नर्मदा परिक्रमा यात्रा - आध्यात्मिक चमत्कार - भारती ठाकुर



विवेकानंद केंद्र की पूर्णकालिक रही सुश्री भारती ठाकुर ने नई दिल्ली की पत्रकार निवेदिता जी खांडेकर के साथ 14 अक्टूबर 2005 से 12 मार्च 2006 की अवधि में नर्मदा परिक्रमा पूर्ण की | दो महिलाओं द्वारा की गई इस रोमांचक यात्रा के अनुभव इंद्रा पब्लिशिंग हाउस भोपाल द्वारा एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किये गए हैं – नर्मदा परिक्रमा – एक अंतर्यात्रा | 

पिछले दिनों पूर्व मुख्यमंत्री श्री दिग्विजय सिंह जी की नर्मदा यात्रा भी चर्चित हुई है | उक्त पुस्तक के केवल कुछ महत्वपूर्ण अंश साझा कर रहा हूँ, ताकि एक राजनेता और सामान्य जन की यात्रा के अंतर को समझा जा सके | 

प्रस्तावना – 

यात्रा के दौरान सदावृत अर्थात मांगकर खाना शुरू में हमें बेहद कठिन लगा | पहली बात तो मांगना और उसके बाद उसे चूल्हे पर पकाना, दोनों ही दुष्कर | सदाव्रत कितना सुन्दर शब्द है – मानो सदा के लिए लिया गया व्रत | परिक्रमा के दौरान यह देता कौन है ? यही नर्मदा तटीय किसान, आदिवासी, मल्लाह, आदि वन्धु | इनमें से किसी किसी के घर में तो अगले दिन का भोजन भी नहीं होता, फिर भी हमारा आतिथ्य उन्होंने स्नेह पूर्वक किया | रोज सदाव्रत मांगकर, पकाकर खाने की नौबत आई ही नहीं | पका पकाया खाना हमें कई परिवारों, आश्रमों में मिलता रहा | भूखे रहने की नौबत तो कभी आई ही नहीं | 

स्वामी अर्ध्यानंद जी के अनुसार – आप जिसे भिक्षा समझते हैं, दाता उसे सदाव्रत मानता है लेते समय आप भले संकोच करें, देने वाला उसमें अपार आनंद प्राप्त करता है | इस प्रथा से “वसुधैव कुटुम्बकम” का भाव प्रतिबिंबित होता है | संपत्तिक स्थिति, शिक्षा, सामाजिक प्रतिष्ठा – यह सारा अहंभाव मन से विगलित होता जाता है | 

यात्रा नर्मदा मैय्या की – 

अमरकंटक – 14 अक्टूबर 2005, प्रातः छः बजे नर्मदा कुंड में हमने स्नान और पूजा की | तत्पश्चात दक्षिण द्वार से बाहर निकले | बारिश की फुहारें हमें निरंतर भिगो रही थीं | पीठ पर लदी गठरी में एक दरी, गरम ओढ़न, आवश्यक स्वेटर, नित्य परिधान के वस्त्र, मेरा बड़ा सा कैमरा, दवाईयां, खाना पकाने के लिए एक भगौना, उसका ढक्कन, बड़ा चम्मच, थाली, कटोरी, गिलास आदि पूरी गहस्थी ही थी | हम साधू सन्यासी तो हैं नहीं, जो धारण किये वस्त्रों में ही चल पड़ें | (और ना ही ये कोई राजनेता थीं, जिनके साथ कोई वाहन चलता सामान ढोने के लिए |) 

रात्रि विश्राम - आदिवासी वस्ती जगतपुर 

संध्यावन्दन में गृहस्वामी सुन्दरलाल बघेल और उनकी पत्नी भी शामिल हुए | प्रार्थना समाप्त हुई, तो बघेल जी ने पत्नी से पूछा – माताजी के भोजन की क्या व्यवस्था है ? सुनते ही पत्नी की आँखों से आंसू टपक पड़े | बताया कि घर में बस डेढ़ कटोरी चावल है और दाल सब्जी कुछ भी नहीं | हम लोग संकोच से गढ़ गयीं | अब अगर यह कहें कि हमें भूख नहीं है, तो भी इस दंपत्ति को ठेस पहुंचेगी | 

