नरेंद्र मोदी को छवि बदलने की कोशिश से हो रहा नुकसान - डॉ नीलम महेंद्र



देश की राजनीति में रूचि न रखने वाले लोग भी इस बार यह देखने के लिए उत्सुक हैं कि 2019 में राजनीति का ऊँठ किस करवट बैठेगा। खास तौर पर इसलिए कि 2019 की शुरुआत दो ऐसी महत्त्वपूर्ण घटनाओं से हुई जिसने अवश्य ही हर एक का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया होगा - 

पहली घटना,साल के पहले दिन मीडिया को दिया प्रधानमंत्री मोदी का साक्षात्कार जिसमें वे स्वयं को एक ऐसे राजनेता के रूप में व्यक्त करते दिखाई दिए जो संवैधानिक और कानूनी प्रक्रिया के साथ ही लोकतंत्र की रक्षा के लिए मजबूत विपक्ष के होने में यकीन करते दिखे।इस दौरान वे अपनी सरकार की नीतियों की मजबूत रक्षा और विपक्ष का राजनैतिक विरोध पूरी "विनम्रता" के साथ करते दिखाई दिए। कहा जा सकता है कि वो अपनी आक्रामक शैली के विपरीत डिफेंसिव दिखाई दिए।

और दूसरी घटना थी बांग्लादेश के चुनाव परिणाम, जिसके चुनाव नतीजों में शेख हसीना को लगातार तीसरी बार मिली जबरदस्त कामयाबी । क्योंकि लगातार 10 साल तक शासन करने के बाद, विपक्ष के तमाम आरोपों और उनकी कुछ हद तक अलोकतांत्रिक कार्यशैली ( दबंग सत्तात्मक भी कहा जा सकता है) के बावजूद, इन चुनावों में बांग्लादेश की आवाम ने जिस प्रकार शेख हसीना पर अपना भरोसा जताया है और वहाँ विपक्ष का एक प्रकार से सफाया हो गया है, यह भाजपा और विशेष रूप से नरेंद्र मोदी के लिए एक केस स्टडी हो सकती है। 

क्योंकि जिस प्रकार वहाँ के लोगों को आज की स्थिति में शेख हसीना के अलावा अपने देश के प्रधानमंत्री के रूप में कोई अन्य चेहरा दूर दूर तक दिखाई नहीं दे रहा, उसी प्रकार भारत में भी 2014 के चुनाव ही "मोदीमय" नहीं थे बल्कि उन आम चुनावों के बाद अनेक राज्यों से आने वाले लगभग हर चुनाव परिणाम पूरे देश में मोदी लहर पर अपनी मुहर लगते जा रहे थे।ऐसा लगने लगा था कि मोदी के विजय रथ को रोकना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। नोटबन्दी और जीएसटी जैसे कठोर निर्णयों के बावजूद उत्तरप्रदेश और गुजरात में भाजपा की सुनामी चली । लेकिन फिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि भाजपा का गढ़ कहे जाने वाले तीन राज्य भाजपा के हाथों से फिसल गए। इन राज्यों में भाजपा और कांग्रेस के बीच केवल सत्ता का हस्तांतरण ही नहीं बल्कि आत्मविश्वास का भी हस्तांतरण हुआ। 2014 के बाद पहली बार मोदी आक्रामक नहीं आत्मरक्षा की मुद्रा में और राहुल आत्मविश्वास से भरे एक नए अवतार में दिखाई दे रहे हैं।

तो जनाब समझने वाली बात यह है कि कुछ भी "अचानक" नहीं होता। ना "मोदी लहर" अचानक बनी थी और ना ही राहुल का यह नया अवतार। भाजपा जिस मोदी लहर पर सवार होकर सत्ता पर काबिज हुई थी, उस मोदी को पहले एक लहर और फिर सुनामी बनने में 14 साल लगे थे। जी हाँ, और उसकी नींव पड़ी थी 2001 में जब वे पहली बार गुजरात के मुख्यमंत्री बने थे। तब देश तो छोड़ो गुजरात में भी वो कोई बड़ा नाम नहीं थे। लेकिन ये उनकी कार्यशैली ही थी जिसने गुजरात के लोगों को लगातार उन्हें ही मुख्यमंत्री चुनने के लिए विवश कर दिया। और वो मोदी का गुजरात मॉडल था जिसने उनकी कीर्ति पूरे देश में फैलाई। इसी गुजरात मॉडल और मोदी की छवि को भाजपा ने उसे पूरे देश के सामने रखकर 2014 का दाँव खेला जो सफल भी रहा। भाजपा ही नहीं देश को उम्मीद ही नहीं विश्वास था कि गुजरात की तर्ज पर अब दिल्ली की कुर्सी भी 2025 तक बुक है। लेकिन आज वस्तुस्थिति यह है कि 2019 की राह भी कठिन लग रही है। 

आखिर क्यों? इसका विश्लेषण हर राजनैतिक पंडित अपने अपने तरीके से कर रहा है। कोई वोट बैंक के गणित को दोष दे रहा है तो कोई मोदी सरकार की नीतियों को। कोई विपक्षी एकता को दोष दे रहा है तो कोई भीतरघात को। कुल मिलाकर कारण बाहर ही ढूंढे जा रहे हैं भीतर नहीं। जबकि अपनी हार को जीत में वो ही बदल सकता है जो कमियाँ खुद में ढूंढता है परिस्थितियों में नहीं। अब समय कम है लेकिन कुछ बातें भाजपा से ज्यादा मोदी जी को समझनी आवश्यक हैं 

