय नष्ट नहीं करना चाहिए ! 

शायद ऐसे दार्शनिक चिंतन का ही प्रभाव है कि आज की भौतिकवादी सभ्यता में इन प्रश्नों पर विचार होना कम हो गया है ! किन्तु हम यह नहीं समझ रहे हैं कि यह वृत्ति अत्याधिक विध्वंसक है ! राजनीतिक और नैतिक सन्दर्भों में इसके दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं ! जो व्यक्ति यह मानता है कि मैं शरीर के अतिरिक्त कुछ नहीं हूँ ! जन्म से पहले मेरा कोई अस्तित्व नहीं था और मृत्यु के पश्चात भी नहीं रहेगा ! अकस्मात् मेरा शरीर बन गया है तथा मृत्यु के बाद मेरा अंत है ! संसार अकस्मात् बन गया है, संसार का बनाने वाला, संचालन करने वाला भी कोई ईश्वर नहीं है ! सब कुछ स्वाभाविक है ! 

तो ऐसा व्यक्ति तो बस अपने शरीर को खिलाने, पिलाने, सजाने, संवारने और इसकी रक्षा में ही लगा रहेगा ! ऐसा व्यक्ति झूठ, छल, कपट, धोखा, विश्वासघात, अन्याय, शोषण आदि के माध्यम से भोग के साधनो का संग्रह करेगा और जब तक जियेगा भोग विलास में ही लगा रहेगा ! 

ऐसे व्यक्ति के लिए सदाचार, अहिंसा, परोपकार, त्याग आदि बातें कोई महत्त्व नहीं रखती है ! ऐसा व्यक्ति समय, शक्ति, धन से दूसरे की सहायता क्योँ करेगा ? किसके लिए करेगा ? उसे बदले में क्या मिलेगा त्याग करने में ? दूसरा मनुष्य भूखा-प्यासा-नंगा है तो उसे क्या ? क्योँ ऐसे झंझट में पडेगा ? वह सड़क पर गिरे व्यक्ति को क्योँ उठाएगा ? दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति को वह क्योँ उठाकर चिकित्सालय पहुंचाएगा ? बिलकुल नहीं करेगा, जैसा की आज प्रायः देखते है ! 

आज के मानव समाज में ऐसी मान्यता वाले व्यक्तियों का जीवन प्रत्यक्ष देखने को मिलता है ! खाओ-पियो और मौज करो ! उनकी यह मान्यता बन गयी है कि यह जीवन “प्रथम और अंतिम है” ! न पीछे था न आगे होगा ! बस येन केन प्रकारेण जो कुछ भोगना है भोग लो, मृत्यु के पश्चात सब कुछ समाप्त हो जाएगा ! ऐसे व्यक्ति समाज, राष्ट्र, जाती, धर्म, संस्कृति के लिए कुछ भी नहीं करते है, क्यूंकि वे सोचते है कि ऐसा करने से मुझे क्या मिलेगा ? 

यह सही है कि आधुनिक सभ्यता ने विशाल तकनीकी सफलता अर्जित की है, किन्तु दूसरी ओर यही तकनीक परमाणु बम से पूरे ग्रह को उड़ा सकती है, बढ़ती जनसंख्या इसका गला घोंट सकती है, संरक्षण का अभाव प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट कर ही रहा है या रसायनों और कीटनाशकों का अंधाधुंध प्रयोग मिट्टी की उर्वरा शक्ति को नष्ट कर रहा है, साथ ही साथ पैदावार को भी जहरीला कर रहा है ! क्या यह सब भयावह नहीं हैं ? 