अचानक वृद्धा को कुछ याद आया | उसने एक कनस्टर खोला | देखा उसमें एक कटोरी बेसन पड़ा था | उसके चेहरे पर ऐसी चमक आ गई, मानो उसे कोई खजाना हाथ लग गया हो | उसने फटाफट खाना बनाया, उसकी पोतियों ने भी हाथ बंटाया | पहले ही दिन मिला उस “अन्नपूर्णा” के हाथ का प्रसाद इतना स्वादिष्ट था कि आज भी जिव्हा पर उसका स्वाद विराजमान है | 

अतिवृष्टि के कारण उनकी फसल नष्ट हो चुकी थी, फिर भी नर्मदा माई पर श्रद्धा अतीव थी, अतः परिक्रमा के लिए निकले लोगों के सत्कार में कोई कमी नहीं | 

चलते समय हमने 50 रु. निकालकर वृद्धा के हाथ पर रखे, तो उसने हाथ ऐसे पीछे हटाया, मानो वह जलता हुआ कोयला हो | बोली – परकम्मावासियों की सेवा तो हमार धर्म है | 

स्पर्श चिकित्सा का ज्ञान – 

हर्रा से पांच किलोमीटर की दूरी पर नर्मदा और गौतमी नदी के संगम स्थल पर है स्वामी विजयानंद जी का आश्रम | आश्रम पहुंचकर देखा तो स्वामी जी बांसुरी वादन कर रहे थे | मधुर स्वर लहरी मानो कोई टेप रिकॉर्डर चल रहा हो | आयु लगभग 80 वर्ष, सुगठित कद काठी, तेजस्वी रूप, अत्यंत कार्यक्षम और फुर्तीले | मैंने उनके कमरे में लगे चित्र देखे – परमहंस योगानंद जी, महावातार बाबा जी, लाहिरी महाशय | मैंने पूछा तो बताया कि स्वामी योगानंद ने ही उन्हें दीक्षा दी है, वे ही उनके गुरू हैं | जानकर असीम आनंद हुआ | 

चर्चा में स्वामीजी ने ऋग्वेद का एक श्लोक सुनाया – 

अयं में हस्तो भगवानयं मे भगवत्तरः | 

अयं में विश्व भेशजः 

अयं शिवमिमर्शनं || 

(अर्थ – मेरे ये हाथ साक्षात भगवान हैं | शुभ परिणाम कारक हैं | अधिकाधिक ऐश्वर्य प्रदाता तथा लाभप्रद हैं | मेरे हाथों में विश्व की रोग निवारक औषधियां हैं | मेरे हाथों का स्पर्श कल्याणकारी, सर्व रोग निवारक और सौन्दर्य सम्पादक है |) 

उन्होंने कहा कि इस श्लोक को कंठस्थ कर लो और इसका उच्चारण करते हुए अपने सारे शरीर पर हाथ फेर लो तो सारे शारीरिक कष्ट दूर हो जायेंगे | यह हस्त चिकित्सा या स्पर्श चिकित्सा पद्धति का ही एक प्रकार है | 

आज पहली बार हाथों के प्रति मन में कृतज्ञता उभर कर आई | हाथों की महिमा का क्या कहना ? तभी तो कहा गया है – 

कराग्रे बसते लक्ष्मी, कर मध्ये सरस्वती, कर मूले तु गोविन्दः, प्रभाते कर दर्शनं | 

ऋणमुक्तेश्वर मंदिर – 

विजयानन्द आश्रम के नजदीक ही है कुकुर्रा मठ | यहाँ दसवीं सदी का एक शिवमंदिर है | उसकी भी विचित्र कहानी है | एक बंजारा था | उसे किसी कार्यवश साहूकार से ऋण लेना पड़ा | इसके लिए उसने साहूकार के पास अपना कुत्ता गिरवी रखा | कुछ दिन बाद साहूकार के घर में चोरी हुई, किन्तु कुत्ते ने चोरों को पकड़वा दिया और साहूकार का सारा माल भी बरामद हो गया | साहूकार खुश हुआ और उसने कुत्ते के गले में एक चिट्ठी बांधकर उसके मालिक के पास वापस भेज दिया | 

कुत्ते के मालिक बंजारे को लगा कि कुत्ता भागकर वापस आ गया है, सो उसने गुस्से में कुत्ते को जान से मार दिया | किन्तु बाद में चिट्ठी पढ़ी जिसमें लिखा था कि कुत्ते ने अपने कार्य से अपने मालिक को ऋणमुक्त कर दिया है | बंजारे को बहुत पछतावा हुआ | कहा जाता है कि उसके बाद उस साहूकार तथा बंजारे ने मिलकर यह विशाल मंदिर बनवाया | 