लोगों ने मोदी की आक्रामक एवं एक कट्टर हिंदूवादी कर्मठ प्रशासक छवि को वोट दिया था जो उन्होंने पहले 2001 में गुजरात को भयानक भूकंप से उपजी तबाही और फिर गुजरात को 2002 के दंगों के बाद उपजी अराजकता से उबार कर देश के मानचित्र पर तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था वाला प्रदेश बनाकर कमाई थी। लेकिन केंद्र में आते ही मोदी ने पहली गलती अपनी छवि बदलने का प्रयास कर के की। पूरे देश के जनमानस में अपने लिए स्वीकार्यता बनाने के उद्देश्य से "सबका साथ सबका विकास" के नारे से अपनी कट्टर हिंदूवादी की छवि से बाहर निकलने का प्रयास किया। इसके बजाए अगर वो अपनी "उसी छवि के साथ" सबका विकास करते तो उन्हें कहीं बेहतर परिणाम मिलते।

उन्होंने दूसरी गलती यह की, कि लोगों की अपेक्षाएं पूरी करने के बजाए उनसे अपेक्षाएँ करने लगे (कि वे उनके कठोर निर्णयों में उनका साथ दें)। लोगों ने भी विपक्ष की आशा के विपरीत नोटबन्दी और जीएसटी जैसे कठोर निर्णयों के बावजूद मोदी की झोली उत्तरप्रदेश हरियाणा और गुजरात में भर दी। देश मोदी की अपेक्षाओं पर खरा उतरता गया और मोदी मदमस्त होते गए। लेकिन यह भूल गए कि उन्हें भी देश की अपेक्षाओं पर खरा उतरना है। 

वो अपने पारंपरिक वोट बैंक को टेकेन फ़ॉर ग्रांटेड लेते गए, यह उनकी तीसरी और सबसे बड़ी भूल थी, जो भाजपा कहती थी कि मुस्लिम उसे कभी वोट नहीं देते और जिसके वोट के बिना वो सत्ता में आई वो उस वोट बैंक में सेंध डालने की नीतियाँ बनाने में इतनी मशगूल हो गई कि अपने चुनावी मेनिफेस्टो को ही भूल गयी। देश यूनिफॉर्म सिविल कोड, 35A ,370, कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास जैसे फैसलों का इंतजार करता रहा और यह तीन तलाक की लड़ाई लड़ते रहे।

जिस मिडिल क्लास के दम पर भाजपा सत्ता में आई उसके फाइनेंस मिनिस्टर ने अपने पहले ही बजट में उसके सपने यह कहकर तोड़ दिए कि मध्यम वर्ग को अपना ख्याल खुद ही रखना होगा। जो सवर्ण समाज उसका कोर वोटबैंक था उसे एट्रोसिटी एक्ट का तोहफा दिया। मोदी यह अच्छी तरह जानते हैं कि भारत का मध्यम वर्ग ही वो एकमात्र ऐसा वोटबैंक हैं जो नैतिक मूल्यों के साथ जीता है और बिकाऊ नहीं है । शायद इसलिए उन्होंने इसका सबसे ज्यादा फायदा भी उठाया लेकिन अब नुकसान भी उठा रहे हैं।

एक ओर उच्च वर्ग की नैतिकता वहाँ होती है जहाँ उनके स्वार्थ की पूर्ति होती है, तो दूसरी ओर जिन "दलितों शोषितों वंचितों" का जिक्र वो अपने हर भाषण में करते हैं और जिनके लिए वे उज्ज्वला सौभाग्य आयुष्मान प्रधानमंत्री आवास शौचालय निर्माण जैसी योजनाएं लेकर अपना वोटबैंक बनाने की सोच रहे हैं, वो पुरूष एक शराब की बोतल और महिलाएं चार साड़ी के नशे में वोट डालते हैं सरकारी योजनाएं देखकर नहीं। क्योंकि यह उनकी मजबूरी है क्योंकि वे पढ़े लिखे नहीं हैं वे अखबार नहीं पढते और ना ही उनके साक्षात्कार सुनते हैं। 

और सबसे महत्वपूर्ण बात जो मोदी भूल गए, कि यह वो देश है जहाँ चुनाव काम के दम पर नहीं वोटबैंक और जातीय गणित के आधार पर जीते जाते हैं, जहाँ वोट विकास के नाम पर नहीं आरक्षण या कर्ज़ माफी के नाम पर मिलते हैं। 

2014 में मोदी को पूरे देश में वोट मिले । लोगों ने जाती का भेद भुला के वोट दिया था। मोदी की छवि के आकर्षण के आगे सभी चुनावी समीकरण गलत सिद्ध हुए। इसलिए मोदी को समझना चाहिए कि लोगों का आकर्षण "मोदी" से अधिक उनकी दबंग हिंदूवादी छवि के प्रति था। उन्हें शेख हसीना से सीखना चाहिए कि सबको साथ लेकर चलने के लिए छवि बदलने की जरूरत नहीं होती।