अविश्रांत संघर्ष की अद्भुत कहानी - नरेंद्र दामोदर दास मोदी !



11 जनवरी १९४९ को संघ पर लगा प्रतिबन्ध हटा | उसके बाद पुणे के लक्ष्मण राव इनामदार को संघ कार्य के लिए गुजरात भेजा गया | गुजरात में मेहंसाणा के पास एक छोटे से कस्बे बडनगर के अध्यापक बाबूभाई नायक १९४४ से संघ स्वयंसेवक थे | १९५८ में प्रांत प्रचारक लक्ष्मण राव इनामदार बडनगर पहुंचे | उनकी उपस्थिति में लगी शाखा में आठ वर्षीय बाल स्वयंसेवक नरेंद्र दामोदर दास मोदी भी थे | यहाँ से ही नरेंद्र का संघ जीवन प्रारम्भ हुआ | 

नरेंद्र मोदी प्रातःकाल तो अपने पिता की चाय बेचने में मदद करते और जब स्कूल की घंटी बजती, तो भाग कर स्कूल पहुँच जाते | स्कूल का नाम था – भागवताचार्य नारायणाचार्य विद्यालय ! उस समय की परिपाटी के अनुसार 14 वर्ष की उम्र में ही नरेंद्र मोदी की शादी हो गई | किन्तु जब अठारह वर्ष की आयु होने पर गोने की बात चली तो वे घर से गायब हो गए | इस विषय पर प्रकाश डालते हुए उनके भाई सोमाभाई मोदी ने कारवां पत्रिका को दिए साक्षात्कार में बताया – 

हमें इस बारे में कोई जानकारी नहीं थी कि नरेंद्र कहाँ चले गए | दो साल बाद अचानक वे घर लौटे और बताया कि अब मेरा संन्यास ख़तम होता है | मैं अहमदावाद जाऊँगा और वहां पर चाचा की जो केन्टीन है, उसमें जाकर काम करूंगा और पैसे कमाऊंगा | 

नरेंद्र के लौटते ही उनकी मां हीराबेन ने पहला काम यह किया कि पास के गाँव ब्राह्मणबाड़ा के चिमनभाई को सन्देश भिजवाया ! चिमनभाई की बेटी यशोदाबेन के साथ ही नरेंद्र का विवाह हुआ था | किन्तु नरेंद्र शादी के लिए तैयार नहीं थे, अतः यह जानकारी मिलते ही वे एक बार फिर घर से गायब हो गए | घर से भागकर नरेंद्र ने कुछ समय तो अहमदावाद में अपने चाचा की चाय की दूकान पर काम किया, किन्तु इसके बाद स्वयं अहमदावाद के गीता मंदिर के सामने चाय बेचने लगे | गली में ही शाखा लगती थी, अतः एक बार पुनः संघ से संपर्क बढ़ने लगा | और कुछ समय बाद ही प्रांत प्रचारक इनामदार जी ने उन्हें संघ कार्य से सक्रिय रूप से जोड़ लिया | नरेद्र प्रांत कार्यालय केशव भवन में ही रहने लगे | मशहूर पत्रकार ए.बी कामथ ने 2009 में उनके ऊपर एक पुस्तक लिखी, जिसमें नरेंद्र मोदी के ही हवाले से उल्लेख किया कि – 

इनामदार साहब ने जब मुझे बुलाया, उस समय संघ कार्यालय में दस बारह लोग रहा करते थे | मुझे उन सबकी जिम्मेदारी दी गई | उन सबके लिए नाश्ता तैयार करना, केशव भवन की सफाई करना, और इनामदार साहब के कपडे धोना, इसके अलावा दूसरे दफ्तरी काम | लेकिन दफ्तर संभालने का यह काम तब संगठन संभालने में तब्दील हो गया, जब 1974 में गुजरात का छात्र आन्दोलन प्रारम्भ हुआ, जिसे गुजरात नव निर्माण आन्दोलन कहा गया | कांग्रेसी मुख्यमंत्री चिमन भाई पटेल को स्तीफा देना पड़ा | एक साल बाद हुए चुनाव में विपक्षी दलों का संयुक्त मोर्चा जीता और गुजरात में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनी | बाबूभाई पटेल मुख्यमंत्री बने | 