प्रथम सदाव्रत – 

परिक्रमा प्रारम्भ हुई थी, तबसे सदाव्रत माँगने की नौबत नहीं आई थी | पर भूख के मारे पेट कुलबुलाने लगा तो सूरज कुंड की बाट में एक दुकानदार से भिक्षा के रूप में आलू माँगने की हिम्मत जुटाई – 

नर्मदे हर | हम परिक्रमावासी हैं | हमें सदाव्रत के रूप में आलू मिल सकते हैं? मैंने दुकानदार से पूछा | 

नर्मदे हर माताराम | जरूर मिलेंगे आलू | उसने बड़े बड़े साथ आठ आलू निकालकर दिए, साथ में सौ रुपये का नोट भी दक्षिणा के रूप में हाथ पर रख दिया | 

मैंने हाथ पीछे खींचते हुए कहा – ना ना ये नहीं चाहिए | पैसों की जरूरत नहीं हैं | 

माताराम आपको जरूरत ना हो तो किसी मंदिर या आश्रम में दान कर दीजिये ये रुपये, आप नहीं लेंगी तो इस दुकानदार को बुरा लगेगा | दूकान में आया एक ग्राहक बोला तो हमें रुपये लेने ही पड़े | 

चार पांच किलोमीटर आगे जाकर एक साईकिल रिपेयर की दूकान वाले से पूछा कि आपके घर खाना बन रहा हो तो कृपया यह आलू उबलवा दें | व हमें लेकर घर पहुंचा तो पत्नी बोली – नाजीना, आलू उबालकर नहीं दूंगी, सब्जी बनाकर दूंगी और रोटियाँ भी | भोजन तो आपको मेरे यहाँ ही करना पडेगा | मानवता के ये रूप मुझे अभिभूत कर देते हैं | 

गृहिणी का नाम था शशि | दुकानदार तो हमें घर पर छोडकर वापस दुकान चला गया, शशि से बातचीत होने लगी | जब उसे ज्ञात हुआ कि हम दोनों अविवाहित हैं, तो वह उत्साह से भर गई | बोली, बहुत अच्छा किया | जिसके साथ जिन्दगी गुजारनी हो, और वह भला आदमी न निकले तो जिन्दगी काले पानी की सजा ही समझो | और जीवन साथी का चुनाव भी कहाँ हमारे हाथ में रहता है | मां बाप जिस से बोल दें, उसके ही गले में चुपचाप वरमाला डालनी होती है | चार बच्चियों के जन्म के बाद मेरे पति ने मुझे छोड़ दिया था | वो भी सात साल तक | फिर जब बड़ी लड़की शादी लायक हुई, तब शर्मिंदा होकर खुद ही मुझे घर ले आया | 

शशि से विदा लेकर चली तो मन में सोच रही थी – 

Life is not a problem to be solved 

A question to be answered 

It is a mistry to be contemplated 

Wondered at and solved 

जीवन कोई पहेली नहीं है, जिसे हल किया जाए, 

यह कोई सवाल भी नहीं है, जिसका उत्तर देना हो, 

यह तो एक रहस्य है, चिंतन मनन और आश्चर्य करने के लिए, 

इससे ही यह सुलझती है ! 

वृक्ष मंदिर – 

परमपूज्य पांडुरंग शास्त्री आठवले जी का नाम सुनकर ही मेरा सिर श्रद्धा से झुक जाता है | किन्तु भारद्वाज वृक्ष मंदिर को देखकर तो उनके स्वाध्यायियों के सम्मुख भी नतमस्तक हो गई | रामपुर से सुबह निकलते ही, पहले ही मोड़ पर एक बोर्ड दिखाई दिया – भरद्वाज वृक्ष मंदिर| 

कौतुहल जाग उठा, तो मंदिर के प्रांगन में प्रवेश किया | वहां सैकड़ों आम, चीकू, नारियल आदि के पेड़ थे, मंदिर कोई नहीं | एक छोटे से कमरे के पास बैठे पच्चीस तीस लोगों ने जो जानकारी दी, उसे सुनकर मैं दंग रह गई | स्वाध्याय परिवार ने 18 एकड़ बंजर जमीन खरीदी, जिस पर घांस भी नहीं उगती थी | उस पर मेहनत करके, खाद डाल के ये सारे पेड़ लगाए गए | 25-25 स्वाध्यायी लोगों का समूह अपने खर्चे से साल में एक बार यहाँ आता है और इनकी सार संभाल करता है | 

