आर्यावर्त, भारत, हिंदुस्तान और इण्डिया के बाद हमारा यह सनातन देश क्या कहलायेगा? - दिवाकर शर्मा

निश्चित ही रूप से मनुष्य का जन्म ही सर्वश्रेष्ठ है क्योंकि वह कर्म करके मुक्ति को प्राप्त करने का सामर्थ्य रखता है। इस बात को मानने वालों का यह हमारा देश रहा है। इस मान्यता को सनातनी मान्यता का नाम दिया जिस का मूल वेद है। 

यह कहना बिल्कुल भी गलत नहीं है कि मानव संस्कृति के इतिहास में वेदों का स्थान सर्वोच्च है। श्रुति (वेद) की दृढ़ नीव के ऊपर ही मानव धर्म तथा सभ्यता का भव्य भवन टिका है। आज इस प्राचीनतम मानव संस्कृति के अनुयाई हिंदू हैं। हिंदुओं के विभिन्न धार्मिक ग्रंथों पुराणों जिन्हें स्मृति कहा जाता है मैं भी वेदों की प्रशंसा देखने को मिलती है। महर्षि मनु के अनुसार "जिस प्रकार संसार की वस्तुओं को देखने के लिए नेत्रों की आवश्यकता होती है उसी प्रकार पारलौकिक एवं आध्यात्मिक तत्वों को जानने के लिए वेद की आवश्यकता होती है।"

वेद का विशेष महत्व इस बात से है कि वह बड़े बड़े कठिन व गूढ़ विषयों का रहस्य प्रकट कर देता है। महर्षि मनु के अनुसार " वेद शास्त्र तत्व को जानने वाला व्यक्ति किसी भी आश्रम में रहे वह इस लोक में रहते हुए ब्रह्म का साक्षात्कार करता है।" इस विवेचन से ज्ञात होता है कि यदि हम मानव धर्म के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं तो हमको वेदों का अनुशीलन करना आवश्यक है परंतु बड़े खेद का विषय है कि वर्तमान में हिंदुओं के देश कहे जाने वाले हमारे देश में वेदों के अध्ययन को महत्व नहीं दिए जाने के कारण यह सवाल उत्पन्न होना स्वाभाविक है कि आर्यावर्त, भारत, हिंदुस्तान, और इण्डिया के बाद हमारा यह सनातन देश क्या कहलायेगा? क्या आने वाले वर्षों में भारत में भारत होगा जिसमें व्यास वाल्मीकि से लेकर कंबन कबीर तुलसी दयानंद सरस्वती गोलवलकर होंगे? 

यह बात सर्वविदित है कि हमारा देश सदियों से विदेशी आक्रमणकारियों के हमले सहता आया है। विदेशी आक्रांता ओं ने हमारे देश के साथ साथ हमारी संस्कृति पर भी आक्रमण किया। इन विदेशी आक्रांताओं ने समय-समय पर हमारे देश में सांस्कृतिक बदलाव किए। कुछ बदलाव तत्कालीन थे जिन्हें सुधार लिया गया कुछ बदलाव स्थाई हो गए, जो आज भी प्रचलन में हैं, जिन्हें यदि समझ कर नहीं सुधारा गया तो निश्चित ही रूप से देश को हानी होगी और इन सांस्कृतिक बदलावों को उनके मूल स्वरूप में बदलने का कार्य केवल और केवल वेद आज्ञा से ही संभव है। कितना चिंताजनक विषय है कि हम काव्य नाटक आदि के अध्ययन को तो महत्व देते हैं परंतु समस्त भारतीय साहित्य के मूल स्वरूप वेदों के प्रति उदासीन रहे। साधारण संस्कृत जानने वालों की तो बात छोड़िए अष्टाध्याई के जानकार पंडित भी मात्र सूत्रों को रटने और उन पर वाद-विवाद करने में ही लगे रहते हैं, वेदों को समझना तो दूर, पढ़ने की तरफ भी रुचि नहीं रखते। जिन विद्वान ब्राह्मणों के ऊपर समाज को मार्ग दिखलाने का उत्तरदायित्व रहा, वे ही ईश्वर की वाणी वेद से अनभिज्ञ रहे। आज भी हमारे देश में कई ऐसे केंद्र हैं जहां अनेक वैदिक विद्वानों ने विपरीत समय में भी कठोर परिश्रम कर समस्त वेद मंत्रों को ठीक वैदिक युग के ऋषियों की भांति कंठस्थ किया हुआ है। इन लोगों की वेद भक्ति और अथक परिश्रम की जितनी भी प्रशंसा की जाए वह कम है। 