फिर शुरू हुआ आपातकाल का दौर, जिसमें गुजरात इंदिरा विरोधियों की शरणस्थली बन कर उभरा | नरेंद्र मोदी उस समय तक अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का काम देखने लगे थे | उन्हें दायित्व मिला देश की अलग अलग भाषाओं में आपातकाल विरोधी पर्चे छपाकर देश के विभिन्न भागों में सक्रिय भूमिगत कार्यकर्ताओं तक पहुंचाना | दिसंबर 1976 में बाबूभाई की सरकार गिरी और माधवसिंह की कांग्रेसी सरकार अस्तित्व में आई | लेकिन कुछ महीने बाद ही इमरजेंसी हटी और चुनाव हुए | जनता पार्टी सत्तासीन हुई तो संघ ने अपने कार्य की नए सिरे से जमावट की | नरेंद्र मोदी की नई जिम्मेदारी तय हुई, संघ के विविध संगठनों के समन्वय का काम | यहाँ से ही नरेंद्र मोदी राजनीति के सीधे संपर्क में आये | 

1980 में जनता पार्टी में विभाजन हुआ और पुराने जनसंघ कार्यकर्ताओं की नई पार्टी बनी भारतीय जनता पार्टी | किन्तु 1984 में भारतीय जनता पार्टी की करारी हार हुई और उसके महज दो सांसद रह गए | यह वह दौर था, जब माधवसिंह सोलंकी अपने खाम के समीकरण से गुजरात में सत्ता पर विराजमान थे, किन्तु 1982 से ही आरक्षण के नाम पर हिंसक झड़पें शुरू हो गई थीं तथा सांप्रदायिक तनाव फ़ैलने लगा था | ऐसे अफरातफरी के दौर में १९८६ में नरेंद्र मोदी को भारतीय जनता पार्टी का गुजरात में संगठन मंत्री नियुक्त किया गया | 

उस समय गुजरात भारतीय जनता के दो कद्दावर नेता थे – केशूभाई पटेल और शंकर सिंह बाघेला | इन दोनों नेताओं के बीच समन्वय एक टेढ़ी खीर था, किन्तु लगातार कार्यक्रमों, यात्राओं के माध्यम से नरेंद्र मोदी ने संगठन में जान फूंकी और गुटबाजी को काफी हद तक थाम दिया | संगठन मंत्री बनते ही सबसे पहला काम किया न्याय यात्रा निकालने का, जिसका नेतृत्व दोनों प्रमुख नेताओं केशूभाई और बाघेला के ही हाथों में रखा गया | 1989 के लोकसभा चुनाव के पहले गुजरात में एक और यात्रा निकाली गई, जिसे लोकशक्ति रथ यात्रा नाम दिया गया | नतीजा यह हुआ कि गुजरात की 26 में से 12 सीटों पर भारतीय जनता पार्टी के सांसद चुने गए, जबकि 1984 में महज एक सांसद गुजरात से चुना गया था | 

1989 में बीपी सिंह की सरकार भाजपा के समर्थन से बनी किन्तु मंडल कमीशन के जिन्न ने जल्द ही इस सरकार को विवादास्पद बना दिया | अपने आधार को बचाए रखने और बढाने के लिए १९९० में भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी जी की बहुचर्चित सोमनाथ से अयोध्या रथ यात्रा की योजना बनी | यह रथ यात्रा 12 सितम्बर को प्रारम्भ होनी थी और 30 अक्टूबर को अयोध्या में इसका समापन होना था | स्वाभाविक ही गुजरात प्रान्त तक की जिम्मेदारी संगठन मंत्री नरेंद्र मोदी के कन्धों पर थी | 18 सितम्बर को जब यह यात्रा महाराष्ट्र पहुंची तब तक नरेंद्र मोदी इस यात्रा के इंचार्ज थे | उल्लेखनीय बात यह रही कि इस दौरान कहीं भी साम्प्रदायिक तनाव नहीं हुआ, जबकि देश के शेष भागों में इस यात्रा के दौरान तनाव देखने में आया | 

