के. पी. सिंह का मंत्री न बनना ग्वालियर चम्बल संभाग में भाजपा के लिए खतरे की घन्टी !



क्यों हैरत हुई न हैडिंग पढ़कर | आप सोच रहे होंगे कि के.पी. सिंह मंत्री बने या न बने इससे भाजपा की सेहत पर क्या असर पडेगा ? और साथ ही कहाँ एक ओर तो बसपा, सपा और निर्दलीय नौ विधायकों की भोपाल के होटल पलाश में गुप्त मीटिंग के बाद राजनैतिक पंडित कांग्रेस सरकार के जल्द गिरने की संभावना जता रहे हैं और मैं उल्टा ही राग अलाप रहा हूँ और भाजपा के लिए खतरा मान रहा हूँ | तो आईये मेरे इस अभिमत का कारण जानिये | 

यह तो सभी मानेंगे कि इस समय भाजपा नेतृत्व की दिलचस्पी मध्यप्रदेश में कमलनाथ सरकार रहे या जाये, इससे कहीं अधिक लोकसभा चुनाव जीतने में है | मेरा आशय भी इसी परिप्रेक्ष में है | आपमें से कुछ को 1983 में हुए हिरण वन कोठी काण्ड का स्मरण होगा | यह उस दौर की बात है, जब राजमाता विजया राजे सिंधिया और महाराज माधव राव सिंधिया दोनों ही जीवित थे और युवा के.पी. सिंह माधवराव जी के नजदीकी छात्र नेता हुआ करते थे | राजमाता साहब के निजी सचिव सरदार आंग्रे, राजघराने की ही एक कोठी हिरण वन कोठी में निवास करते थे | मां बेटों में संपत्ति को लेकर मतभेद हुआ तो माधवराव जी के नजदीकी लोगों ने एक दिन अकस्मात हिरणवन कोठी पर धावा बोलकर, आंग्रे साहब के बफादार पालतू कुत्ते को गोली मार दी और कोठी पर जबरन कब्ज़ा जमा लिया | कोठी पर इस प्रकार जबरन कब्जा करने वाले लोगों में के.पी. सिंह भी शामिल थे | 

स्वाभाविक ही इस घटना पर तीखी प्रतिक्रिया हुई और तत्कालीन भाजपा प्रदेश अध्यक्ष श्री कैलाश जोशी तो ग्वालियर में अनिश्चित कालीन भूख हड़ताल पर बैठ गए | नतीजतन लगभग डेढ़ दर्जन लोगों पर लूट और डकैती का मुक़दमा दर्ज हुआ, जिनमें स्व. माधवराव सिंधिया के साथ चंद्रकांत मांढरे, महेन्द्र प्रताप सिंह, उदयवीर सिंह, नरेन्द्र सिंह, शरद शुक्ला, विलास राव लाड़, रमेश शर्मा, मुन्ना शर्मा, राजेन्द्र सिंह तोमर, बाल खांडे, एम राजे भोंसले, रविन्द्र सिंह भदौरिया, अरुण सिंह तोमर, अशोक व केपी सिंह आरोपी थे। 

समय के प्रवाह में माधव राव जी, राजमाता व सरदार आंग्रे एक एक कर सब लुप्त हो गए, प्रभुधाम पहुँच गए, किन्तु कछुए की रफ़्तार से मुक़दमा हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट तक चलता रहा और अंततः मई 2018 में ट्रायल कोर्ट से केस का निराकरण हुआ और साक्ष्य के अभाव में दोषी दोष मुक्त हुए | आंग्रे साहब की पुत्री चित्रलेखा, जिनकी लिखित शिकायत पर केस दायर हुआ था, गवाही देने ही नहीं आईं | और जो पांच अन्य गवाह जीवित बचे थे, उन्होंने दोषियों को पहचानने से इनकार कर दिया | 

के.पी. सिंह इस दौरान माधवराव गुट के स्थान पर दिग्विजय गुट के सिपाहसालार बन चुके थे और लगातार पिछोर विधानसभा सीट से चुनाव दर चुनाव जीतते जा रहे थे | जनचर्चा है कि 2018 में उनके दोषमुक्त होने के पीछे कतिपय शीर्ष भाजपा नेताओं का भी सहयोग था | इसी कारण चित्रलेखा आंग्रे की अनुपस्थिति के बाद भी केस का फैसला हो गया और इस केस की कोई अपील भी नहीं हुई | 