इस सेवा कार्य के लिए प्रत्येक समूह को तीन माह पूर्व रजिस्ट्रेशन कराना पड़ता है | सब कुछ अनुशासन बद्ध तरीके से होता है | कोई भी पौधा लगाने के पहले नारायणोपनिषद और श्रीसूक्त का पाठ करके एक दंपत्ति पौधे की विधिवत प्राण प्रतिष्ठा करते हैं | प्रतिवर्ष 12 जुलाई को वृक्ष दिवस मनाया जाता है | उस दिन नए पौधे का रोपण होता है | 

इस प्रकार 19 वृक्ष मंदिरों को अलग अलग ऋषियों के नाम दिए गए हैं | एक स्वाध्यायी ने बताया कि पूज्य दादा कहते थे – वृक्ष में वासुदेव व पौधे में रणछोड़ विराजते हैं | 

पक्षाघात का उपचार – 

मणि नागेश्वर के जिस कमरे में हम दोनों ठहरीं, वहीं तीन परिक्रमा वासी और थे | दो महिला और एक पुरुष | इनमें से एक महिला को पक्षाघात हुआ था | उसका पति भी साथ था | उस महिला के लिए चलना कठिन और दुष्कर था | एक हाथ से तो वह कुछ भी नहीं कर पाती थी | पेटीकोट का नाडा बांधना, साड़ी पहनना आदि कार्य भी वे नहीं कर पाती थीं | इसलिए उन्होंने एक रिश्तेदार महिला को साथ में लिया था | इस हालत में उस महिला से परिक्रमा करवाते पति के प्रति मेरे मन में झल्लाहट भी हुई | डोक्टर का उपचार छोड़कर रोग निवारण के लिए नर्मदा परिक्रमा – अंध श्रद्धा नहीं तो और क्या है ? 

हमने उसके पतिदेव को बहुत समझाया | आड़े हाथों भी लिया | वे बोले – आपक्या सोचती हैं, हमने इनका इलाज नहीं करवाया ? जबलपुर, इंदौर, भोपाल, नागपुर सभी जगह, नामी डोक्टरों को दिखाया | परन्तु कोई परिणाम नहीं निकला | अब तो नर्मदा माई की शरणागति ही अंतिम उपाय शेष है | 

उनके इस स्पष्टीकरण से हम विचलित हो उठीं | इन महाशय से बहस करना व्यर्थ है, यह सोचकर हम शांत रह गईं | उस महिला के प्रति हमारा मन सहानुभूति से भर उठा | 

(यूं तो पूरी पुस्तक ही संस्मरणों का खजाना है, किन्तु अब आलेख का समापन |) 

यात्रा के लगभग अंतिम चरण में बांद्राभान के आगे रेवामाई के मरुथल से हम गुजर रहीं थीं – अचानक आवाज आई – नर्मदे हर माई | 

मैंने भी प्रत्युत्तर दिया – नर्मदे हर | 

दो महिला एक पुरुष | जाने पहचाने लग रहे हैं | किनारे पर तीन पत्थरों पर चूल्हा बनाकर खाना बन रहा था | मुझे देख उठ खड़े हुए | कौन हैं ये लोग ? मैं पहचान न सकी | उन्होंने ही हंसकर अपना परिचय दिया | दक्षिण तट पर मणिनागेश्वर के एक आश्रम में मिले थे हम | पक्षाघात ग्रस्त महिला को परिक्रमा करवा रहे हैं, यह जानकर आप नाराज भी हुई थीं | हम वही हैं | जहाँ मार्ग कठिन हो, वहां बस से यात्रा कर लेते हैं, इसलिए यहाँ जरा जल्दी पहुँच गए हैं | 

मैं तो देखकर दंग रह गई | पक्षाघात का कहीं नामोनिशान नहीं था उस महिला के शरीर पर | केवल श्रद्धा या कंकर पत्थरों पर चलकर एक्यूप्रेशर जैसे उपचार भी कर दिए रेवा माई ने उस पर ? यह चमत्कार कैसे हो गया ? 

(बैसे एक चमत्कार तो मध्यप्रदेश में कांग्रेस की विजय भी है | कौन जाने कि यह चमत्कार भी दिग्विजय सिंह जी की नर्मदा यात्रा के चलते हुआ हो ?)
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