वरिष्ठ नेतृत्व की नजरों में नरेंद्र मोदी की छवि निखरने लगी, जिसका फल दो वर्ष बाद नरेंद्र मोदी को मिला | 1991 में कश्मीर का अलगाववादी आन्दोलन चरम पर था | इसको देखते हुए 1992 में भारतीय जनता पार्टी ने एक और रथ यात्रा निकालने की ठानी | इसकी अगुआई कर रहे थे भाजपा के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी | भारतीय जनता पार्टी ने तय किया कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक “एकता यात्रा” निकाली जाएगी, जो 16 राज्यों से होकर गुजरेगी और 26 जनवरी को श्रीनगर के लाल चौक पर मुरली मनोहर जोशी तिरंगा फहराएंगे | यात्रा की तैयारी के लिए देश भर के चुनिन्दा नेताओं को दिल्ली बुलाया गया | नरेंद्र मोदी के पिछले अनुभवों को ध्यान में रखकर उनको सेंतालिस दिनों की इस यात्रा का संयोजक बनाया गया | 

यात्रा संपन्न हुई और लाल चौक पर तिरंगा भी फहराया गया, किन्तु दो बातें काबिले गौर हैं | भारी सुरक्षा व्यवस्था के बीच महज पंद्रह मिनिट में तिरंगा फहराने की कार्यवाही पूरी कर ली गई | इसके बाद हवाई अड्डे पर मुरली मनोहर जोशी ने पत्रकारों से चर्चा के बाद अपने पास खड़े नरेंद्र मोदी के कंधे पर हाथ रखते हुए उनका परिचय सबसे कुछ इस प्रकार करवाया – 

इनसे मिलिए, ये हैं नरेंद्र मोदी, गुजरात के हैं, बहुत ही मेहनती और ऊर्जावान हैं, इस पूरी यात्रा की जिम्मेदारी इनके ही कन्धों पर थी | नरेंद्र मोदी मुस्कुरा रहे थे | ये राष्ट्रीय मीडिया के सामने उनका पहला परिचय था | 

यात्रा के बाद वे गुजरात वापस लौटे, किन्तु उसके बाद शंकर सिंह बाघेला के साथ उनके मतभेद बढ़ने लगे | इसे संभवतः व्यक्तित्वों की टकराहट ही कहा जायेगा | बाघेला को मोदी का बढ़ता कद रास नहीं आ रहा था | वे उन्हें अपने से एक बहुत जूनियर कार्यकर्ता ही मानते थे | 1995 में विधानसभा के चुनाव हुए और भारतीय जनता पार्टी ने 182 में से 121 सीटें जीतीं | केशूभाई पटेल मुख्यमंत्री बने | बाघेला के मन में असंतोष बढ़ने लगा | तब तक एक दुसरे के पूरक रहे केशूभाई और शंकर सिंह बाघेला के बीच दूरियां बढ़ने लगीं | जबकि संगठन मंत्री नरेंद्र मोदी, मुख्यमंत्री केशूभाई के नजदीक – और नजदीक होते गए | एक वर्ष के अन्दर ही बाघेला विद्रोह पर आमादा हो गए | अटल जी ने मध्यस्थता की तो बाघेला ने तीन शर्तें रखीं – 

1 – केशूभाई को मुख्यमंत्री पद से हटाया जाए | 

2 – उनके समर्थक विधायकों को सम्मानजनक मंत्री पद दिए जाएँ | 

3 – नरेंद्र मोदी को गुजरात से कहीं अन्यत्र भेजा जाए | 

मजे की बात यह कि उस समय गुजरात के भाजपा प्रदेश अध्यक्ष काशीराम राणा, मुख्यमंत्री केशूभाई पटेल भी नरेंद्र मोदी को गुजरात से बाहर भेजने के प्रस्ताव पर सहमत थे | अतः बाघेला की तीनों मांगें मान ली गईं | नरेंद्र मोदी को पार्टी का राष्ट्रीय महासचिव बनाकर दिल्ली बुला लिया गया तथा चार राज्यों का प्रभार भी सोंपा गया – जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, चंडीगढ़ और हरियाणा | और आगे की कहानी तो सभी जानते हैं कि संजय जोशी गुजरात के संगठन मंत्री बने और २००१ में गुजरात के पहली बार मुख्यमंत्री बने नरेंद्र दामोदर दास मोदी | एक बार मुख्यमंत्री बनने के बाद फिर उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा, उनकी प्रगति यात्रा अनवरत जारी है |

Struggle OF Narendra Modi



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