किन्तु कनाडा में मानिटोबा वि. वि के प्रो फ्रेंक एलन के विचार इनसे भिन्न हैं | वे कहते हैं कि थर्मोडायनेमिक्स (उष्मा गतिकीय) नियमों से यह पता चलता है कि संसार ऐसी अवस्था को प्राप्त होता जा रहा है जबकि सभी पिंडों का एक जैसा अत्यंत कम तापमान रह जाएगा और उसमे शक्ति भी शेष नहीं रहेगी तब प्राणियों का जीवन धारण करना असंभव हो जाएगा ! अनंत काल में शक्ति समाप्ति की यह अवस्था कभी न कभी तो आएगी ही ! यह इतनी गर्मी देने वाला सूर्य और तारे, असंख्य जीव धारियों को अपनी गोद में लपेटे यह प्रथ्वी, इस बात के पक्के सबूत है कि सृष्टि का उद्भव किसी न किसी काल में, काल की किसी निश्चित अवधि तक के लिए घटित हुआ है और इसलिए इस विश्व का कोई न कोई रचियता होना चाहिए ! एक महान प्रथम कारण, एक शाश्वत, सर्वज्ञ और सर्व शक्तिमान स्त्रष्टा अवश्य होना चाहिए और यह सारा विश्व उसी की कारीगरी है ! 

कोई अनंत चेतन शक्ति ही यह समझ सकती है कि इस प्रकार का अणु जीवन का आधार बन सकता है ! उसी शक्ति ने इस अणु का निर्माण किया है और उसी ने इसे जीवन धारण के योग्य बनाया है ! उस शक्ति का नाम परमात्मा है ! 

प्रत्येक व्यक्ति का अपना जीवन दर्शन हो सकता है, दुनिया को देखने का एक अलग नजरिया हो सकता है ! प्रत्येक व्यक्ति यह सोचने को स्वतंत्र है कि उसका जीवन कैसे सार्थक हो ! हमारा अस्तित्व अगर सजगता के धरातल पर है, तो वह चीजों को बैसे नहीं समझेगा, जैसा कि बताया जाएगा, वह अपने अनुभूत तथ्यों और तर्कों से समझेगा ! किसी के लिए पौराणिक गाथाएँ बेमानी हो जायेंगी, तो किसी को उनमें उपयोगी और महत्वपूर्ण तथ्य दिखाई देंगे ! सजगता होगी तो व्यक्ति दिशा निर्देशक पट पर नहीं चढ़ेगा, उसके द्वारा बताई गई दिशा में बढेगा ! 

एक मान्यता यह भी है कि हमारा अस्तित्व वृत्ताकार समय बताने वाली घड़ी जैसा है ! उसी के समान हमारी दुनिया भी बार बार शुरू होती है, जैसे कि घड़ी में सबसे ऊपर 12 और सबसे नीचे छः का होना ! इसी प्रकार दिन और रात का बार बार आना ! बार बार जागना और सोना ! जैसे गर्मी और सर्दी, बैसे ही जन्म लेना और मर जाना ! आप किसी एक के बिना दूसरे की कल्पना नहीं कर सकते ! जैसे कि सफ़ेद के बिना काले या काले के बिना सफ़ेद की कल्पना नहीं की जा सकती ! 

बैसे ही एक समय पर दुनिया है, एक समय पर नहीं है ! इसका विलुप्त होना और पुनः वापस आना अनथक जारी रहता है, जैसे कि हमारी साँसों का क्रम ! इसे आप छुपा छुपाई का खेल कह सकते हैं ! यही इसकी रोचकता है ! आखिर ढूँढने का भी तो अपना मजा है ! इस खेल में हर बार एक ही जगह नहीं छुपा जाता, इसलिए खोजने का यह आनंद और बढ़ जाता है, बशर्ते खोजी वृत्ति रहे ! 