यह तो हुई भूतकाल की बात | किन्तु इसका वर्तमान घटना चक्र से क्या सम्बन्ध ? हाल के चुनाव में दिग्विजय सिंह जी के परिवार के तीन सदस्य चुनाव लडे और सफल होकर विधायक भी बने | दो तो अब मंत्री भी बन चुके हैं | सोचिये कि अगर इसी तर्ज पर लोकसभा चुनाव में सिंधिया परिवार के दो सदस्य चुनाव लडे तो क्या होगा ? क्योंकि हालत यह है कि ग्वालियर चम्बल अंचल की सवा चार लोकसभा सीटों की विधानसभा सीटों में से अधिकाँश पर कांग्रेस काबिज हो चुकी है | अगर इस सफलता को ही पैमाना मानें तो मोटे तौर पर इन लोकसभा सीटों पर भी कांग्रेस जीत सकती है | 

लेकिन यह इतना आसान भी नहीं है | क्योंकि वोट शेयर में दोनों पार्टियों के बीच कोई ज्यादा अंतर नहीं है | मोदी विरुद्ध राहुल होने जा रहे लोकसभा चुनाव में जनमत बदल सकता है, यह बात कांग्रेस के दिग्गज भी अच्छी तरह समझते हैं | अतः ज्योतिरादित्य सिंधिया अगर अपनी धर्मपत्नी श्रीमती प्रियदर्शिनी राजे को भी लोकसभा चुनाव लड़वायेंगे तो क्या सोचविचार नहीं करेंगे ? 

शायद यही कारण है कि ग्वालियर से तीन तीन विधायक मंत्री बने हैं और इस प्रकार ग्वालियर संसदीय क्षेत्र पर अपनी पकड़ मजबूत करने की कोशिश सिंधिया जी ने की है | दूसरी ओर गुना संसदीय क्षेत्र को तो वे अपनी जागीर आज भी समझते हैं, अतः यहाँ से किसी को भी मंत्री न बनने देकर उन्होंने अपनी भावी रणनीति एक प्रकार से स्पष्ट कर दी है | 

दिग्विजय सिंह व भाजपा की ठाकुर लॉबी से नजदीकी रखने वाले के.पी.सिंह को शायद इसी लिए मंत्री नहीं बनने दिया गया है | अब उन्हें कहा जाएगा कि पहले लोकसभा चुनाव में अपनी पिछोर विधानसभा से बढ़त दिलवाओ, तब ही मंत्री बनने का द्वार खुलेगा | 

भाजपा में इस समय बड़ा विचित्र दौर चल रहा है | किसी समय साईकिल पर चलने वाले केन्द्रीय मंत्री जी के बेटे भी लकदक अलग अलग गाड़ियों में घूमते हैं, तो स्वाभाविक ही उनसे इर्ष्या द्वेष रखने वाले पुराने दौर के वरिष्ठ भाजपाईयों की कमी नहीं है | वे उन्हें खुलेआम चिढ़ा रहे हैं, बिना इस बात का विचार किये कि इससे भाजपा संगठन का कितना अहित हो रहा है | 

एक ओर तो ज्योतिरादित्य और दिग्विजय सिंह जी जैसे प्रभावशाली कांग्रेसी और दूसरी ओर अपने ही नेता की चमक को फीका करने पर आमादा पुराने भाजपाई क्षत्रप | बड़ा ही बेमेल मुकाबला होने वाला है इस बार | यदि केन्द्रीय मंत्री जी क्षेत्र छोड़कर भोपाल या विदिशा लड़ते हैं, तो यहाँ क्षेत्रीय नेतृत्व शून्यता पैदा हो जायेगी | और अगर वे यहाँ से ही लड़ते हैं तो भी परिणाम दीवार पर लिखा है | बात केवल ग्वालियर और गुना-शिवपुरी संसदीय सीट की नहीं है, मुरैना सांसद अनूप मिश्रा, भी भितरवार विधानसभा चुनाव हारकर अपनी स्थिति कमजोर कर चुके हैं | और भिंड सांसद भागीरथ प्रसाद जी भी एंटीइनकम्बेंसी से जूझ ही रहे हैं | इसीलिए मैंने आलेख का शीर्षक दिया है - के. पी. सिंह का मंत्री न बनना ग्वालियर चम्बल संभाग में भाजपा के लिए खतरे की घन्टी ! 

भाजपा के सामने सचमुच प्रत्यासी चयन बड़ी टेढ़ी खीर साबित होने वाला है |
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