वेदों को विज्ञान की दृष्टि में भी बड़ा महत्व दिया जाता है और यही कारण है कि विदेशों के बड़े बड़े विश्वविद्यालयों में भी वेदों की भाषा का अध्ययन किया जाता है। विज्ञान की दृष्टि में भी यह सिद्ध हो चुका है कि संसार की सभी प्रमुख भाषाओं का आदि स्त्रोत वैदिक भाषा ही है। दुनिया के समस्त भाषा शास्त्र के जानकार वेदों को बड़े सम्मान की दृष्टि से देखते हैं परंतु हमारे देश में वेदों के विरुद्ध अनेकानेक छद्मबेशी बौद्धिक शैक्षणिक संस्थाओं के द्वारा षडयंत्र रचे जा रहे हैं। अपने छद्म उद्देश्यों की पूर्ति हेतु पश्चिमी विद्वानों द्वारा भी वेदों पुराणों उपनिषदों के विभिन्न भाषाओं में अनुवाद के दौरान जहाँ प्रायोजित व्याख्या विश्लेषण किए गए, वहीं दूसरी ओर भारतीय शास्त्रों ग्रंथों की सामग्रियों में मिथ्या परिवर्तन प्रक्षेपण भी किए जाते रहे। इतना ही नहीं भारतीय विद्वत समाज में उनके उपरोक्त कार्यों के प्रति व्याप्त उदासीनता से प्रोत्साहित होकर उन षड्यंत्र कारियों नें साम्राज्यवादी उपनिवेशवाद एवं अपने स्वघोषित श्रेष्ठता बाद और तत संबंधी ईसाई तत्वज्ञान को संस्कृत शास्त्रों ग्रंथों के हवाले से प्रमाणित सिद्ध करने के लिए फर्जी लेखन का भी सहारा लिया। इस हेतु वेद शास्त्रों ग्रंथों में तत संबंधी सामग्रियां प्रक्षेपित कर उसे प्रचारित करने में सफल हो जाने के बाद उनमें वेदों के माध्यम से ईसाइयत फैलाने के लिए अथवा वेदों को पश्चिमी संस्कृति का हिस्सा प्रमाणित करने के लिए अर्थात उन्हें पूरी तरह से हड़प लेने के बाबत फर्जी पंचम वेद ही रच डाला। ताकि जनमानस यह समझे की वेद चार नहीं पांच है और यह पांचवा वेद पश्चिम में है जहां से सारे वेद उद्धृत हुए हैं। इस पंचम वेद का नाम भी उन लोगों ने बहुत सोच समझ कर ऐसा रखा हुआ है कि वास्तविक चारों वेदों के नाम से मिलता जुलता और सहज विश्वसनीय हो अर्थात "इजूर वेद" ताकि सनातन धर्मी लोग इसे चार में से ही एक यजुर्वेद अथवा कम से कम उसका भाष्य तो समझ ही लें। 

वसुधैव कुटुंबकम की मूल अवधारणा को मानने वाले हम पूर्व में विदेशी आक्रांताओं के बल छल प्रयोग से एवं वर्तमान में कुटिल राजनेताओं की राजनैतिक चाल में फंस कर विभाजित हुए जा रहे हैं। हम आज वेद वाणी को भुलाकर, भाषावाद, जातिवाद, प्रांतवाद आदि में विभक्त हो रहे हैं। सांस्कृतिक आर्थिक व राजनीतिक भेदभाव के शिकार हो रहे हैं। एक सशक्त एकात्म और संगठित राष्ट्र निर्माण के लिए गुलामी के काल में आ गई बुराइयों को दूर किया जाना आवश्यक है। यदि हम अभी भी अपनी जीवन दृष्टि और परंपरा के प्रति जागरूक नहीं हुए, सावधान नहीं हुए तो परिणाम भुगतने को तैयार रहना होगा। 

आज कुछ बुद्धिजीवी कहते सुने जाते हैं कि भारत की सनातन संस्कृति बचे या समाप्त हो, क्या फर्क पड़ता है | आखिर दुनिया के अन्य देशों में भी तो इंसान रहते हैं, जो भारतीय मान्यताओं को नहीं मानते | अतः मानवता ही मुख्य है, धर्म नहीं | ऐसे लोगों के लिए ही संभवतः स्वामी विवेकानंद ने कहा था - 

वेदों का अर्थ कोई ग्रन्थ नहीं है | वेदों का अर्थ है विविध समयों पर विभिन्न व्यक्तियों द्वारा आविष्कृत आध्यात्मिक नियमों का संचित कोष | विज्ञान की नवीनतम खोजें जिसकी प्रतिध्वनी जैसी लगती हैं, उस वेदान्त दर्शन के उच्च आध्यात्मिक स्तरों से लेकर, विविधतामय पौराणिकता युक्त मूर्तिपूजा के निम्नतम विचार, बौद्धों के अज्ञेयवाद और जैनों के निरीश्वरवाद तक प्रत्येक और सबका स्थान हिन्दू धर्म में है | भारतवासियों का कोई भी मत, सम्प्रदाय अथवा कोई भी सच्ची धर्मानुभूति – वह किसी को कितनी ही धूमिल क्यों न प्रतीत हो – ऎसी नहीं है, जिसे हिन्दू धर्म की बाहुओं से औचित्य पूर्वक बहिष्कृत किया जा सके | इस भारतीय धर्म माता का विशिष्ट सिद्धांत है इष्ट देवता – हर आत्मा को अपने मार्ग को चुनने तथा ईश्वर को अपने ढंग से खोजने का अधिकार | अतः इस प्रकार से परिभाषित हिन्दू धर्म के बराबर विराट साम्राज्य की पताका का वहन कोई अन्य वाहिनी नहीं करती, क्योंकि जिस प्रकार ईश्वर की प्राप्ति इसका आध्यात्मिक लक्ष्य है, उसी प्रकार इसका आध्यात्मिक नियम है, प्रत्येक आत्मा की स्वस्वरूप में प्रतिष्ठित होने की पूर्ण स्वतन्त्रता | 

बुद्धिजीवी मित्रो हमें जरा सोचना चाहिए कि इस सर्व समावेशी भारतीय दर्शन से मानवता बचेगी, या हमारा मत ही सही है, शेष सब गलत हैं और जो गलत मत मानते हैं, वे काफिर हैं, उन्हें नष्ट कर देना चाहिए, उन्हें जीने का अधिकार नहीं, यह धारणा रखने वालों से मानवता बचेगी | अतः कुतर्क छोड़कर मानवता की रक्षा के लिए भारतीय चिंतन अपनाईये ! यह चिंतन बचेगा, तो ही मानवता बचेगी !

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