ईश्वर को भी छुपा छुपाई खेलना पसंद है ! अब सवाल उठता है कि ईश्वर के बाहर तो कुछ है ही नहीं, तो क्या ईश्वर खुद से ही खेलता है ? किसलिए वह स्वयं को स्वयं से प्रथक दर्शाने का नाटक करता है ? शायद यह उसका अपना तरीका है | 

उदयन की “न्याय कुसुमांजलि” में ईश्वर के अस्तित्व को लेकर सुन्दर विवेचना की गई है: 

कार्यात : दुनिया एक प्रभाव है, सभी प्रभावों का एक विशिष्ट कारण होता है, इसलिए दुनिया का भी कोई प्रभावी कारण होना चाहिए। अर्थात अगर यह दुनिया है, तो अकारण नहीं हो सकती, तो ईश्वर ही है वह सुदक्ष कारण । 

आयोजनात : परमाणु निष्क्रिय हैं। कोई पदार्थ बनाने के लिए, उन्हें किसी से मिलकर युग्म बनाना पड़ता है, किसी से जुड़ना पड़ता है । किसी से जुड़ने के लिए, उनमें गति आवश्यक है, आखिर अपने स्थान पर पड़े पड़े तो किसी से योग होना संभव ही नहीं है । और गति के लिए जहाँ बुद्धि आवश्यक है, वहीँ माध्यम भी जरूरी है । अब विचार कीजिए कि निष्क्रिय परमाणु, गतिशील होकर पदार्थ कैसे बना पाते हैं ? स्वाभाविक ही कोई बुद्धिमान माध्यम उनकी गति के लिए आवश्यक है । वह बुद्धिमान माध्यम ईश्वर ही है। 

धृत्यादेह : कुछ तो है जो इस दुनिया को बनाए रखता है। कुछ तो है जो समय समय पर इस दुनिया को नष्ट कर देता है। कोई बुद्धिहीन अदृष्ट तो यह सब कुछ नहीं कर सकता। हमें यह समझना चाहिए कि इसके पीछे कोई प्रखर बौद्धिक शक्ति अवश्य है । वही भगवान है। 

पदात : कोई भी शब्द अर्थ हीन नहीं होता, हर शब्द किसी न किसी वस्तु का प्रतिनिधित्व करता है। शब्दों की इस प्रतिनिधित्व शक्ति का वह कारण ही ईश्वर है। 

प्रत्यायतः : वेद भ्रान्ति रहित हैं, जबकि मनुष्य गलतियों का पुतला हैं। ऐसे अद्भुत वेदों को रचयिता कोई मनुष्य नहीं हो सकता । ऐसे त्रुटिरहित वेदों को लिखने की प्रेरणा शक्ति ईश्वर है। 

श्रुतेः : चूंकि अचूक वेद ईश्वर के अस्तित्व की गवाही देते हैं, अतः निश्चय ही ईश्वर का अस्तित्व है। 

वाक्यात : वेद नैतिक कानूनों की शिक्षा देते हैं, अधिकारों और गलतियों के विषय में बताते हैं। वे दिव्य हैं। दैवीय निषेध और प्रतिबंध केवल विधि के दैवीय निर्माता ही बता सकते हैं। वह निर्माता ईश्वर है। 

संख्याविसेसत : धारणा के नियमानुसार, केवल संख्या "एक" ही प्रारंभिक और मूल है, बाक़ी सारी संख्याएं उसके बाद और उसके योग से हैं । अर्थात एक और एक दो, एक और एक और एक – तीन, आदि आदि । इसी प्रकार मनुष्य जब पैदा होता है, तब उसका मन न तो किसी से जुड़ा होता है और ना ही उसकी कोई अवधारणा होती है। जैसे जैसे वह विकसित होता है, अपनी चेतना भी विकसित करता है। चेतना का विकास अपने आप में स्पष्ट है और पूर्णतः संख्यात्मक अवधारणा के अनुरूप हर मनुष्य की क्षमता भी प्रथक प्रथक होती है । किसी की एक से दोगुनी तो किसी की सहस्त्रगुनी । अगर यह चेतना ईश्वरीय देन है, तो ईश्वर का अस्तित्व तो होना ही चाहिए। 

अद्रष्टात : हर कोई अपने कर्मों का फल पाता है । एक अदृश्य शक्ति योग्यता और त्रुटियों का बही खाता रखती है। कोई निर्बुद्ध शक्ति यह काम नहीं कर सकती । कर्मफल का हिसाब किताब करने वाली वह बौद्धिक शक्ति ईश्वर है। 
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