दिल्ली की सत्ता का प्रवेश द्वार उत्तर प्रदेश, जहाँ कांग्रेस बनी महज वोट कटुवा पार्टी !


कांग्रेस अभी तीन राज्यों में अपनी जीत की खुमारी से भी नहीं उबर पाई थी, कि तभी उत्तर प्रदेश से उसके लिए एक बुरी खबर आ गई | उत्तर प्रदेश जहाँ से लोकसभा के लिए सर्वाधिक 80 सांसद चुने जाते हैं, वहां समाजवादी पार्टी (एसपी), बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) और राष्ट्रीय लोक दल (आरएलडी) ने मिलकर 2019 में बीजेपी के सामने अपने साझा उम्मीदवार उतारने की कसरत को अंतिम रूप दे दिया है । 

प्रमुख हिंदी दैनिक “दैनिक जागरण” की इस रिपोर्ट की सबसे ख़ास बात यह है कि इन तीनों दलों ने आपस में ही 78 सीटों का बंटवारा कर लिया है, जिसके अनुसार समाजवादी पार्टी 37 सीटों पर, बहुजन समाज पार्टी 38 सीटों पर तथा 3 सीटों पर अजीत सिंह के राष्ट्रीय लोक दल (आरएलडी) के प्रत्यासी उतारे जायेंगे । स्वाभाविक ही अब कांग्रेस के लिए महज दो सीटें ही शेष रहती हैं, अर्थात सद्भावना के रूप में अमेठी और रायबरेली में यह गठबंधन कोई उम्मीदवार नहीं उतारेगा । अमेठी का प्रतिनिधित्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी करते हैं, जबकि सोनिया गांधी रायबरेली से लोकसभा सांसद हैं। 

बीजेपी ने 2014 लोकसभा चुनावों में 80 लोकसभा सीटों में से अपने 73 सांसद जिताने में सफलता पाई थी । 2017 के विधानसभा चुनावों में भी उसकी शानदार जीत का क्रम जारी रहा था । यह माना जाता रहा है कि जो उत्तर प्रदेश जीता, वही दिल्ली पर भी काबिज होता है । 

विधानसभा चुनावों में करारी हार के बाद मार्च 2018 में, एसपी-बीएसपी के संयुक्त उम्मीदवार लोकसभा उप-चुनावों में सफलता प्राप्त कर चुके है, इसलिए उनके होंसले बुलंद है, तथा वे कांग्रेस को महज बोझ मान रहे हैं । सीटें भी सामान्य नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा खाली की गई गोरखपुर सीट और उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य द्वारा खाली की गई सीट, जहाँ बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी गठबंधन ने बीजेपी उम्मीदवारों को भारी मतों के अंतर से हराया। विशेष रूप से गोरखपुर से तो योगी आदित्यनाथ ने पांच बार जीत चुके थे तथा उसे भाजपा का गढ़ माना जाता है । 

इसके बाद जून 2018 में कैराना लोकसभा उपचुनाव में भी संयुक्त विपक्ष के उम्मीदवार ने ही सफलता पाई और राष्ट्रीय लोक दल (आरएलडी) टिकट पर मूलतः समाजवादी पार्टी की नेता तबस्सुम ने भाजपा उम्मीदवार मृगांकासिंह को 436,564 वोटों के मुकाबले 481,182 मतों से पराजित किया। 

कैराना में एकजुट विपक्षी उम्मीदवार जीत भले ही गया हो, किन्तु इससे एक सन्देश भी साफ़ गया कि गठबंधन सहयोगियों के वोटों का एक दूसरे के लिए हस्तांतरण आसान मामला नहीं होगा। 

जब से राहुल गांधी को प्रधान मंत्री के रूप में प्रचारित किया जाना शुरू हुआ है, उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा ने कांग्रेस को गठबंधन से बाहर रखने में ही अपनी भलाई समझी है, और उनकी रणनीति यही है कि कांग्रेस लोकसभा में कमसेकम सीटें जीते, ताकि शेष विपक्ष के ही किसी नेता को प्रधानमंत्री बनने का अवसर प्राप्त हो । 

यूपी में बीजेपी का सामाजिक आधार मूलतः गैर-यादव ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग), गैर-जाटव दलित और ऊपरी जाति के बीच है । अतः यह भी माना जा रहा है कि मजबूर कांग्रेस को केवल वोट कटुवा पार्टी बना दिया जाये, जो त्रिदलीय संघर्ष में अधिक से अधिक सवर्ण प्रत्यासी उतारे तथा भाजपा के मूल वोटरों में सेंध लगाये । इसी रणनीति के तहत विगत उप-चुनावों में, कांग्रेस ने दोनों सीटों पर ब्राह्मण उम्मीदवारों को चुनाव मैदान में उतारा था - गोरखपुर से डॉ. सरिता चटर्जी और फुलपुर में मनीष मिश्रा । 

लेकिन सोचने वाली बात है कि इससे कांग्रेस को क्या लाभ होगा ? क्या भाजपा को रोकने के लिए वह अपने अस्तित्व को ही दांव पर लगाएगी ? क्या भाजपा के मूल वोटर को यह षडयंत्र समझ में नहीं आयेगा ? क्या मतदाता को ये लोग इतना मूर्ख समझते हैं ? खैर जो भी हो सपा बसपा ने राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस को चुनाव के पूर्व ही घुटनों पर ला दिया है |

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